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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

5. द्रष्टा सम्यक् बना


Vidyasagar.Guru

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संसार में भ्रमण का सप्तम भव था। मरण हुआ तो जन्म निश्चित ही है पर उन दोनों का जन्म वहाँ हुआ जहाँ पर अक्सर लोग दान के प्रभाव से ही उत्पन्न होते हैं। ऐसा नहीं कि सभी दान देने वाले वहीं पर ही जन्म लेते हैं, किन्तु जो दान तो देते हैं उत्तम पात्र को, किन्तु मिथ्यात्व को भी अन्तस् में पाले रखते हैं, उन्हें पुण्य का फल यह भोगभूमि में फलता है। जन्म तो स्त्री के गर्भ में ही होता है पर जैसा कर्मभूमि के मनुष्य को गर्भ के प्रसव में पीड़ा होती है वैसी वहाँ नहीं होती। वहाँ साथ-साथ जन्मते हैं, साथ-साथ जीते हैं और साथ-साथ मरते हैं । युगल का जन्म होता है उसी समय युगल को उत्पन्न करने वालों का मरण होता है। साथ-साथ जन्मे हुए बड़े होकर पति पत्नी-सा व्यवहार करते हैं और कोई दूसरा सम्बन्ध नहीं, न भाई-बहिन का, न मातापिता का, इसी से फलित है कि दुनिया में सबसे बड़ा सुख स्त्री-पुरुष का निर्विघ्न संयोग है। जैसे-जैसे संयोग बढ़ता है, व्यक्ति दुःखी होता जाता है शायद इसीलिए स्वर्ग और भोगभूमि में कोई दूसरा संयोग नहीं होता। वहाँ कोई किसी की स्त्री को बुरी नजर से नहीं देखता, न ही कोई स्त्री किसी दूसरे को अपना पति बनाने का भाव करती है, बाहरी सुख तो मिलते हैं, पर उन सुख में व्यक्ति सुखी तभी रह सकता है, जबकि अन्दर भी कुछ सुख की सामग्री हो। वह सुख की सामग्री है सदा शुभ लेश्या यानी शुभ भाव, सरलता, सन्तोष और इसी बल पर वे नियम से इस भूमि पर सुख भोगने के उपरान्त स्वर्ग का सुख अवश्य भोगते हैं। विशुद्ध भावों से उत्तम पात्र को दान देने का इतना विशिष्ट फल कि यह भोगभूमि का सुख तो सुबह के नाश्ता जैसा, बाद में स्वर्ग का सुख का भरपूर भोजन जैसा। यह सब कल्पना नहीं पुण्य और पाप के उपभोग के स्थान बने हैं, जो अनादि से हैं जीव अपनी स्वतन्त्रता से कर्म कमाता है और उसी का फल भी भोगता है ।

 

