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आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति
एक राजा ने किसी सन्त के चरणों में उपस्थित होकर उनसे अपने राजमहल में भिक्षा ग्रहण करने का निवेदन किया। सन्त ने राजा का निवेदन स्वीकार कर लिया और कहा- ठीक है, कल मैं तुम्हारे राजमहल में भिक्षा ग्रहण करूंगा। संत का आश्वासन पाकर राजा फूला न समाया, सन्त के स्वागत में उसने पलक-पाँवड़े बिछा दिए। निश्चित समय पर सन्त का आगमन हुआ। राजा ने उनसे भिक्षा ग्रहण करने का अनुरोध किया तो सन्त ने कहा- मैं अपनी भिक्षा में ज्यादा कुछ नहीं लेता, मेरे पास एक कटोरा है, मैं उस कटोरे भर भिक्षा ही लेता हूँ तुम कोई भी चीज मेरे कटोरे में डाल दो। राजा ने कहा- ठीक, जैसी आपकी आज्ञा। संत ने अपना कटोरा राजा की ओर बढ़ा दिया।
राजा ने सन्त के भोजन के लिए खीर तैयार करवाई थी। कटोरा देखने में छोटा सा ही था। राजा ने उसमें पूरी खीर उड़ेल दी फिर भी कटोरा खाली ही रहा। दो चम्मच खीर से भरने लायक कटोरे को पूरी खीर उड़ेलने के बाद भी नहीं भरा जा सका तो राजा के मन में बड़ी उथल-पुथल मचने लगी। आखिर बात क्या है? द्वार पर आए। सन्त का सत्कार न हो सका, अभ्यागत अतिथि का सम्मान न कर सका तो मुझसे बड़ा अभागा कौन होगा? इनकी एक छोटी सी रिक्वायरमेंट (आवश्यकता) भी मैं पूरी नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे लिए इससे बड़ी विडम्बना की बात और क्या होगी? राजा ने दोबारा खीर बनवाई, वह भी उस कटोरे में समा गई। तीसरी बार खीर बनवाई, वह भी उसमें समा गई। अब राजा से रहा नहीं गया। वह सन्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला- गुरुदेव! क्षमा करो। ये कटोरा कब भरेगा? संत ने कहा- ये कटोरा कभी नहीं भरेगा। संत की बात सुनकर राजा एकदम आश्चर्य में पड़ गया, आखिर ये कटोरा क्यों नहीं भरेगा? ये कटोरा किस धातु का बना है?
सन्त ने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा- राजन! किसी धातु से बना कटोरा भर सकता है पर ये कटोरा कभी नहीं भरेगा। क्यों नहीं भरेगा? दुनिया के सब कटोरे भर सकते हैं पर मानव के मन का कटोरा कभी नहीं भर सकता। वह हमेशा खाली का खाली ही रहता है, उसे जितना-जितना भरने का प्रयास किया जाता है वह उतना ही रिक्त होता जाता है।
आज का शौच धर्म हमें यही प्रेरणा देता है। "प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृित्तिः शौचम्" उत्कृष्टता को प्राप्त लोभ की निवृत्ति का नाम शौच है। शौच का शाब्दिक अर्थ होता है पवित्रता। बाहर की पवित्रता का ध्यान हर कोई रखता है लेकिन यहाँ आतरिक पवित्रता से प्रयोजन है। आांतरिक पवित्रता तभी घटित होती है जब मनुष्य लोभ से मुक्त होता है। हमारे मन में पलने वाला लोभ ही हमारे मन में अपवित्रता उत्पन्न करता है। आचार्य कार्तिकेय स्वामी ने इस अपवित्रता के प्रक्षालन का उपदेश देते हुए कहा है -
सम-संतोस-जलेण जो धोवदि तिव्वलोह-मलपुंजं |
भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्च हवे विमल||
जो समता और संतोष के जल से लोभ रूपी तीव्र मल के पुंज का प्रक्षालन करता है उसके अन्तरंग में शौच धर्म प्रकट होता है। लोभ व्याकुलता को उत्पन्न करने वाला तत्व है तो संतोष के बल पर लोभ का शमन किया जा सकता है।
आज मैं आपसे संतोष की बात करूंगा। एक बार मैं संतोष की चर्चा कर रहा था। एक युवक ने मुझसे कहा- महाराज! आप संतोष की बात तो करते हैं लेकिन आपको शायद दुनिया का पूरा अनुभव नहीं। यदि हम लोग संतोष धारण करके बैठ जाएँ तो जीना ही मुश्किल हो जाएगा क्योंकि हमारा सम्पूर्ण जीवन धन-पैसे की बदौलत ही चलता है, बिना पैसे के हमारी गृहस्थी की गाड़ी एक कदम भी नहीं चल सकती, जीवन की सारी जरूरतों की पूर्ति हम पैसे से करते हैं, बिना पैसे के हमें कोई पूछता तक नहीं, पैसों से ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, हमारी पूछ-परख होती है, हमारी पहचान बनती है और आप कहते हो संतोष करके बैठ जाओ तो फिर बिना पैसे के जीवन में क्या होगा? मैं समझता हूँ ये प्रश्न कभी आपके मन में भी आया होगा या आता होगा। मैंने उस युवक को जो जवाब दिया आज मैं उसी को अपने प्रवचन का आधार बनाकर बात आगे बढ़ाता हूँ। मैंने कहा- जीवन में पैसे की आवश्यकता है, मैं उसे नकारता नहीं पर कुछ बातों पर विचार करो। पैसा तुम्हारे जीवन में आवश्यक है लेकिन क्या पैसे से ही सब कुछ उपलब्ध हो सकता है? पैसा जीवन में कितना आवश्यक है इसका विचार करो। इस बात का विचार करो कि जीवन के लिए पैसा है या पैसे के लिए जीवन? यदि जीवन के लिए पैसा है तो तुम्हारे मन में तीव्र लोभ और लिप्सा के भाव पैदा नहीं होंगे और यदि पैसे के लिए जीवन है तो तुम्हारी लोभ, लालच, लिप्सा का कभी अंत नहीं होगा।
जरूरी नहीं सभी जरूरतें
आज की चार बाते हैं- आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति। आवश्यकता.......हर प्राणी के जीवन के लिए कुछ आवश्यक साधन चाहिए, उनकी आवश्यकता है। आवश्यकता भी दो प्रकार की है- एक अनिवार्य आवश्यकता जिसके बिना आपका जीवन नहीं चल सकता। जीवन जीने के लिए श्वास की आवश्यकता है, प्राण वायु न हो तो जीवित नहीं रह सकोगे। पानी की आवश्यकता है, पानी न मिले तो जीवन न टिकेगा। भोजन की आवश्यकता है, भोजन न मिले तो तुम्हारा जीवन नहीं टिकेगा। रहने के लिए घर की आवश्यकता है, घर न मिले तो आप ठीक से जी नहीं सकते और पहनने के लिए वस्त्र की आवश्यकता है इसके बिना आपका जीवन नहीं गुजर सकता -ये अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं।
