हम उन्न्नत कैसे बनें?
हम उन्न्नत कैसे बनें?
पानी से पूछा गया कि तुम्हारा रंग कैसा है? उत्तर मिला कि जैसा रंग का सम्पर्क मिल जावे वैसा। अर्थात् पानी पीले रंग के साथ में घुलकर पीला, तो हरे रंग के साथ में घुलकर हरा बन जाता है। ऐसा ही हाल इस मनुष्य का भी है। इसको प्रारम्भ से जैसे भले या बुरे की संगति प्राप्त होती है वैसा ही वह खुद हो जाया करता है।
अभी कुछ वर्षों पहले की बात है- लखनऊ के अस्पताल में एक प्राणी लाया गया था जो कि अपनी चाल-ढाल से भेड़िया बना हुआ था, परन्तु वस्तुत वह मनुष्य था। जो कि कच्चे मांस के सिवा कुछ नहीं खाता था। भेड़िये की आवाज में बोलता था। वैसे ही अपनी शारीरिक चेष्टा-झपटना मारना वगैरह करता था। बात ऐसी थी कि एक नन्हें बालक को भेड़िया उठा ले गया। बालक के माँ-बाप ने सोचा कि उसे तो भेड़िया खा गया होगा परन्तु भेड़िये ने उसे अपने बच्चे के समान पाला-पोषा। जैसा मांस आप खाता था वैसा कुछ मांस इस बच्चे को भी दे दिया करता था एवं अपने पास उसे प्रेम पूर्वक रखा। करीब १२-१४ वर्ष की अवस्था में वह उन अस्पताल वालों की निगाह में आ गया और चिकित्सा के लिए लाया गया। धीरे-धीरे अब वह कच्चा मांस खाने की अपेक्षा पकाया हुआ मांस खाने लगा और कोई-कोई जवान मनुष्य की सी बोलने लग गया।
मतलब यही कि मनुष्य जैसी सोहबत संगत में रहता है वैसा ही बन जाता है। बुरों के साथ में रहने से अपने आप बुरा बनते हुए और का भी बुरा करने वाला होता है। तो अच्छों के साथ में रहकर खुद अच्छा होता चला जाता है एवं समाज का भी भला करने वाला होता है। अतः हमें चाहिये कि हम भले लोगो की संगति में रहें और भले बनें, यही हमारी उन्नति है।
लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री
(आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)
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