आचार्य श्री ने कहा व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों में घबराना नहीं चाहिए
आचार्य श्री ने कहा व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों में घबराना नहीं चाहिए
व्यक्ति को कभी भी विपरीत परिस्थितियों में घबराना नहीं चाहिए। प्रतिकूलता में ही हमारी अग्नि परीक्षा होती है। लक्ष्य निर्धारण करने के बाद जब तक हम अपने लक्ष्य की पूर्ति न कर लें तब तक पथिक को विश्राम नहीं करना चाहिए। जो रुक गया, ठहर गया समझो वह अपने लक्ष्य से विमुख हो गया। चलने का नाम ही जिंदगी है। यह बात नवीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने कही।
उन्हाेंने कहा कि रुकने के बाद पुनः कार्य शुभारंभ करने में वह उत्साह नहीं रहता जो निरंतर कार्य करने में मिलता है। खरगोश एवं कछुआ की कहानी से हम भलीभांति परिचित हैं। नाव को पतवार के सहारे समुद्र पार किया जा सकता है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरू का अवलंबन से ही व्यक्ति का मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है।
उन्हाेंने कहा कि प्रभु जैसी महान हस्ती अनंत शक्तिशाली ने जब तुझे जाना माना किंतु नहीं स्वीकारा, तो तू अनंतकाल से अनंत पर द्रव्यों को जानता नहीं फिर भी इन्हें स्वीकार कर रहा है यह क्या हो गया तुझे। क्या स्वयं को प्रभु से भी अधिक शक्तिशाली मान बैठा है। यदि तूने स्वयं को जाना होता, आत्म सत्ता को माना होता तो पर को स्वीकारने का यह दुष्कृत्य कभी नहीं करता। धन्य हैं वह प्रभो! जिन्होंने तेरी अतीत-अनागत की अनंत पर्यायों को जाना और जैसा जाना वैसा ही माना, क्योंकि उनमें अनंत सहजता सरलता प्रकट हो जाने से जानने जैसा ही मानना हो गया परंतु उन्होंने तुझे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वे पहले ही स्वयं अपने को स्वीकार चुके हैं। किसी एक को ही उपयोग में स्वीकारना होता है, स्व को या पर को। किसे स्वीकारना चाहते हो। आचार्यश्री ने कहा कि कौरवों ने श्रीकृष्ण और समूची सेना इन दोनों में से सेना को चुना, आखिर हार गए किंतु पाण्डवों के पास श्रीकृष्ण जैसे सारथी थे वे जीत गए। हमारा सारथ्य हम अकेले ही कर सकते हैं पर को स्वीकारते ही परेशानी शुरू हो जाती है उसका ध्यान रखना होता है, क्योंकि उसे स्वीकारा है, संबंध जोड़ा है। यद्यपि स्वभाव में पर का संबंध है ही कहां, किंतु संबंध का भ्रम तो पाल ही लिया।
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