सन्त कहते हैं धर्म तुम्हें तुम्हारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कतई मनाही नहीं करता। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। रहने के लिए घर चाहिए; एक घर बना लो, पहनने के लिए वस्त्र चाहिए; वस्त्र ले ली, खाने के लिए भोजन चाहिए; दो जून की रोटी की व्यवस्था कर लो, इसमें तुम्हें ज्यादा समय नहीं लगता, इसके लिए तुम्हें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। तुम्हें अपने रहने के मकान के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है, तुम्हें अपना पेट भरने के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है, तुम्हें अपना तन ढकने के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है? तय करो और उसकी पूर्ति कर लो। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ज्यादा प्रयत्न करने की जरूरत नहीं होती। हर कोई अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है।
एक है अनिवार्य आवश्यकता और दूसरी है विलासितापूर्ण आवश्यकता। महाराज! अब हम लोगों की लाइफ स्टाइल (जीवन शैली) थोड़ी अलग हो गई है, लग्जीरियस टाइप (सुविधावादी)। रहने के लिए घर चाहिए तो ऐसा-वैसा घर नहीं, शहर के किसी पॉश एरिया में घर होना चाहिए, देखने में आकर्षक होना चाहिए, बढ़िया फर्नीचर होना चाहिए, ये सब हो तो घर, घर है। महाराज साधारण सा मकान तो साधारण ही होता है। ये बात और है कि जब तुम्हारा अपना घर नहीं था तब तुमने सोचा था कि कैसे भी हो, अपनी पक्की छत हो जाए। अब समर्थ हो गए, घर बन गया तो अब मन में विचार आता है कि किसी पॉश एरिया में घर होना चाहिए, बढ़िया घर, अच्छा फ्लैट होना चाहिए, उसका अच्छा फर्नीचर होना चाहिए -ये लग्जीरियस (सुविधावादी) में आ गया।
भोजन की आवश्यकता है, दो वक्त की रोटी आप कभी भी खा सकते हो लेकिन नहीं, हमारा भोजन और अच्छा होना चाहिए, अच्छे से अच्छा भोजन होना चाहिए। चलो इसको भी मान लिया। कपड़े चाहिए लेकिन कपड़े भी ऐसे-वैसे नहीं होने चाहिए, ब्राण्डेड होने चाहिए, इसको भी मान लिया। ये आवश्यकता नहीं है, ये सब इच्छा से प्रेरित परिणति है। इच्छा से प्रेरित होने के कारण मनुष्य उसमें उलझ जाता है। संत कहते हैं इस पर भी यदि तुम एक जगह थम जाओ तो तुम्हारे जीवन में अशांति नहीं होगी लेकिन आप कभी थमते ही नहीं। आवश्यकताओं की पूर्ति करो पर कितनी आवश्यकता इसका विचार करो। कितनी भूख लगी है? भोजन की आवश्यकता है तो हो सकता है किसी का पेट दो रोटी में भर जाए और किसी का पेट बीस रोटी में भरे। पेट भर जाने के बाद अगर उस व्यक्ति से कुछ कहा जाए, चाहे आग्रह किया जाए, मनुहार किया जाए कि कुछ और खा लो तो वह साफ इन्कार कर देता है कि भाई! पेट भर गया, अब मैं रसगुल्ला भी स्वीकार नहीं कर सकता, मुझे इसकी जरूरत नहीं क्योंकि मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति हो गई। पेट भर जाने के बाद कोई भी व्यक्ति कुछ भी खाने को तैयार नहीं होता, भूख की एक आवश्यकता थी, पेट भर गया।
बंधुओं! ये पेट तो आप फिर भी भर लेते हो पर मन का पेट कभी नहीं भरता। कितनी आवश्यकता है ये तय करो। मनुष्य तब का निर्धारण नहीं कर लेता। तय कीजिए मेरे जीवन में क्या आवश्यक है। पैसा कमाना आवश्यक है, कमाइए, कोई निषेध नहीं, पर कितना कमाना है? कितना जरूरी है? कितने में आपकी पूर्ति हो जाएगी? पैसे की कहानी बड़ी विचित्र है। किसी को आठ रोटी की भूख हो और उसे चार रोटी खाने को मिल जाएँ तो भूख आधी हो जाती है। आठ रोटी की भूख हो और चार खा लीं तो भूख आधी हो गई, किसी को दस लाख की चाहत हो और पाँच लाख मिल जाएँ तो क्या चाहत आधी होती है? क्या हो गया? आठ रोटी की चाहत में चार मिलने से भूख आधी हो जाती है तो दस लाख की चाहत में पाँच लाख मिलने पर भी तुम्हारी भूख आधी होनी चाहिए। महाराज! पाँच लाख मिलने के बाद दस लाख की चाहत बीस लाख में परिवर्तित हो जाती है, रोज का अनुभव है। आवश्यकता कितनी है इसे ध्यान में रखो। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्साहित कम होता है, आवश्यकताओं के साथ जुड़ी हुई इच्छाओं की परिपूर्णता में रात-दिन पीड़ित रहता है। जो अपनी आवश्यकताओं को सामने रखकर चलता है वह कभी दुखी नहीं होता और जिसके मन में आकांक्षाएँ हावी हो जाती हैं वह कभी सुखी नहीं होता।
आकांक्षा नहीं लोभ का विस्तार
शौच धर्म कहता है- आवश्यकता और आकांक्षा के बीच की भेदक रेखा को समझकर चली। कितनी आवश्यकता है? कितने में तुम्हारा काम चल सकता है? कितने में अच्छे से जी सकते हो, मौजपूर्वक जी सकते हो? आदमी जब व्यापार की शुरुआत करता है तो ये सोचकर करता है कि ये मेरे कैरियर के लिए जरूरी है। पैसा कमाना शुरु करता है तो सोचता है कि जब मैं पैसा कमाऊँगा तभी अपने घर परिवार को चला पाऊँगा, ये मेरी जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों का पालन कर सकेंगा, अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकेगा। ठीक है, पैसा कमाना तो तुमने शुरु कर दिया लेकिन जिसके लिए पैसा कमाना शुरु किया था क्या वह कर पाए? पैसा कमाना आवश्यक है, मैं निषेध नहीं करता। आवश्यकता है क्योंकि मुझे परिवार को देखना है, अपने बच्चों के भविष्य को संवारना है, खुद की जिम्मेदारियों को पूरा करना है, अपने सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का भी धर्मपूर्ण अनुपालन करना है। आप पैसा कमाने के साथ इस बात का विचार करो कि जिस उद्देश्य से पैसा कमाने के लिए उत्साहित हुए थे, उस उद्देश्य की पूर्ति हो भी रही है या नहीं? रात-दिन पैसे के ही पीछे पागल हो जाना कतई समझदारी नहीं है। दुनिया में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो पहले जरूरत के लिए ही पैसा कमाते थे, अब कमाने के लिए कमाते हैं। शुरुआत में पैसा उनकी जरूरत थी, अब पैसा कमाना एक नशा हो गया। ऐसा नशा जिसका कोई अंत नहीं, जिसका कोई ओर-छोर नहीं। जहाँ से भी अवसर मिले दौड़ जाओ।