सभी प्रकार के रत्नों से बनी दिव्यभूमि, जिस पर चार अंगुल ऊँची घास सदैव लहलहाती है। जहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं,जो जीव को मन चाही सामग्री उपलब्ध कराते रहते हैं। ये वृक्ष उगकर बड़े नहीं हुए हैं इसीलिए वनस्पतिकायिक नहीं हैं और न देवों के द्वारा बनाये हुए हैं। स्वभाव से ही इस जगत् की विचित्र व्यवस्थाएँ चलती रहती हैं। उस गर्भ से जन्म लेने के उपरान्त छह सप्ताह में ही वे पूर्ण जवान हो जाते हैं और सातवें सप्ताह में तो अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर भोग भोगने योग्य हो जाते हैं। बहुत आयु होने पर भी यहाँ अकालमरण नहीं, सदा एक समान सुख, छह ऋतुओं की सामग्री एक साथ, उत्कृष्ट संहनन, कान्तिमान शरीर, मनोहर चेष्टाएँ, सभी कलाओं में निपुण, सदा प्रसन्नता। एक समय वह वज्रजंघ का जीव जब आर्य बनकर अपनी स्त्री के साथ कल्पवृक्ष की शोभा निहारता हुआ बैठा था कि आकाश में एक देव का विमान दिखा, जिसे देखते ही दोनों को जातिस्मरण हो गया और संसार का वास्तविक चित्र सामने आ गया। यह उपादान के जागृत होने का समय है, मानो इसीलिए दोनों की दोनों आँखें खुली की खुली रह गयीं। अब संसार में भ्रमण करते-करते यह आत्मा अत्यन्त तृप्त हो गयी है, विमान देखने में, जुती हुई मिट्टी की तरह मानो ऊपर मुख किए हैं, बरसात होने की देर है कि अनादिकाल से सुप्त हुआ बीज अंकुरित हो जाये, सोचते-सोचते वह बरसात लिए दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों के मेघ आ गए। आतम माटी अत्यन्त खुश हुई और विगत के दुष्कर्मों की पश्चाताप की आग बनकर नयनों से बाहर निकलने लगी। पात्र में लगा पुराना मल जब तक साफ नहीं होता और पात्र साफ-स्वच्छ नहीं होता तब तक नव अमृत को उसमें कैसे रखा जाये? जन्म-जन्म से की हुई गलती को सुधारने में भी कई जन्म लगते हैं, तब कहीं कोई महापुरुष बनता है। मोक्ष पद मिलता धीरे-धीरे यह बात सामने आ जाती है। दोनों जीवों के दोनों नयनों से लगातार अस्रुधारा प्रवाहमान है। इस भोगभूमि में इन मुनिराजों के दर्शन, आत्मग्लानि से ओतप्रोत और विनय से भरपूर हाथ जोड़े खड़े हुए युगलों को देखकर युगल मुनिराज वहीं रुक गए। वज्रजंघ आर्य ने मुनिराजों के चरणयुगल में अर्घ चढ़ाया, नमस्कार किया और अति विनय से उनके आगमन का समाचार पूछा। यह विनय बहुत दुर्लभ गुण है, पूर्व जन्म में लिए हुए संस्कार और तप से प्राप्त होता है। मानता हूँ कि उपादान की काललब्धि आयी है, निमित्त-उपादान के पास चलकर आये हैं पर समर्थ उपादान भी निमित्त का अनादर नहीं करता। अहो! सम्यक्त्व प्राप्ति से पूर्व में इतना विनय और आदर फिर सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद तो क्या कहना! मुनिराज मौन हैं, वे देख रहे हैं उसकी भक्ति, उसकी उत्सुकता। पुनः आर्य पूछता है, भगवन् कुछ बताओ। मुझे ऐसा लग रहा है, मानो मैं आपसे पूर्व से परिचित हूँ, आप हमारे अनन्य मित्र रहे हैं। तब ज्येष्ठ मुनि कुछ मुस्कुराते हुए अपनी दन्त रश्मि से भव्य का शोक दूर करते हुए कहते हैं।

 

