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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

4. अल्पदान - महाभोग


Vidyasagar.Guru

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अब संप्राप्त अष्टम भव में वह ललिताङ्ग देव स्वर्ग से च्युत होकर इस जम्बूद्वीप के महामेरु से पूर्व दिशा में स्थित विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के उत्पल खेटनगर के राजा बज्रबाहु और रानी वसुन्धरा से वज्रजंघ इस सार्थक नाम को धारण करने वाला पुत्र हुआ। प्रतिदिन अपने गुण रूपी कलाओं की वृद्धि करता हुआ यौवन की दहलीज पर आते-आते वह पूर्ण चन्द्रमा-सा विकसित हो गया और अपने बन्धुवर्ग को हर्षित करता हुआ अपनी कान्ति से सदैव ही प्रसन्न रहता था। उसकी सुन्दरता का बखान क्या करना ? महाबल के भव में जो रूप, सौन्दर्य, गुण, चतुराई विद्यमान थी, उससे कहीं अधिक, इस भव में उसने पाया था, पुण्य का फल ऐसा ही है कि वह व्यक्ति को निरन्तर सांसारिक सुख का उत्कृष्ट उपभोग कराता हुआ अन्त में अरिहन्त पद का फल भी दिलाता है। हाँ, कभी-कभी पुण्य पुरुषों से किया गया राग भी कल्याण का कारण हो जाता है। हुआ यही कि स्वयंप्रभा ने अपना अनुराग ललिताङ्ग के शरीर तक ही नहीं रखा बल्कि उसके वियोग में भी वह जिनपूजन आदि करती हुई उसकी ही याद करती थी। धर्म कितना निष्पक्ष पदार्थ है, कितना सहिष्णु है कि वह पर में राग रखने वाले को भी प्रसन्न रखता है उसे उसके किए धर्म का फल तो देता ही है, राग से बाँधा हुआ कर्म का फल भी उसे मिल जाता है। स्वयंप्रभा का वह राग-बन्ध उसे वहाँ ले गया, जहाँ का राजा वज्रजंघ का मामा था। वह राजा वज्रदत्त था, उसकी रानी लक्ष्मीमति उन दोनों के वह स्वयंप्रभा देवी ही श्रीमती नाम की पुत्री हुई। जिसने जिनदेव के चरणों की पूजा की हो, उसके सुन्दर रूप का वर्णन तो जिनदेव से ही सम्भव है, मुझसे नहीं। अपने पुण्य से वह उस राजा की पुत्री हुई जो चक्रवर्ती बनने वाला है। वह श्रीमती इतनी सुन्दर थी कि उसके रूप को देखकर मनुष्य और देवता की बात तो जाने दो स्वयं कामदेव भी उन्मत्त हो जाता। यौवन के प्राप्त होने पर वह अपने सौन्दर्य की ख्याति से ऐसे प्रसिद्ध हो गई कि मानो कोई कली फूलबनकर महकने लगी हो और चारों ओर से भ्रमर रूपी नरों को अपनी ओर बुला रही हो।

 

