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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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आत्मसूर्य - संस्मरण क्रमांक 47


संयम स्वर्ण महोत्सव

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  ☀☀ संस्मरण क्रमांक 47☀☀
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   ? आत्मसूर्य ? 
रात बहुत बीत गई थी । सभी लोगो के साथ मैं भी इन्तजार कर रहा था, कि आचार्य महाराज सामायिक से उठे और हमे उनकी सेवा का अवसर मिले। कितना अद्भुत है जैन मुनि का जीवन कि यदि वे आत्मस्थ हो जाते है तो स्वयं को पा लेते है और आत्म-ध्यान से बाहर आते है, तो हम उन्हे पाकर अपने आत्मस्वरूप में लीन होने का मार्ग  जान लेते है।
उस दिन दीपक के धीमे- धीमे प्रकाश में उनके श्रीचरणों में बैठकर बहुत अपनापन महसूस हुआ,ऐसा लगा कि मानो अपने को अपने अत्यंत निकट पा गया हूँ।उनके श्रीचरणों की मृदुता मन को भिगो रही थी। हम भले ही उनकी सेवा में थे, पर वे इस सबसे बेभान अपने मे खोये थे। अद्भुत लग रहा था इस तरह किसी को शरीर मे रहकर भी शरीर के पार होते देखना।

दूसरे दिन सूरज बहुत सौम्य और उजाला लगा। आज मुझे लौटना था। लौटने से पहले जैसे ही उनके श्री-चरणों को छुआ,और उनके चेहरे पर आयी मुस्कान को देखा, तो लगा मानो उन्होंने पूछा हो कि- क्या सचमुच लौट पाओगे ? मैं क्या कहता ? कुछ कहे बिना ही चुपचाप लौट आया और अनकहे ही मानो कह आया कि अब कभी, कही और, जा नही पाऊंगा उनकी आत्मीयता पाकर मेरा हृदय ऐसा भीग गया था जैसे उगते सूरज किरणों का मृदुल-स्पर्श पाकर धरती भीग जाती है।

        (कुण्डलपुर 1976)
? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
✍ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज

आत्मसूर्य ? 
रात बहुत बीत गई थी । सभी लोगो के साथ मैं भी इन्तजार कर रहा था, कि आचार्य महाराज सामायिक से उठे और हमे उनकी सेवा का अवसर मिले। कितना अद्भुत है जैन मुनि का जीवन कि यदि वे आत्मस्थ हो जाते है तो स्वयं को पा लेते है और आत्म-ध्यान से बाहर आते है, तो हम उन्हे पाकर अपने आत्मस्वरूप में लीन होने का मार्ग  जान लेते है।
उस दिन दीपक के धीमे- धीमे प्रकाश में उनके श्रीचरणों में बैठकर बहुत अपनापन महसूस हुआ,ऐसा लगा कि मानो अपने को अपने अत्यंत निकट पा गया हूँ।उनके श्रीचरणों की मृदुता मन को भिगो रही थी। हम भले ही उनकी सेवा में थे, पर वे इस सबसे बेभान अपने मे खोये थे। अद्भुत लग रहा था इस तरह किसी को शरीर मे रहकर भी शरीर के पार होते देखना।

दूसरे दिन सूरज बहुत सौम्य और उजाला लगा। आज मुझे लौटना था। लौटने से पहले जैसे ही उनके श्री-चरणों को छुआ,और उनके चेहरे पर आयी मुस्कान को देखा, तो लगा मानो उन्होंने पूछा हो कि- क्या सचमुच लौट पाओगे ? मैं क्या कहता ? कुछ कहे बिना ही चुपचाप लौट आया और अनकहे ही मानो कह आया कि अब कभी, कही और, जा नही पाऊंगा उनकी आत्मीयता पाकर मेरा हृदय ऐसा भीग गया था जैसे उगते सूरज किरणों का मृदुल-स्पर्श पाकर धरती भीग जाती है।

        (कुण्डलपुर 1976)
? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
✍ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज

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