एक बड़ा उद्यमी था। वह बहुत व्यस्त रहता था। अक्सर रात के ग्यारह बजे के पहले घर आना नहीं होता था और सुबह नौ बजे के आसपास उठता और नहा-धोकर सीधे अपने ऑफिस के काम में लग जाता। सुबह उठे तो बच्चे अपने स्कूल चले जाते और रात को आता तो बच्चे सो जाते। बच्चों के लिए कभी उसके पास टाइम ही नहीं रहता, समय ही नहीं निकाल पाता। बच्चे इस बात से बड़े आहत रहते थे कि पापा अपने बिजनिस (व्यापार) में ही इतने मग्न रहते हैं कि हम लोगों के लिए उनके पास कोई समय ही नहीं है। एक दिन उस उद्यमी के बच्चे ने उससे पूछा- पापा! आप एक घण्टे में कितना कमा लेते हो? पिता ने पूछा क्यों? बच्चा बोला- बस यूँ ही पूछ रहा हूँ, आप बताइए न। उसने कहा- यूँ समझ लो कोई पाँच हजार। वह बच्चा तुरंत अपनी माँ के पास गया और बोला- माँ! क्या आप मुझे दो हजार रुपये दोगी? माँ ने पूछा क्यों? बच्चा बोला- आप दीजिए तो सही फिर बताता हूँ। माँ ने बच्चे को दो हजार रुपये दे दिए, उसकी गुल्लक में तीन हजार थे, कुल मिलाकर पाँच हजार हो गए। बच्चे ने रुपये अपने पिता के आगे रखते हुए कहा- पापा। ये लो पूरे पाँच हजार रुपये और प्लीज हमें एक घण्टे का समय देने की कृपा करो। कितना बड़ा प्रहार है? सोचो! पैसे हैं पर समय नहीं है। क्या ये लोभ की पराकाष्ठा नहीं है? आसक्ति का चरम नहीं है? विचार करने की आवश्यकता है कि हम क्या कर रहे हैं? क्या हो रहा है इस पर गम्भीरता से विचार कीजिए। सोचिए आवश्यकता की सीमा क्या और कितनी है? रात-दिन दौड़ते ही रहना अगर तुम्हारे जीवन की जरूरत बन गई है तो दौड़ते रहो।
एक युवक ने अल्प उम्र में बहुत अच्छा कारोबार बढ़ाया, पैसा कमाया, सेल्फ मेड व्यक्ति था। आज उसकी उम्र 38-40 साल के बीच है। एक दिन उसकी धर्मपत्नी ने उसके सामने मुझसे शिकायत की कि महाराज जी! इनको समझाओ, केवल पैसा कमाना ही जीवन नहीं है, जीवन में और भी बातों का ध्यान रखें। परिवार के लिए सोचें, पत्नी के लिए सोचें, बच्चों के लिए सोचें, धर्म के लिए सोचें, खुद के लिए सोचें। मैंने उसकी तरफ देखा कि भाई! क्या बात है? वह बोला- महाराज! बस थोड़े ही दिन की बात और है, मैं सोच रहा हूँ कि थोड़े दिन और कमा लें फिर आप लोगों के रास्ते पर लगूँगा। मैंने पूछा- थोड़े दिन और क्यों कमाना चाहते हो? उसने कहा- महाराज! बस इतना हो जाए कि कल हमारे बच्चों को शिकायत न हो, पर्याप्त हो जाए। मैंने कहा- पर्याप्त की कोई सीमा होती है क्या? पर्याप्त किसे बोलते हैं? है किसी के पास पर्याप्त की सीमा? कितने को तुम पर्याप्त कहोगे बताओ? कई बार लोग सोचते हैं कि इतना मेरे लिए सफिसिएण्ट (पर्याप्त) है। उतना आते ही वह इनसफिसिएण्ट (अपर्याप्त) हो जाता है। जब तक नहीं है तब तक सफिसिएण्ट (पर्याप्त) और उतना मिल गया तो और पाने की चाहत होती है, पर्याप्त कभी होता ही नहीं है। पर्याप्त कभी नहीं होगा। आज जग जाओ तो पर्याप्त है। तुम बताओ आज जो तुम्हारे पास है, क्या वह तुम्हारे जीवन-निर्वाह के लिए कम है? तुम्हें कितना चाहिए? अपने बच्चों के लिए तुमने जो जोड़कर रखा है क्या वह कम है? आज तुम सारा काम बन्द कर दो तो क्या तुम अपनी हुकोचता ह सक्ते महाज से ते आक आदिसे बहुत है।
मैंने पूछा- फिर क्या बात है? महाराज! थोड़ा समय और चाहिए। पत्नी ने शिकायत की इनका बीडी के पत्तों का काम है, जगलों में फिरते रहते हैं, महीनों घर से बाहर रहते हैं, इनको बोली इसकी जरूरत क्या है? हमें ऐसा पैसा नहीं चाहिए। हमें पैसा नहीं चाहिए, हमें अपना पति चाहिए। बच्चे कहते हैं हमें अपने पिता चाहिए और ये कहते हैं अभी कमाने दो। अब बताओ इस स्तर से पैसा कमाना जरूरत है या पागलपन? मैंने उसे समझाया- भाई! तुमने इतनी हाय-हाय क्यों लगा रखी है? तुम्हारे पिता जी ने तुम्हें जो सम्पति दी थी, तुमने उसका क्या किया? उसको घटाया या बढ़ाया? महाराज! पिता जी ने जो सम्पति दी थी, मैंने उसे कई गुना बढ़ाया। मैंने कहा- मतलब तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति तुम्हारे काम नहीं आई? बोला- हाँ महाराज! मैं उसे भोग नहीं सका। तब मैंने उससे कहा कि जब तुम्हारे पिता की सम्पति तुम्हारे काम नहीं आई तो तय मानना तुम्हारी सम्पत्ति भी तुम्हारे बेटे के काम में नहीं आने वाली, अगर बेटे में हुनर होगा तो जो तुम छोड़ोगे, उससे कई गुना बढ़ा लेगा और अगर तुम्हारा बेटा हुनरशून्य होगा तो तुम कितना भी छोड़ जाना, वह सब मटियामेट कर देगा, सत्यानाश कर देगा। किसके लिए जी रहे हो?
रुको, थमो, सोचो कितनी आवश्यकता है? आकाक्षा का कोई अन्त नहीं है। रिक्वयॉरमेण्ट (जरूरत) को पूरा किया जा सकता है, लग्जीरियस रिक्वयॉरमेण्ट (सुविधाभोगी जरूरत) भी पूरी की जा सकती है लेकिन डिजायर (इच्छा) ऐण्डलेस (अन्तहीन) है। भईया! कहीं तो ऐण्ड (अन्त) करो। रिक्वयॉरमेण्ट (जरूरत) का ऐण्ड (अन्त) है लेकिन डिजायर एण्ड (और) वाली है। इस एण्ड -एण्ड((और-और-और) के चक्कर में तुम्हारी साडी जिन्दगी बैण्ड हो गई है | सम्हालो अपने आपको | इच्छाओं का कोई अंत नहीं है |
'जहा लाहो तहा लोहो लोहो लाहेन वड्ढड़।'
जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। लोभ लाभ से बनता है। इच्छा को आकाश के समान अनन्त माना है। अनन्त आकाश को देखते हैं तो दूर क्षितिज पर ऐसा नजर आता है कि दो, चार, दस मील चलेंगे तो क्षितिज को छू लेंगे। वहाँ पर धरती आकाश मिलकर एक हो गए हैं। लेकिन दुनिया के किसी कोने में ऐसा छोर नहीं जहाँ धरती और आकाश मिलकर एक होते हों। हम दो-चार कदम चलते हैं; क्षितिज भी हमसे उतना ही दूर भागता रहता है। मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली इच्छा इस भाव से प्रकट होती है कि इसके बाद ये हो जाएगा तो काम खत्म लेकिन वह काम होते ही मन में दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। दूसरी के बाद तीसरी उत्पन्न हो जाती है। उनका अन्त कभी नहीं होता। भगवान महावीर ने कहा है-
सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि इच्छा हुआगाससमा अणन्तिया।
सोने चाँदी के कैलाश की तरह असंख्यात पर्वत हो जाएँ तो भी लुब्ध मनुष्य को संतोष नहीं हो सकता क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।
बन्धुओं! आवश्यकता-मूलक जीवन जिएँ, आकांक्षा-मूलक जीवन मत जियो। अपने मन में अतिरिक्त आकांक्षा को पनपने मत दीजिए, ये तुम्हारे जीवन की शान्ति को खण्डित करने वाली है। जिसके मन में आकांक्षाएँ होती हैं वह जिन्दगी भर दौड़ता रहता है। ये आकांक्षाएँ दौड़ाती हैं। एक आचार्य ने लिखा -