ऐसी श्रीमती किसी दिन अपने नगर के मनोहर उद्यान में यशोधर गुरु को केवलज्ञान हो जाने पर स्वर्ग के देवों के आगमन से होने वाले कोलाहल को सुन कुछ भयभीत हुई। उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया, जिससे वह ललिताङ्ग देव का स्मरण करती हुई मूर्च्छित हो गई। शीतोपचार आदि के द्वारा जब वह होश में आई तो वह गुमशुम-सी चुपचाप बैठी रही, वह किसी से कुछ न बोली। यह समाचार जब पिता को ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पास बुलाकर उससे बात करनी चाही पर वह फिर भी कुछ न बोली। थोड़ी देर बाद राजा समझ गए कि इसे किसी पूर्वजन्म का स्मरण हो आया है। वहाँ से लौटे तो उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया और साथ उनके पूज्य पिता के केवलज्ञान का समाचार भी प्राप्त हुआ। प्रथम तो वह केवलज्ञान की पूजा करने गए, बाद में चक्ररत्न को पूजकर दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। इसी बीच श्रीमती की एक पण्डिता नाम की धाय आई और श्रीमती को एकान्त में ले गयी। वहाँ उसने चातुर्य पूर्ण वचनों से बड़े प्यार से उसके मन की बात पूछी। उसने कहा पुत्री! मैं जानती हूँ कि इस उम्र में क्या-क्या रोग होते हैं? जिसके कारण तू मौन हैं । देख, मेरा नाम पण्डिता है, मैं प्रत्येक कार्य में कुशल हूँ। मैं यह तो जानती हूँ कि तुझे क्या रोग है और उसका निदान क्या है, पर वह निदान कहाँ होगा, बस तू मुझे इतना बता दे, आगे सब कार्य मेरा। बेटी! मैंने तुझे जन्म से पाला है इसलिए मैं तेरी माँ समान हूँ और माँ से कोई रोग छुपाना ठीक नहीं है। यदि तू माँ को न बताना चाहती है तो मत बता, मैं तेरे साथ हमेशा रहती हूँ इसलिए तुम्हारी प्रिय सखी भी मैं ही हूँ। मेरी सखी किसी बात से परेशान रहे और मैं उसका समाधान न कर पाऊँ तो मेरा सखीपना व्यर्थ है। इसलिए अपनी सखी समझ कर तो बता। श्रीमती मुझसे शर्माओ मत, अपने दिल की बात सखी से कहने से मन हल्का हो जाता है और फिर मैं तो निश्चित कह रही हूँ कि तेरा कार्य, तेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगी और देख तेरे भाग्य से अभी तेरे पिताजी दिग्विजय के लिए गए हैं इसलिए इस सुयोग्य अवसर को मत खो। श्रीमती कुछ कहने को हुई कि फिर रुक गई तो पण्डिता ने कहा-बोल-बोल यहाँ कोई नहीं है, इसीलिए तो मैं तुझे एकान्त में लाई हूँ। अब की बार श्रीमती ने फिर धैर्य बाँधा और कहा- मैं कहने में लज्जा अनुभव करती हूँ, पर इसके बिना दूसरा रास्ता नहीं है। हे सखी! मेरी कथा बहुत बड़ी है पर, मैं संक्षेप में कहती हूँ जिसका स्मरण आज इन देवों के आगमन से मुझे हो गया।

 

