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पदमावती देवी की अराधना : एक गड्ढे से निकालकर दूसरे में पटकना है - मुनि श्री प्रणम्य सागर


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पदमावती देवी की अराधना

एक गड्ढे से निकालकर दूसरे में पटकना है

 

राग संसार का रोग, जिनेन्द्र उपासना मुक्ति का योग

अन्य धर्म से बचाने में हो रहा भटकाव

पदमावती पर पार्श्व प्रभु अभी हाल की देन

प्रमाणिक ग्रन्थों का करें अवलोकन

 

पद्मावती देवी की आराधना - Copy.jpeg

जैनियों का महापर्व खत्म हुआ और वहीं तैयारी होने लगी आने वाले नवरात्रों में पदमावती, चक्रेश्वरी देवी के जागरण-चौको कराने की। आज का युवा वर्ग ऐसे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेता है, कहीं-कहीं तो विद्वान पंडित और साधुओं की भी अनुमति और सान्निध्य तक मिल जाता है। अब यह सब जैन धर्मसंस्कृति के अनुरूप, आगमानुसार है, इस बारे में सान्व्य महालक्ष्मी ने सीधी चर्चा की संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी के सुयोग्य शिष्य मुनि श्री प्रणम्य सागरजी से।

 

सान्ध्य महालक्ष्मी : ये जो नवरात्र, जागरण, चौकी आदि शब्द हैं, क्या ये जैन संस्कृति से जुड़े हुये है, जिसे आज युवा वर्ग बड़े उत्साह से मनाता है?

 

मुनि श्री : ये शब्द ही स्पष्ट कर देते हैं कि ये जैन शास्त्रों से नहीं लिये गये। आगम में इनका कहीं उल्लेख नहीं है।

 

सान्ध्य महालक्ष्मी : देवी-देवताओं की परम्परा फिर कैसे शुरू हो गई।

 

मुनि श्री : पिछले कुछ सालों में कुछ साधुओं ने अपनी प्रभावना को हिन्दुओं की तरह बनाने के लिये इसकी अप्रत्यक्ष रूप से अनुमति दे दी और वही स्वरूप आज दिख रहा है।

 

सान्ध्य महालक्ष्मी : पंच परमेष्ठी की अराधना करने वाले, मानने वाले हम जैनियों का अब देवी-देवताओं की ओर आकर्षण बढ़ने लगा है। आज कल कुछ साधु भी इस तरह की बात पर सहमति भी दे देते हैं। क्यों और क्या यह उचित हैं?

 

मुनि श्री : साधु लोग समझते हैं कि हम जैनियों  को अन्य देवी-देवताओं की तरफ जाने से रोकने के लिये अपने देवी-देवताओं को मानने लगे, तो कम से कम अन्य धर्म की उपासना से तो बच जाएंगे। यह सोचकर वह रागी देवी देवताओं की उपासना तीर्थंकरों के यक्षयक्षणियों के रूप में करने की सलाह देते हैं, परन्तु परिणाम यही निकलता है कि हम उन्हें एक गड्ढे से बचाकर दूसरे में पटक देते हैं। श्रावक को सही राह वीतरागता की उपासना करने से ही मिलेगी, चाहे उसकी उपासना करते करते श्रावकों को कितनी देर लग जाये, उम्र लग जाये।

 

जैसे कैंसर के रोगी का इलाज जिस डॉक्टर के पास ऑपरेशन के रूप में है, तो वो ऑपरेशन से ही ठीक होगा। अन्य विद्या का डॉक्टर उसे कितना ही टालमटोल करती रहे, पर देर-सवेर उसे अपने को ठीक करने के लिये ऑपरेशन करवाना ही होगा। इसी तरह श्रावक को भी समझना होगा कि राग ही संसार का रोग है। और जिनेन्द्र देव की उपासना ही सभी दुखों से मुक्ति का योग है।

 

सान्ध्य महालक्ष्मी : पर कुछ भजन और पूजा में इनका उल्लेख आता है?

 

मुनि श्री : प्रमाणिक शास्त्रों को देखो, अगर किसी ने लिख भी दिया तो क्या उसे प्रमाण मान लेंगे, चाहे वो हिन्दी में लिखे हों या संस्कृत में।

 

सान्थ्य महालक्ष्मी : कहा तो जाता है पदमावती देवी ने उपसर्ग दूर किया और फिर क्या उपसर्ग दूर करने वालों की पूजा नहीं करनी चाहिये?

 

मुनि श्री : यह किसने कह दिया कि पदमावती ने उपसर्ग दूर किया। यह सब गृहस्थ विद्वानों द्वारा लिखी गई उस समय की बातें हैं जब विद्वानों को प्रमाणिक और अप्रमाणिक आचायों की परम्पराओं का ज्ञान नहीं था। उत्तर पुराण में आचार्य गुणभद्र और स्वयंभूस्तोत्र में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने पार्श्वनाथ भगवान के प्रसंग में कहीं भी पद्मावती के नाम का उल्लेख नहीं किया है। उनको फण पर बैठाने की बात भी प्रमाणिक आचार्यों के शास्त्रों के सम्मत नहीं है।

 

सान्थ्य महालक्ष्मी : अगर ऐसा नहीं है, तो भगवान पार्श्वनाथ के जिनबिम्बों में फण क्यों बनाया जाता है? और यह अभी नहीं, प्राचीन मूर्तियों में भी देखने को मिल जाता है?


मुनि श्री : फण बनी मूर्तियां तो प्राचीन मिलती हैं, पर पदमावती के फण पर बैठाने वाली मूर्तियां प्राचीन नहीं हैं। यह सब पदमावती की महिमा को बढ़ाने के उद्देश्य से अभी हाल में किया जाने लगा। पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति पर फण होना, भगवान बाहुबली की मूर्ति पर बेल का लिपटी होना, उनकी पहचान का संकेत देने की बात है। पदमावती के ऊपर पार्श्व प्रभु का होना प्राचीन नहीं, अभी हाल में शुरू हुआ है।

- मुनि श्री प्रणम्य सागर

 

पद्मावती देवी की आराधना - Copy.jpeg

 

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