आशा नाम मनुष्याणा काचिदाश्चर्य-श्रृंखला।
यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पंगुवत्॥
सामान्यत: कोई व्यक्ति किसी के बन्धन में बंध जाए तो वहीं ठहर जाता है लेकिन ये आशा-आकांक्षा का बंधन, एक ऐसा बंधन है जिससे बंधने वाला मनुष्य सारी जिन्दगी दौड़ता रहता है और उससे जो मुक्त हो जाता है वह पंगु(लंगड़े व्यक्ति) की तरह कीलित हो जाता है। तुम्हारे मन की इच्छाएँ तुम्हें दौड़ाती हैं। इच्छा कई प्रकार की होती हैं- धन की आकांक्षा, यश की आकांक्षा, काम की आकांक्षा, सत्ता की आकांक्षा -ये सारी आकांक्षाएँ मनुष्य को बर्बाद करती हैं, इन पर अंकुश होना चाहिए। धनाकांक्षा पर अंकुश, यश-आकांक्षा पर अंकुश, सत्ता की आकांक्षा पर अंकुश और काम की आकांक्षा पर अंकुश इन चार बातों को ध्यान में रखी। मुझे कितना धन चाहिए इस पर भी नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है। यदि मनुष्य यहाँ नहीं जगता तो वह मनुष्य अन्धा ही बना रहता है, वह दौड़ता ही रहता है।
सम्राट सिकन्दर विश्वविजयी बनने का सपना लेकर भारत आया। सत्ताईस वर्ष की उम्र में उसने सारी दुनिया पर फतह पाने की शोहरत पाई लेकिन जब वह भारत से यूनान लौट रहा था तब अपने जीवन के अंतिम दिनों में गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसकी उस बीमार दशा में वैद्यों ने तरह-तरह के उपचार किए लेकिन कोई भी उपचार उस पर असर नहीं छोड़ सका तब सिकन्दर ने कहा कि मैं तुम लोगों से एक ही निवेदन करता हूँ, मेरी एक छोटी सी गुजारिश है कि किसी भी तरह मुझे मेरी माँ तक पहुँचा दो। मैं अपनी माँ से बहुत मोहब्बत करता हूँ। परिचारकों ने कहा- सम्राट! आपके शरीर की स्थिति ऐसी नहीं है कि आपको आपकी माँ तक पहुँचाया जा सके। सिकन्दर ने कहा- मुझे मेरी माँ तक नहीं ले जा सकते तो कोई बात नहीं, मेरी माँ के यहाँ आने तक मुझे बचा लो, मैं तुम्हें अपना आधा साम्राज्य दे दूँगा। परिचारकों ने कहा- सम्राट! आधा क्या आप पूरा साम्राज्य भी दे दें तो भी हम इस बात की गारंटी नहीं ले सकते कि आपकी माँ के यहाँ आने तक आपको बचाया जा सके।तब सिकन्दर ने कहा- धिक्कार है उस साम्राज्य और उस सम्पदा को सब को दाँव पर लगाने के बाद भी वह मुझे एक साँस के लिए बचाने में असमर्थ है।
अब मैं चाहूँ भी तो रुक सकता नहीं दोस्त,
कारण मंजिल ही खुद ढिंग बढ़ती आती है।
मैं जितना पाँव जमाने की कोशिश करता हूँ,
उतनी ही माटी और धसकती जाती है।
मेरे अधरों में घुला हलाहल है काला,
नयनों में नंगी मौत खड़ी मुस्काती है।
है राम नाम ही सत्य, असत्य और सब कुछ,
बस यही ध्वनि कानों से आ टकराती है।
सिकन्दर ने कहा- मेरे मरने के बाद जब तुम लोग मेरा जनाजा उठाओ तो मेरे दोनों हाथ जनाजे से बाहर निकाल देना। परिचारकों ने कहा- जनाजे से हाथ निकालना तो कायदे के खिलाफ होगा। तब सिकन्दर बोला- हाँ, सिकन्दर का जनाजा उठेगा और कायदे के विरुद्ध ही उठेगा ताकि दुनिया के लोग इस बात को जान सक कि सारे कायदों का उल्लंघन करके विश्वविजेता बनने वाला सिकन्दर भी दुनिया से खाली हाथ ही जा रहा है।
बन्धुओं! सिकन्दर को तो जीवन की आखिरी घड़ी में याद आ गया कि राम नाम सत्य है बाकी सब असत्य है। आप को कब याद आएगा? लोगों का राम नाम सत्य भी हो जाता तब भी "राम नाम सत्य है" याद नहीं आता। लोग मुदों को 'राम नाम सत्य है' सुनाते हैं, अरे जीते जी सुनो। अगर जीते जी 'राम नाम सत्य है' इस बात को समझ गए तो तुम्हारा राम नाम सत्य होने से पहले जीवन को सत्य को प्राप्त कर लोगे।
आसक्ति खुद को खा लेगी
आकांक्षाओं से अपने आपको बचाओ। आसक्ति से बचो। आवश्यकता के ऊपर जब आकांक्षा हावी होती है तो मनुष्य बहुत कुछ उपार्जित और संग्रहीत करने के पीछे लग जाता है। संग्रह करते-करते उसके प्रति आसक्ति इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि न तो वह उसका उपभोग कर पाता है और न ही उसका उपयोग कर पाता है। संग्रहीत करके रखता जाता है। ये आसक्ति बड़ी खतरनाक है। ऐसा आदमी पैसे का कीड़ा बन जाता है।
सन्त कहते हैं आवश्यकता के अनुरुप संग्रह करो। अपनी आकांक्षाओं को सीमित करने की कोशिश करो और जो तुम्हारे पास संग्रहीत है उसमें आसक्त मत हो, अनासक्त भाव रखो, उसका सदुपयोग करो, उसे अच्छे कार्य में लगाने की कोशिश करो, गलत रास्ते में अपने पैसे को कभी मत लगाओ। ये दृष्टि और भावना तुम्हारे हृदय में विकसित हो गई तो जीवन में कभी गड़बड़ नहीं होगी। कबीर ने कहा -
बेड़ा दीनो खेत को बेड़ा खेती खाय।
तीन लोक संशय पड़ा काहो करे समझाय।
हमारी संस्कृति कहती है कि तुम्हारे जीवन में धन पैसे की वैसी ही भूमिका है जैसे खेत में फसल की सुरक्षा के लिए चारों तरफ लगाई जाने वाली बाड। बाड़ लगाने से खेत की फसल सुरक्षित होती है। बाड़ केवल इस ख्याल से लगाया जाता है कि बाड़ न होने पर मवेशी चरकर उस फसल को नष्ट कर सकते हैं इसलिए बाड़ लगाओ। बाड़ बाहर होती है। बाड़ अगर खेत में प्रवेश कर जाए तो खेती कहाँ करोगे? ये धन पैसा तुम्हारे जीवन के निर्वाह के लिए साधन है, साध्य नहीं है। ये बाड़ है, उससे मूल्यवान जीवन है। जीवन के लिए पैसा है, पैसे के लिए जीवन नहीं है। आप किसके लिए जीते हो? जीवन के लिए पैसा कमाते हो या पैसे के लिए जीवन जीते हो? जीवन के लिए पैसा कमाना बुरा नहीं है, साथ जीना और पैसे के लिए जीना, दोनों में बहुत अंतर है।
हमारे पास शरीर है, हम शरीर के लिए नहीं जीते, शरीर साथ जीते हैं, शरीर का उपयोग अपनी साधना के लिए करते हैं आप पैसे वाले हो, किसके लिए जीते हो? पैसे के लिए जीते हो या पैसे के साथ जीते हो? तय करो। पैसे के लिए जीते हो तो जीवन का दुरुपयोग कर रहे हो और यदि पैसे के साथ जीते हो तो फिर भी उपयोग हो सकता है। पैसे के साथ जीने वाला मौके पर पैसे का सदुपयोग करता है और पैसे के लिए जीने वाला सारी जिन्दगी उससे चिपककर रहता है, छूटता ही नहीं, अगाढ़ आसक्ति होती है। मरणासन्न स्थिति में भी उसके हाथ से पैसा निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। ऐसे लोभी आसक्त मनुष्य कृपण-कजूस बन जाते हैं, उनके हाथ से कुछ भी निकलता नहीं।