मैं पहले नागदत्त नाम के वैश्य की पुत्री थी। किसी दिन मैंने चारण चरित नामक मनोहर वन में अम्बर तिलक पर्वत पर विराजमान पिहितास्रव नाम के मुनिराज के दर्शन किए, पश्चात् मैंने उनसे पूछा कि हे भगवन्! मैं ऐसे दरिद्र कुल में क्यों उत्पन्न हुई हूँ ? इस प्रकार पूछने पर करुण हृदय मुनिराज ने अपने अवधिज्ञान से बताया कि पूर्वभव में एक समाधिगुप्त मुनिराज थे, वे अपना स्तोत्र पढ़ रहे थे कि तूने उन्हें देखकर हँसी-हँसी में उनके सामने मरे हुए कुत्ते का कलेवर डाला था और इस अज्ञान पूर्ण कार्य से खुश भी हुई थी। यह देखकर मुनिराज ने तुझसे कहा कि बालिके! तूने यह अच्छा नहीं किया भविष्य में इसका फल तुझे पीड़ा देने वाला होगा क्योंकि पूज्य-तपस्वी पुरुषों का अपमान इस भव में या पर भव में नियम से बुरा फल देता है। मुनिराज के ऐसा कहने पर उसी समय उनसे तूने क्षमा माँग उस क्षमा भाव से जो पुण्यबंध हुआ उसके कारण तू इस मनुष्य योनि में जन्मी किन्तु अपमान के भाव से बंधा हुआ दुष्कर्म तुझे दरिद्र बनाये रखा है। इसलिए हे कल्याणि! अब जिनगुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञान के उपवास क्रम से ग्रहण करो। इन अनशनादि तप के बिना पूर्व संचित कर्म का क्षय नहीं होगा, न आगामी सुख के लिए पुण्य बंध। भविष्य में कभी मुनियों का अनादर नहीं करना। जो लोग मन से निरन्तर मुनियों का निरादर करते रहते हैं, वे अगले जन्म में स्मरण शक्ति से हीन होते हैं । जो लोग वचनों से मुनियों के लिए अपमान जनक वचन बोलते हैं, वे दूसरे भव में गूंगे होते हैं और जो काय से मुनि का अनादर करते हैं वे ऐसे कौन से दुःख हैं जो उन्हें प्राप्त नहीं होते अर्थात् उन्हें सभी दुःख भोगने पड़ते हैं। इस भव में ही शरीर में ही कोढ़ आदि भयंकर रोगों का भाजन बनना पड़ता है। अस्तु ! इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर मैंने दोनों व्रतों के विधि पूर्वक उपवास किए, जिन उपवास को जिन तिथि और दिन में करना होता है, उन्हीं में किया तथा मरणकर ललिताङ्गदेव की स्वयंप्रभा रानी हुई, उनके साथ मैंने अनेक भोग  भोगे, वहाँ से च्युत होकर मैं वज्रदत्त चक्रवर्ती की पुत्री हुई हूँ। हे सखी! वह ललिताङ्ग देव मेरे हृदय में टांकी-सा उकेरा हुआ सदा ही मुझे व्याकुल करता है, मुझे प्रतिपल उसी का स्मरण रहता है। मुझे पता नहीं स्वर्ग से आकर उसका जन्म कहाँ हुआ पर मेरा मन उनके अलावा किसी और को नहीं चाहता। हे सखी! मेरे इस कार्य की सिद्धि सफल तुम ही कर सकती हो, यही सोचकर मैंने यह वृत्तान्त तुम्हें सुनाया है, यदि यह कार्य नहीं हुआ तो उनके विरह में मैं मर जाऊँगी, किसी और से विवाह नहीं करूँगी। पण्डिता ने उसको धैर्य दिलाया और कहा श्रीमती यह कार्य कठिन जरूर है, पर असम्भव नहीं, मैं तेरे पति को अवश्य खोज लाती हूँ। वह पण्डिता इस प्रकार कहकर एक चित्रपट को लेकर शीघ्र ही अत्यन्त पवित्र जिनमन्दिर गई। उस जिनमन्दिर में जाकर पहले पण्डिता ने श्री जिनेन्द्रदेव की वन्दना की फिर वह वहाँ की चित्रशाला में अपना चित्रपट फैलाकर आये हुए लोगों की परीक्षा करने की इच्छा से बैठ गई। विशाल बुद्धि के धारक कितने ही पुरुष आकर बड़ी सावधानी से उस चित्रपट को देखने लगे और कितने ही उसे देखकर यह क्या है? इस प्रकार से जोर से बोलने लगते । वह पण्डिता समुचित वाक्यों से उन सबका उत्तर देती और मूर्ख लोगों पर मन्दमन्द हँसती। वहाँ वासव और दुर्दान्त दो व्यक्ति आये और कहा कि हम दोनों चित्रपटों का स्पष्ट आशय जानते हैं। उन्होंने कहा-किसी राजपुत्री को जातिस्मरण हुआ है इसलिए उसने अपने पूर्व भव की समस्त चेष्टाएँ लिखी हैं और बड़ी चतुराई से बोले कि इस राजपुत्री के पूर्व जन्म के पति हम ही हैं। यह सब सुनकर पण्डिता ने कहा ठीक है, हो सकता है आप ही इसके पति