हे आर्य! मैं स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव हूँ। जब तुम महाबल थे, तब मेरे सम्बोधन से तुम सल्लेखना को प्राप्त कर स्वर्ग गए। तुम्हारे वियोग में मैंने दीक्षा धारण की थी और समाधिमरण कर देव हुआ फिर मनुष्य बना, दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान और ऋद्धियों को प्राप्त हुआ हूँ। अवधिज्ञान से तुमको जाना और मित्र स्नेह से आपको समझाने आया हूँ। भोगों की रुचि छोड़कर जब तक निर्मल सम्यग्दर्शन धारण नहीं किया जाता है तब तक हे आर्य! इस संसार के दु:खों का अन्त नहीं होता। धर्म का स्वरूप सुनकर, समझकर भी, मन इच्छाओं का दास बना ही रहता है। यह इच्छा की शक्तियाँ हमारे आत्मज्ञान की शक्ति को कम करती रहती हैं। शक्ति का केन्द्रीयकरण न होने से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। भोगों को छोड़कर मात्र वन में चले जाना वैराग्य नहीं है, किन्तु वस्तु स्वभाव को समझकर, वस्तु के गुण-निर्गुणपन का विचारकर भोगों को कभी स्मृति में न लाना ही सम्यग्ज्ञान है, वैराग्य है। साधु और संसारी में अन्तर है ही क्या? संसारी जन पाँच इन्द्रियों के विषयों में मन की इच्छापूर्ति में सुख मानते हैं और साधु इनसे विपरीत बुद्धिवाला होता है। यदि साधु होकर भी पञ्चेन्द्रिय को न जीता, इन्द्रिय विषयों की अभिलाषा को न छोड़ा तो मात्र नग्न बाना ज्ञानियों की दृष्टि में हास्य बाना है, अज्ञानी भले ही तुम्हें पूजता रहे और तुम अपने को ज्ञानी समझते रहो। इन्द्रियाँ पाँच हैं, एक मन हैं बस छह ही तो पदार्थ हैं, जिन्हें जीतना है ऐसा समझना भोलापन है। वस्तुतः इन छह से ही संसार बना है, इनको जीतना सरल है ऐसा समझकर यदि बेपरवाह रहे तो आगामी भविष्य में भी कल्याण असम्भव है। जब हम इन छह इन्द्रियों और उनके विषयों को छोड़ देते हैं तो हम मात्र स्वसंवेदन का अनुभव कर पाते हैं, तब यह जगत् शून्य प्रतिभासित होता है। जगत् में शून्यता का प्रतिभास हो और हमें भय न लगकर आनन्द हो, यह रुचि जब जागृत हो तो मोक्षमार्ग को हमने समझा, जाना ऐसा समझना अन्यथा सब मोह-मार्ग है, मोह का विस्तार है। इसलिए अपनी पैनी प्रज्ञा से जीव और अजीव दो ही द्रव्य में भेद का अभ्यास कर, जिससे अनादि से पले हुए मिथ्यात्व का शमन हो, फिर क्षयोपशम होकर क्षय हो सके। हे आर्य! तुम भव्य हो किन्तु अभी तक इस बहुमूल्य रत्न के अभाव में ही भटकते रहे हो अब एकाग्रचित्त होकर प्राप्त देशनालब्धि के मनन से विशुद्धि बढ़ाते हुए अपने अन्तःकरण से अन्तरकरण परिणामों को प्राप्त कर और दुर्लभ सम्यग्दर्शन का लाभ प्राप्त करो। परम-पुरुष अर्हत् भट्टारक के वचनों को प्रमाण कर शनैःशनैः जब वह आत्मवत् समस्त समष्टि में चेतना ही देखता है तो वह समद्रष्टा बन जाता है भले ही वह सर्वद्रष्टा न हो। इस दृष्टि की अनुपलब्धि से परिमित प्रज्ञा भी समीचीन नहीं होती इसीलिए चरण गहराई में नहीं उतरते । यह सम्यग्दर्शन एक दिव्य प्रकाश है। प्रकाश ही जीवन है अन्धकार तो मृत्यु है इसीलिए प्रकाश से प्रकाशित वस्तु भी अनमोल हो जाती है यह प्रकाश की महत्ता है। षट् द्रव्यों की अनवरत परिणति और उनकी आस्तिक्यता पर विश्वास बिना, मन की उद्विग्नता का अन्त कहाँ? बिना अनुद्विग्न हुए समरसी विश्व कहाँ? यह समरसता वह परम रसायन है, जिसके सद्भाव में, चेतन में, अचेतन में यह आत्मा समानता से आप्लावित हो जाती है और सहज कारुणिक भाव से वह प्रत्येक को अनन्यमना हो लखता है, तब वह अलख शाश्वत तत्त्व जो विश्व की चूलिका पर विराजमान है, अन्तस् में श्रद्धान से वैसा ही प्रस्फुटित होता है। प्रारब्ध तो द्वैत से होता है, अद्वैत की दृष्टि से चेतन से चिपटी कर्म रज वृक्ष से पक्वफल की तरह स्वतः निर्जरित हो जाती है और अन्तरङ्ग में चैतन्य प्रकाश निराबाध निखरता जाता है। सृष्टि स्वयं में सिमटती चली आती है, अपने में होकर भी परत्व से जिसमें विद्वेष नहीं। अनन्त सम्भावनाओं से खचित आत्म द्रव्य की अविनश्वर सत्ता को अभी तक तुमने खोया नहीं, आज जागृत हो, उसे देखो, वह लहरें थीं, जो अनन्त क्षणों की अनन्त परिणतियों से दूर लगती हैं, पर वह इस आत्म-रत्नाकर से बहिर्भूत नहीं। इसी रत्नाकर से निकलकर इसी में विलीन हो गयीं हैं। इस किनारे से उस पार तक यह निरा चैतन्य का ही विस्तार  है। इस चैतन्य रत्नाकर से बाहर कुछ भी नहीं गया। वह नमक की डली-सा अन्दर बाहर एक-सा अखण्ड ज्ञायक समरस प्रत्येक प्रदेश में स्वभावतः अपनी सत्ता से आपूरित, अनन्त गुणों का राजस्व लिए, आकाशवत् निर्मल होते हुए भी ज्ञान का ज्योतिः पुंज, रहस्यमय गगन में, अपने को अद्यावधि, पर द्रव्य से अबाधित हो, निराकुल ही बनाये हुए है। इस रहस्य का आज हे आर्य! उद्घाटन हो, सामयिक सत्ता का अनुभावन हो, निखिल विश्व में चेतन और अचेतन का स्पष्टतः आभास हो, दृश्य-परिदृश्य से दूर स्वतः अनुभवन की योग्यता में अविलम्ब हो, देशना की इस अनुपम घड़ी में डूबो और निरायास प्राप्त अपने में उस परम मह (केवलज्ञान) का विज्ञान हो, काल की प्रत्येक कणिका पर कलि केलि के चिह्नों को देखो और नैपथ्य में विकल केलि को, प्रति श्वास-प्रश्वास की धारा में कैवल्य का विश्वास हो, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व के अहंकृत कुलाचलों पर अब प्रज्ञा से वज्र प्रहार करो । इच्छा, आकांक्षा, महत्त्वाकांक्षा, वाञ्छा, पराकांक्षा, उत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, प्रकर्ष, काम, असहिष्णु, दम्भ, गर्व, लुम्भन, लोकैषणा, स्वैराचार, मायाचार से रहित क्षुद्र जीव जन्तुओं से रहित निर्मल आत्म जलाशय में स्वस्वरूप को लखो-लखो-लखो...... ।