एक कजूस सेट मरणासन्न था। बार-बार उसके मुख से ब, ब, ब निकल रहा था। उसके बेटे उसकी सेवा में लगे थे। उन्होंने सोचाब, ब क्यों बोल रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा। कहीं कुछ बक्से-अक्से की बात तो नहीं है, कहीं रखा हो तो माल-वाल मिल जाए। बेटों ने डॉक्टर से कहा- डॉक्टर साहब! कुछ ऐसा उपाय करो जिससे ये कुछ बोलें। डॉक्टर ने कहा- देखो भईया! एक इंजेक्शन तो कुछ बात बन सकती है। पचास हजार वाला इंजेक्शन देने से एक-दो वाक्य बोल सकते हैं। बेटों ने सोचा- बूढ़ा मर रहा है अगर एकाध बक्सा बता देगा तो पचास लाख की जुगाड़ हो जाएगी। ऐसा थोड़ी ताकत आई तो बोला- ब, ब बछड़ा कितनी देर से झाडू खाए जा रहा है, उसको तो बचाओ। कब्र में पाँव लटके हैं पर आसक्ति झाडू पर है। इस खतरनाक आसक्ति से बचो। मैं ऐसे कई लोगों को बढ़ाते जाते हैं। अक्सर सूदखोर न खा पाता है और न खिला पाता है।
बुंदेलखण्ड की बात है। मेरा विहार चल रहा था। जंगलों में विहार था। वहाँ हर जगह गाँव मिलते हैं। सर्दी का समय, शाम को पहुँचते-पहुँचते रात हो जाए, मेरे साथ के लड़के कुछ खा नहीं पाते। जगलों में होटल वगैरह तो मिलता नहीं। तीन दिन से बेचारे एक समय खाकर काम चला रहे थे, शाम को तो भोजन मिलता ही नहीं था। चौथे दिन एक गाँव में पहुँचा, उस गाँव के प्रमुख व्यक्ति के घर उनका निमंत्रण हुआ। लड़कों ने सोचा कोई अच्छी व्यवस्था होगी। रोज तीस-पैतीस किलोमीटर चल रहे थे, ढंग से भोजन-पानी भी नहीं हो पा रहा था। मैं आहार करके आया तब उन बच्चों को भोजन का निमन्त्रण मिला। लड़के भोजन करने गए और तुरंत ही लौटकर आ गए। मैंने पूछा- तुम लोग जल्दी क्यों लौट आए? लड़कों ने कहा- कोई बात नहीं, भोजन हो गया। उनमें से एक लड़का बड़ा मजाकिया था। वह बोला- महाराज! दूसरे कपड़े लेकर नहीं गए थे नहीं तो दाल में डुबकी लगा लेते। घुटनों तक दाल में पानी था और उबली हुई लौकी उठाकर दे दी, हमने तो सोचा था कि आज सिंघई जी के घर भोजन है तो अच्छा होगा लेकिन वह तो और गया बीता निकला। मैंने पूछा- ये आदमी ब्याज-बट्टे का तो काम नहीं करता? पता चला ब्याज-बट्टे का काम करता है तो मैंने कहा- वह न खा पाएगा, न खिला पाएगा, वह पैसे का आसक्त ही बना रहेगा। है अपार वैभव लेकिन भोग नहीं करता। आसक्ति मनुष्य को भोगने बनी। आसक्त रहोगे तो धनांध बनोगे और यदि तुम्हारे अंदर अनासक्ति होगी तो उदारता आएगी।
आज का शौच धर्म कहता है आसक्त नहीं, अनासक्त बनो। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके एक शहर के हर प्रमुख चौराहे पर एक मकान है। हर प्रमुख चौराहे पर मकान है और वह आदमी खुद दो कमरे के टूटे से मकान में रहता है। उस आदमी का काम है हर महीने की पहली तारीख को साइकिल लेकर किराया वसूलना और साइकिल भी कौन सी? हरक्यूलिस का पहला संस्करण। दूर से ही आवाज आ जाए, घंटी बजाने की भी जरूरत न पड़े। वह आदमी केवल पैसा इकट्ठा करने में लगा है, आज भी इस दुनिया में है।
ये क्या है? ये आसक्ति है। ऐसी आसक्ति को अपने जीवन में हावी मत होने दो, उपयोग करो, उपभोग करो, गलत उपयोग मत करो, सही उपयोग करो, जितना आवश्यक है उतना खर्च करो, व्यर्थ के कायों में लगाने की वजह परमार्थ के कार्य में लगाओ तभी जीवन में उन्नति होगी। मैंने आप लोगों से पहले कहा था धनाढ्य बनना बुरा नहीं है, धनान्ध बनना बुरा है। आज का शौच धर्म तुम्हें धनाढ्यता की ओर ले जाने की बात करता है, धनान्ध बनने की प्रेरणा नहीं देता।
अतृप्ति के अन्तहीन मरुस्थल
आसक्ति पर अंकुश रखना परम आवश्यक है। आसक्ति पर अंकुश नहीं रखोगे तो अतृप्त बने रहोगे। अतृप्ति मतलब प्यास, पीड़ा आतुरता, परेशानी। जो मनुष्य गाढ़ आसक्त होता है वह अतृप्त भी होता है, उसे तसल्ली नहीं मिलती। चाहे कितना भी हो जाए, तृप्त नहीं होगा, उसके मन में कुछ न कुछ कमी लगी ही रहेगी कि ये और हो जाता तो अच्छा था। अरे भईया! ये और, और, और कब तक चलेगा? कभी-कभी इस और-और के चक्कर में आदमी को मुँह की खानी पड़ती है।
एक आदमी अमेरिका गया। पैसे जुगाड़ करके अमेरिका गया था। अमेरिका में खाने की बात आई तो सोचा यहाँ अमेरिका में तो बहुत महँगाई है, क्या किया जाए? वह इण्डियन मार्केट (भारतीय बाजार) में गया। इण्डियन माकट (भारतीय बाजार) में एक रेस्टोरेंट में गया तो देखा वहाँ पर दो अलग-अलग केबिन थे। एक तरफ वेज(शाकाहारी) और एक तरफ नॉनवेज(मांसाहारी) था। वह वेज वाले केबिन में घुसा तो फिर दो कबिन मिले। उनमें से एक पर लिखा था देसी और एक पर लिखा था डालडा। उसने सोचा देसी मंहगा होगा, डालडा में घुस गया। फिर दो केबिन मिले, एक पर लिखा था ताजा, एक पर लिखा था बासी। उसने सोचा ताजा स्वभाविक रूप से मंहगा होगा, वह बासी में घुस गया। वह जब और आगे गया तो फिर दो केबिन मिले, जिनको देखकर उसकी वांछे खिल गई। एक पर लिखा था नगद और एक पर लिखा था उधार। अमेरिका में उधार मिल जाए तो इससे अच्छी बात और क्या होगी? वह उधार वाले केबिन में घुसा तो देखता है कि वह सड़क पर आ गया।
बंधुओं! इस अन्तहीन लालसा से प्रेरित होने वाला मनुष्य एक दिन सड़क पर आ जाता है। अतृप्ति से बचना चाहते हो तो अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करो। ये सब तभी होगा जब आवश्यकता-मूलक जीवन हो, आकांक्षाएँ हावी न हों, आसक्ति को मंद करो, अतृप्ति से बचो। कहते हैं सारी नदियों के जल से भी सागर कभी तृप्त नहीं होता, अनगिनत शवों से शमशान कभी तृप्त नहीं होता। इसी तरह मनुष्य के मन की इच्छापूर्ति से इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। इच्छाओं का नियंत्रण ही इच्छाओं की तृप्ति का साधन है। इच्छाओं का नियंत्रण कैसे करें? अपने अंदर संतोष के से धारण करें?