हों। पर जरा इन गूढ चित्रों का अर्थ भी तो बताइये। उन गूढ चित्रों का उत्तर देने में असमर्थ वे चुपचाप वहाँ से चले गए। तत्पश्चात् वह महाभाग गूढ पुरुष आया। उस भव्य ने आकर पहले जिनमन्दिर की प्रदक्षिणा दी फिर जिनेन्द्रदेव की स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया, उनकी पूजा की फिर चित्रशाला में प्रवेश किया। चित्रपट को देखकर उसने कहा, ऐसा लगता है मानो इस चित्रपट में लिखा हुआ मेरा विगत जीवन ही हो। दूसरे चित्र को देखकर उसने कहा अरे! यह चित्र बड़ी चतुराई से भरा हुआ है, अहो यह तो साक्षात् ललिताङ्ग ही है और यह प्राणप्यारी मानो स्वयंप्रभा का रूप ही हो, यह श्रीप्रभ विमान, यह कल्पवृक्ष, ये मुझसे मुँह फारकर बैठी हुई स्वयंप्रभा, मेरे स्नेह की राह देख रही हो, यह मुझसे नाराज हुई मुझे अपने कर्ण फूलों से मार रही है, यह अपने ओठों की लालिमा से अंगुली से मेरे हृदय पर अपना नाम लिख रही है, परन्तु कुछ छूट गया, वह नहीं बनाया जब मैं उसके ललाट से अंगुली फेरते हुए आते-आते उसके गर्दन तक लाता तो शर्माकर दूर भाग जाती, निश्चय ही यह स्वयंप्रभा के हाथों की चतुराई ही है। इस प्रकार ऊहापोह करता हुआ उसका गला भर आया, उसकी आँखें नम हो गईं और मूर्च्छित-सा होकर वहीं बैठ गया। धीरेधीरे जब वह सचेत हुआ तो उसने पण्डिता से पूछा हे भद्रे! यह सब लीला क्या है? और क्यों बनायी गयी है? पण्डिता ने उसे सारा हाल सुनाया, बाद में राजकुमार ने अपना चित्र उस धाय को दिया तथा स्वयंप्रभा का चित्रपट लेकर चल दिया और कहा कि श्रीमती से कहना मैं जल्द ही आऊँगा। यह सब कार्य पूर्ण होने में जितने दिन लगे तब तक वह चक्रवर्ती दिग्विजय से वापस लौटे। जब वह केवलज्ञानी गुरु के दर्शन करने गए थे तभी उनके भावों की विशुद्धि से उन्हें प्रणाम करते ही अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया था। चक्रवर्ती ने घर आकर उस अवधिज्ञान से श्रीमती की घटना को जाना और श्रीमती को अपने पूर्वभव भी सुनाये। पश्चात् श्रीमती को आश्वासन देकर चक्रवर्ती ने अपने बहनोई वज्रबाहु, बहिन और भानजे को बुलावा भेजा। पाहुनों का आगमन हुआ, बातचीत हुई और वज्रजंघ तथा श्रीमती का विवाह बड़े ठाटबाट से हुआ। चिरकाल से बिछुड़े हुए चकवा-चकवी के समान उनका समागम सबको प्रिय था। उत्तम साधारण मनुष्यों को अनुपलब्ध ऐसे उत्तम-उत्तम दिव्य भोगों को भोगता हुआ, उसका चित्त श्रीमती के अलावा कहीं नहीं लगता था। जैसे बने तैसे, जब तक बने तब तक, वे दोनों एक-दूसरे को सन्तुष्ट करते हुए सुखपूर्वक समय व्यतीत करते । वज्रजंघ ने दो मुनियों को वन में दान दिया, उस आहारदान के प्रताप से पञ्चाश्चर्य हुए और अतिशय पुण्य का बंध हुआ, उसने 4.pngदमधर नाम के मुनिराज से अपने पूर्व भव पूछे, धर्म का स्वरूप समझा। धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थों को करता हुआ एक दिन वह अपने शयनागार में अपनी रानी के साथ सुख क्रीड़ा में लिप्त था, उस शयनागार में सुगन्धी और केश संस्कार के लिए धूम्रघट रखे गए थे। एक महज संयोग, उस रात्रि में झरोखे  बन्द थे, उन धूम्रघटों से निकलता हुआ काला धूम्र ही उन दोनों का काल बन गया। श्वास निरुद्ध होने से दोनों के प्राण-पखेरू साथ-साथ उड़ गए। सपना साकार हुआ, साथ-साथ जीने की कसम खाई थी, साथ-साथ ही मर गए। धिक्कार ऐसी भोग-उपभोग की सामग्री जो प्राणों का ही हरण कर ले। धिक्कार है उस वासना को जो विवेक का ही अपहरण कर ले। अस्तु, दोनों का मरण हुआ, मुनिराजों को आहारदान दिया था, उससे भोगभूमि की आयु का बंध किया और बचे हुए पुण्य का उपभोग करने को गए, एक साथ दूसरी जगह मानो एक घर को छोड़कर कोई दूसरे नए घर में गया हो और अब प्रारम्भ हुआ एक नया अध्याय।

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