संमोह से भ्रमित है मन मत्त मेरा, है दीखता सुख नहीं, परितः अंधेरा।
स्वामी रुका न अबलौं गति चार फेरा, मेरा अतः नहिं हुआ शिव में बसेरा ॥६७॥
मिथ्यात्व के उदय से मति भ्रष्ट होती, ना धर्म कर्म रुचता, मिट जाय ज्योति।
पीयूष भी परम पावन पेय प्याला, अच्छा लगे न ज्वर में बन जाय हाला॥६८॥
मिथ्यात्व से भ्रमित पीकर मोह-प्याला, ज्वालामुखी तरह तीव्र कषाय वाला।
माने न चेतन-अचेतन को जुदा जो, होता नितांत बहिरातम है मुधा ओ ॥६९॥
तत्त्वानुकूल यदि जो चलता नहीं है, मिथ्यात्व चीज इससे बढ़ कौन-सी है।
कर्तव्यमूढ़, पर को वह है बनाता, मिथ्यात्व को सघन रूप तभी दिलाता ॥७०॥