यथार्थ को अपनी आँखों के सामने रखी। जीवन का यथार्थ क्या है इस पर हमेशा दृष्टि रखो। मैं कितना भी जोड़ लुं, एक दिन सब का सब छोड़कर चला जाऊँगा -ये जीवन का यथार्थ है। दुनिया में आज तक एक भी आदमी ऐसा हुआ जो अपने साथ अपना एक भी कण ले जा सका हो? नहीं. तुम जीवन में कितना भी जोड़ो एक दिन सब छोड़कर जाना है, इसका भरोसा है? विश्वास है? अभी मुँह से कह रहे हो, अंदर से कही। जब लेकर नहीं जाना है तो जोड़ क्यों रहे हो?
भार कम : मज़ा ज्यादा
एक बात और बोलता हूँ- आप लोगों को जब यात्रा करनी होती है तो जितना अच्छा साधन होता है आप उतना लगेज(सामान) कम रखते हो। ट्रक से जाना हो तो भरपूर लगेज, कार में जाना हो तो दो-चार अटेची और प्लेन में जाना हो तो एक बैग। जितना लगेज साथ में रखते हो उतनी परेशानी होती है। अगर पूरा ट्रक लेकर जाओ तो उसे उतरवाना भी पड़ता है, उसकी बिल्टी मिलानी पड़ती है, सब देखना पडता है। यदि आप दो-चार अटेची लेकर जाते हैं तो उसको भी उठवाना पड़ता है, कुली ढूंढ़ना पड़ता है और यदि आपके पास पड़ता है, आप आनंद से आगे बढ़ जाते हैं।
बंधुओं! जीवन के इस सफर(यात्रा) में आनंद की अनुभूति तो परेशान हो जाओगे। ये जीवन की सच्चाई है जितना अपने पास भार जोडोगे जाते वक्त उतने परेशान होगे। दिमाग को निर्भार रखो,अपनी आसक्ति को मंद करो, जीवन का पथ तभी और केवल तभी प्रशस्त होगा, नहीं तो क्या भरोसा कहाँ ब्रेनस्टोक हो जाए, कोमा में चले जाओ, पैरालिसिस का अटैक हो जाए, बिस्तर पर सड़ते रहो और न जाने क्या-क्या परेशानियाँ तुम पर हावी हो जाएँ।
आसक्ति-मुक्त जीवन जियो। कर्म का कब कैसा उदय आ जाए, पता नहीं। न लेकर आए हो, न लेकर जाओगे ये यथार्थ है। जीवन में जो मेरे कर्म के अनुकूल होगा वही संयोग मुझे मिलेगा, ये जीवन का यथार्थ है। मैं अपने बाल-बच्चों की बात सोर्चे तो आज मैं अपने पुण्य का खाता हूँ, मेरे बच्चे भी अपने पुण्य का खाएँगे। मैं किसके लिए परेशान हूँ? पूत सपूत तो का धन संचय। पूत कपूत तो का घन संचय। यदि ये बात तुम्हारे मन में बैठ गई तो सन्तोष स्वभावत: प्रकट होगा।
दूसरी बात भावोन्मुखी दृष्टि रखो। भावोन्मुखी दृष्टि यानि जो तुम्हारे पास है बस तुम उसे देखो, जो नहीं है उसे मत देखो। सुखी होने का एक ही रास्ता है- जो है उसे पसंद करो और दुखी होने का एक ही रास्ता है जो नहीं है उसकी देख लो।
तुम्हारे पास जो है यदि तुम उसे देखना शुरु कर दो तो मन में असंतोष नहीं आएगा और जो नहीं है उसे देखोगे तो मन में कभी सन्तोष नहीं आएगा। अगर तुम्हारे पास लाख हैं और तुम्हारे लिए सामने वाले का दस लाख दिखता है। दस लाख पाने की आकांक्षा में वह एक लाख का सुख भोगने की जगह नौ लाख के अभाव का दुख भोगना शुरु कर देता है। अभाव को मत देखो, भाव को देखो। जो तुम्हारे पास है उसे देखो। भावोन्मुखी दृष्टि होते ही संतोष की सृष्टि होगी और अभावोन्मुखी दृष्टि में दुःख आता है, असंतोष आता है |
सन्त कहते हैं तुम सड़क पर नंगे पाव चल रहे हो और कोई दूसरा व्यक्ति जूता पहनकर गुजर रहा है तो सामने वाले के जूतों को देखकर अपने मन में मलिनता मत लाओ, उस व्यक्ति को देखी जो बिना पाँव के चल रहा है और अपने आपको भाग्यशाली मानो कि मेरे पास जूते नहीं है तो क्या, मेरे पास पाँव तो हैं, मेरे पाँव अच्छे हैं। लेकिन मनुष्य की स्थिति ये है कि उसे अपने पाँवों का मूल्य और महत्व समझ में नहीं आता वह हमेशा दूसरे के जूतों पर नजर गडाये रखता है। ध्यान रखना। जूतों पर नजर गड़ाये रखने वाले जूते ही खाएँगे। दुखों के जूते खा रहे हो, अपनी अज्ञानता के कारण खा रहे हो।
सम्हलो, यहीं थमकर चिंतन करने की आवश्यकता है, विचार करने की आवश्यकता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य आखिर है क्या? जो मेरे पास है वह सफिसिएण्ट(पर्याप्त) है। पर्याप्त की तो कोई परिभाषा है ही नहीं। अगर आपकी दृष्टि भावोन्मुखी बनेगी तो मन कभी इधर-उधर नहीं डगमगाएगा और यदि भावोन्मुखी दृष्टि नहीं होगी तो जीवन कभी सही रास्ते पर नहीं आएगा। लेकिन क्या करें? आज के लोग बस अभाव को देख-देखकर दुखी होते हैं। एक बार कोयल के बच्चे ने मोर को देखा और मचल उठा। उसने अपनी माँ से कहा- माँ मेरे ये काले-काले पंख बड़े खराब लगते हैं, मुझे मोर जैसे सुन्दर-सुन्दर पंख चाहिए। कोयल ने अपने बेटे से कहा- बेटा! अपने पंख अच्छे हैं। उसने अपनी माँ से कहानहीं माँ! मुझे तो मोर जैसे ही पंख चाहिए। बच्चा जो मचला सो मचला। बच्चे तो बच्चे होते हैं, जब एक बार मचलते हैं तो मचलते ही जाते हैं, उन्हें माँ-बाप की मजबूरी का कोई आभास ही नहीं होता। बच्चे के मचल जाने पर कोयल मोर के पास गई और मोर से बोली- मोर भाई! ये तुम्हारे पंख बहुत सुंदर हैं, मेरा बच्चा तुम्हारे पंख के लिए मचल रहा है यदि तुम अपना एक पंख दे दोगे तो बड़ी कृपा होगी, मेरे बच्चे का मन रह जाएगा।
कोयल की प्रार्थना सुनकर मोर ने अपने पंख झड़ा दिए। कोयल ने उनमें से एक पंख उठाया और अपने बच्चे के पंखों में लगा दिया। मोर का पंख पाकर कोयल का बच्चा हर्ष से कुकने लगा। जैसे ही कोयल की बच्चे ने मधुर कंक लगाई तो पास बैठा मोर का बच्चा रोने लगा, उसने अपनी माँ से कहा- माँ! मेरी आवाज बड़ी भौड़ी है, मुझे कोयल जैसी मधुर आवाज चाहिए।
बंधुओं! क्या कहें? कोयल का बच्चा मोर के पंख के पीछे परेशान है और मोर का बच्चा कोयल की आवाज के पीछे परेशान है। जब तक इधर-उधर देखते रहोगे, तुम्हारे जीवन की यही दशा होगी। रवीन्द्रनाथ टेगौर की ये पंक्तियाँ बहुत सार्थक हैं