 

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प्रणत उत्तमांग पर दृष्टिपात करते ज्येष्ठ मुनि ने आर्यभार्या को प्रतिबोधित किया और कहा यह दिव्यप्रकाश, बहुमूल्य रत्न तुम्हारे लिए भी ग्राह्य है कल्याणि! इससे यह स्त्री पर्याय का विच्छेद आगामी भव में सहज है। पुंसत्व बिना विचारों की स्थिरता नहीं होती। चंचलता ही विभ्रमता की जननी है और ध्यान में बाधक है। बिना ध्यान मोक्ष नहीं इसलिए सुलभ प्राप्त कालयोग में सम्यग्दर्शन का लाभ, काल को भी परास्त करने वाला है। इस प्रकार प्रतिबोध को प्राप्त हुए आर्य और आर्या अनन्त संसार को अपने में समेटकर क्षणमात्र में केन्द्र पर स्थित हो गए। प्रणमन हुआ युगल मुनि के युगल चरण कमलों में और अगले ही पल शुभ मेघ के समान अन्तर्धान हो गए। अपने कर्तृत्व से दूर कर्त्तव्य के पूर में आच्छादित, दोनों कारुणिक मूर्तियाँ सहसा, गगन में दूर-दूर तक निस्तब्ध, निःशब्द, निर्बन्ध ............।

 

आज आर्य को लगा मैं अब संसार सागर पर तैर रहा हूँ, मैंने विश्व को अपने में समेट लिया या प्रत्येक पदार्थ को उसी के परिणमन के लिए स्वतन्त्र किया यह जानना मनः अगोचर है। कृपापात्र स्वयंबुद्ध मंत्री के जीव में मेरे कल्याण का अथक अरुक प्रयास अद्भुत है। अपनी ही स्वायत्त गुणों की शाश्वत सत्ता में रमण करने वाले चारण युगलों का मेरे प्रति करुण स्पन्दन मेरे रोम-रोम को रोमाञ्चित कर रहा है।

 

इस विलासता के उत्कृष्टधाम में विरागता का उत्कृष्ट पाठ पढ़ाने वाला वह चैतन्य अमर रहे। दया से आर्द्र एक संचेतन हृदय ने मेरी कठोर निष्ठुर आत्मा को द्रवित कर अनन्त जीवों की पीड़ा से अछूते बने मेरे आत्मीय स्वभाव में अकारण लोकोत्तर करुणा का अजस्र स्रोत प्रस्फुटित किया है। आज इस चराचर जगत् में आत्मीयता का समुद्वहन करा के आनन्द से ओत-प्रोत किया है। हे आर्ये! आज मैंने तुम्हें पूर्ण पा लिया। पूर्व भव में मेरा तुम्हें पाने का संकल्प अधूरा रह गया था। तुम्हें अपने में समेटकर भी अमूर्त काल ने मेरे स्वप्न को अमूर्त कर दिया। आज मेरा पूर्ण काम हुआ, वासना से परे निष्काम हुआ। हाँ, महाभाग! आज हम दोनों का अपूर्व मिलन हुआ। यह संयोग अब कभी वियोग मुख का भाजन नहीं बनेगा। त्रिजगत् को आहरण करने की महाक्षुधा का आज शमन हुआ। आज में अर्धांगिनी न रहकर आपके अंग-अंग में पहुँच पूर्णांगिनी हुई। अखण्ड सुख का सर्वत्र आत्म सरोवर में युगपत् आभासन! मैं कृतार्थ हुई, सर्वस्वामिनी बनी, पीतकामिनी हो।

 

इस प्रकार चिन्तन की अखण्ड धारा में सम्यक्त्व की दृढिमा से परस्पर में संप्राप्त अखण्ड प्रीति से शेष जीवन को जीवन्त हो जिया और अन्तिम क्षण में विलीन वह आर्य ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम का ऋद्धिधारी देव हुआ तथा वह आर्या भी स्त्रीलिंग से सदा के लिए मुक्ति पा स्वयंप्रभ विमान में स्वयंप्रभ नाम का उत्तम देव हो क्रीड़ालय के रमण में आसक्त हुई।

 

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