छोड़कर नि:श्वास कहता है नदी का यह किनारा
उस पार ही क्यों बह रहा है जगत भर का हर्ष सारा।
किन्तु लम्बी श्वास लेकर वह किनारा कह रहा है
हाय ये हर एक सुख उस पार ही क्यों बह रहा है।
इस पार वाले को उस पार अच्छा लगता है और उस पार वाले को इस पार अच्छा लगता है इसलिए दोनों मझधार में हैं। जो तुम्हारे पास है उसे देखने की कोशिश करो, तुम्हारे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा।
नम्बर तीन संयमी प्रवृत्ति अपनाओ, जीवन में संयम रखो, संयमः से ही संतोष आता है। जीवन में संयम आना चाहिए, संयम संतोष का जन्मदाता है। संयम को अपनाओगे; अपने आप सब कुछ ठीक हो जाएगा। चौथी बात आप अपने जीवन को स्वाभाविक तरीके से जीना शुरु करें, कृत्रितमता को न अपनाएँ। स्वाभाविकता और कृत्रिमता में क्या अन्तर है? जब व्यक्ति स्वाभाविक जीवन जीता है तो उसकी दृष्टि अपनी आवश्यकता पर होती है और जब उसके जीवन में कृत्रिमता आती है तो दूसरों को देखकर चलना शुरु कर देता है, उसके हिसाब से अपना जीवन जीना शुरु कर देता है। कपड़ा चाहिए, ये आपकी एक आवश्यकता है। स्वाभाविक जीवन जीने वाला कोई भी कपड़ा पहन लेगा लेकिन जब कृत्रिमता उस पर हावी का कपड़ा चाहिए। मेरी आवश्यकता है ये स्वाभाविक है लेकिन जब उसमें कृत्रिमता आती है तो अमुक चीज चाहिए। ये कन्ज्यूमरिज्म (उपभोक्तावाद) का युग है, इसमें मनुष्य के जीवन की स्वाभाविकता नष्ट हो रही है, कृत्रिमता हावी हो रही है। इसी कृत्रिमता के हावी होने के कारण मनुष्य का आंतरिक जीवन तहस-नहस हो रहा है। स्वाभाविकता को अपनाइए।
आसक्ति, आतुरता, अतृप्ति और अधीरता
पर्वत के शिखर से नदी बहती है। अपने दोनों तटों के मध्य नियंत्रित वेग और निर्धारित दिशा की ओर जब वह प्रवाहित होती है तब विशाल सागर का रूप धारण कर लेती है। नदी जब अपने कूल-किनारों के मध्य नियंत्रित वेग और निर्धारित दिशा की ओर प्रवाहित होती है तो सागर में समाहित होती है और जब अपने कूल-किनारों का उल्लंघन कर देती है, उन्हें छोड़ देती है तो मरुस्थल में भटककर खो जाती है। नदी; सागर में सिमटकर भी मिटती है और मरुस्थल में भटककर भी मिटती है। नदी का सागर में सिमट जाना अपने क्षुद्र अस्तित्व को विराट रूप प्रदान करना है और मरुस्थल में भटक जाना अपने अस्तित्व को विनष्ट कर डालना है। नदी सागर में तभी जा पाएगी जब उसकी दिशा सही और नियंत्रित हो |बस इसी और नियंत्रित के निर्धारण का नाम संयम है |
सन्त कहते हैं अपने जीवन की धारा को तुम शांति के सागर तक पहुँचाना चाहते हो तो उसे सही दिशा और नियंत्रित वेग में प्रवाहित करो। यदि तुम्हारे जीवन में सही दिशा और नियंत्रण होगा तो तुम शाति के सागर तक पहुँच पाओगे अन्यथा विषयों के मरुस्थल में भटककर नष्ट-भ्रष्ट हो जाओगे। ऊर्जा तुम्हारे पास है; उसका उपयोग कैसे करना है इस विषय में आज के लिए चार बाते हैं- दिशा, दशा, दृष्टि और सृष्टि।
सबसे महत्वपूर्ण बात है दिशा की। दिशा मतलब डायरेक्शन। संयम कहता है अपनी विषयगामी इन्द्रियों और मन को सही दिशा देना। अभी तुम्हारी चेतना किस दिशा में जा रही है? जिनकी चेतना इन्द्रियों और विषयों की तरफ भागती है, समझ लेना उनके जीवन की दिशा गलत है। ये रॉग (गलत) डायरेक्शन है। राँग (गलत) डायरेक्शन में चलने वाले व्यक्ति की जिंदगी की दशा बहुत खराब होती है।
आज तुम्हारी दिशा क्या है? किधर बढ़ रहे हो? पाँच इन्द्रियाँ और मन; ये हमारी चेतना को भटकाने वाले तत्व हैं। सही दिशा में चलने वाला व्यक्ति धीमी गति से चलकर भी अपने गन्तव्य तक पहुँच जाता है और गलत दिशा में तेज गति से दौड़ने वाला भी भटकता रहता है। अपने मन को टटोलकर देखो, क्या स्थिति है? सही दिशा में चलने वाले हो या दिशाहीन बनकर दौड़ने वालों में शामिल हो? कहाँ हो? यदि सही दिशा में चलने वाले होगे तो नियमत: अपने लक्ष्य के नजदीक पहुँचोगे और दिशाहीन होकर दौड़ोगे तो भटकते ही रह जाओगे।
आज तक का इतिहास तो यही बताता है कि मनुष्य दौड़ रहा है, बड़ी तेज गति से दौड़ रहा है। केवल दौड़ना-दौड़ना-दौड़ना ही उसके जीवन में जुड़ा हुआ है। उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं; नहीं। मुम्बई जाना हो और कलकत्ता की गाड़ी में बैठोगे तो कहाँ पहुँचोगे? कलकत्ते की गाड़ी में बैठने वाला व्यक्ति कभी मुम्बई नहीं पहुँच सकता। मुम्बई पहुँचने के लिए मुम्बई की गाड़ी में ही बैठना हांग।
तुम चाहते हो सुख, शांति, संतुष्टि और प्रसन्नता। तुम्हारी जो दिशा है क्या वह सुख की ओर जाती है? क्या वह शांति, संतुष्टि और प्रसन्नता की ओर जाती है? अनुभव करो, जाँचों, परखो और देखो। केसे माने कि मेरी दिशा सही है? कैसे जानें कि मैं गलत दिशा में तो नहीं चल रहा हूँ? क्या इष्ट है तुम्हारा? तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है?
सुख, शांति, संतुष्टि और प्रसन्नता चाहते हो पर तुमने कभी इस बात का आकलन करने की कोशिश की कि जिस रास्ते पर मैं चल रहा हूँ उस रास्ते पर चलकर आज तक किचित भी सुख, शांति और संतुष्टि पाई या रंच मात्र भी प्रसन्नता हमें मिली। जो प्राप्त हुआ उसकी समीक्षा करके देखो। यदि ये चीजें प्राप्त कर लीं तो समझ लेना आप राइट डायरेक्शन में हो, सही दिशा में हो और यदि नहीं पा सके तो आपको अपनी दिशा बदलने की जरूरत है।
क्या हमने भोगों को भोगा?
अपने मन को पलटकर देखो, आपके मन में सुख-शांति कब आती है? जब मनोवांछित पदाथों को पाते हो तब या अपने मन को नियंत्रण में रखते हो तब? मन के नियंत्रण में सुख-शांति मिलती है अथवा मनोवांछित की प्राप्ति में? मनोवांछित मिलने पर तो सुख-शांति मिल जाती है लेकिन जब मनोवांछित नही मिलता है तब क्या होता है? तकलीफ होती है। ईमानदारी से बोली मनोवांछित पाने के बाद तुम्हें कितनी देर के लिए शांति मिलती है और मन को नियंत्रण करने पर क्या होता है? तकलीफ होती है। मन को नियंत्रित कर लिया, मन को रोक लिया, मन को समझा लिया, मन मार लिया तब क्या होता है?
एक व्यक्ति है जिसके मन मे मिठाई खाने की इच्छा है और मिठाई खाने के लिए लालायित है। चार प्रकार की मिठाईयाँ उसकी थाली में हैं लेकिन उनमें उसकी मनपसंद मिठाई नहीं है। चार प्रकार की मिठाईयाँ होने पर भी अधिक की चाह है। एक दूसरा व्यक्ति है जिसने मीठे का त्याग किया हुआ है उससे कहा जा रहा है मिठाई खाओ। वह कहेगा नहीं आज मेरा मीठे का त्याग है; मैं नहीं खाऊँगा। अब बताओ कौन ज्यादा सुखी है? जिसका त्याग है वह सुखी है और जो भोग रहा है वह सुखी नहीं है।
सूत्र लीजिए सुखी होने की दिशा है नियंत्रण। मन पर नियंत्रण, इन्द्रियों पर नियंत्रण और इच्छाओं पर नियंत्रण। जितना नियंत्रण होगा तुम उतने सुखी रहोगे और जितना उनका भोग करोगे उतना दुखी रहोगे। तय करो किस दिशा में जा रहे हो? नियंत्रण की दिशा में या भोगों की प्राप्ति की दिशा में। मन को शांति कहाँ मिलती है?
नहीं, भोगों ने हमको भोगा है
संत कहते है मन की शांति भोग में नहीं नियंत्रण में है क्योंकि मन कभी भी शांत नहीं होता। जैसे ईधन से अग्नि को बुझाया नहीं जा सकता वैसे ही विषयों से मन को कभी तृप्त नहीं किया जा सकता। इच्छाओं की पूर्ति तृप्ति का साधन नहीं बनती। इच्छाओं के नियंत्रण से ही इच्छाएँ तृप्त होती हैं।
अनुभव करने की कोशिश करो। बताओ भूखा कौन है? किसी व्यक्ति की थाली में दो लड्डू हैं; अपने लड्डू खाकर पड़ोसी की थाली के दो लड्डुओं पर जिसकी नजर है वह अथवा जिसे भूख जिसे खाने की इच्छा नहीं है वह सुखी है। ध्यान रखना! भोगों की ओर जितना अधिक भागोगे उतनी अधिक व्याकुलता होगी और भोगों से जितना विरक्त होगे उतनी ही निराकुलता होगी।
अभी तुम्हारी एक ही सोच है इन्द्रिय विषयों का जितना भोग करूंगा मैं उतना सुखी होऊँगा। इसलिए भोग करने के लिए साधन चाहते हो और साधन मिलने के बाद उनसे सुख पाना चाहते हो। सुख; साधन और सामग्री से नहीं मिला करता; सुख अंतर की एक परिणति है। मेरे कहने मात्र से मत स्वीकारो। अपने अनुभव को टटोलकर देखो। आज तक पाँच इन्द्रिय के विषयों का भोग करने के बाद तुम्हारा अनुभव क्या है? विषयों को भोगने के बाद क्या आज तक किसी भी इन्द्रिय विषयक स्थायी तृप्ति की अनुभूति हुई? नहीं हुई तो फिर अपना डायरेक्शन चैन्ज (दिशा बदलते) क्यों नहीं करते?
डायरेक्शन चेन्ज करो। अपने जीवन की दिशा बदली। महाराज! दिशा बदलने की बात मत करो। आप तो ऐसा कोई उपाय बता दो जिससे जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं उसी रास्ते से काम हो जाए।न भूतो न भविष्यति: न आज तक कभी हुआ है और न आगे कभी होगा।
एक युवक ट्रेन में सवार था। वह अपने घुटनों पर सिर रखकर जोर-जोर से रोए जा रहा था। ट्रेन में ज्यादा भीड़ नहीं थी, सामने की सीट पर एक बूढ़ी अम्मा बैठी थी और पूरा कम्पार्टमेंट खाली था, ये दो ही थे। उस वृद्धा को युवक का रोना अच्छा नहीं लगा। उसने पहले तो सोचा कि शायद परिजनों का वियोग-विछोह सहा नहीं जा रहा होगा इसलिए रो रहा है। लेकिन जब वह काफी देर तक रोता रहा तो उस अम्मा से रहा नहीं गया। उसने उस युवक को पुचकारकर पूछा- बेटे। क्यों रो रहे हो? उधर से कोई जबाब नहीं मिला तो वह विकल हो उठी। बेटे! बता तो सही तू रो क्यों रहा है? फिर भी कोई जबाब नहीं। बुढ़िया अपने स्थान से उठी, उसके बालों को सहलाते हुए प्यार से पूछा- बेटे बता तो सही तू क्यों रो रहा है? तू मुझे अपनी माँ समझ। युवक ने धीरे से आँखें खोली, ऊपर देखा और वापस घुटनों पर सिर रखकर और जोर-जोर से रोने लगा। अब तो उसके साथ-साथ बुढ़िया भी रोने लगी। उसने युवक को झकझोर कर हिलाया और बोली बेटे! तुझे मेरी कसम; बता तू क्यों रो रहा है? तू मुझे अपनी माँ समझ; मैं तेरी हर संभव मदद करूंगी। मुझसे तेरा रोना देखा नहीं जा रहा।
उस युवक ने कहा क्या बताऊँ माँ मैं गलत गाड़ी में बैठ गया हूँ। अम्मा ने कहा बेटे। गलत गाड़ी में बैठने पर रोने से क्या फायदा? अगले स्टेशन पर उतर कर गाड़ी बदल लेना, मामला ठीक हो जाएगा। उसने कहा- अम्मा! मैं भी यही सोच रहा हूँ पर क्या बताऊँ रिजर्वेशन है नहीं, यहाँ कम्पार्टमेंट खाली है, पता नहीं दूसरी गाड़ी में सीट मिलेगी या नहीं मिलेगी।
बंधुओं! ऐसे लोगों में कहीं तुम भी तो शामिल नहीं हो। सब रो रहे हैं और रोने का कारण भी पता है। गलत गाड़ी में बैठे हैं।
सन्त कहते हैं। भैया! गाड़ी बदल लो। महाराज! बदल तो लें पर ये लगेज ढेर सारा है उसका व्यामोह मनुष्य को व्याकुल करता है।ध्यान रखो जब तक आप अपने जीवन की दिशा को सुनिश्चित नहीं करोगे संयम प्रकट नहीं होगा। राँग डायरेक्शन (गलत दिशा) से राइट डायरेक्शन (सही दिशा) में आइए। अपनी दिशा को बदलिए।
आसक्ति की खुजलाहट : खुजलाहट की आसक्ति
पाँच इन्द्रियों के विषयों ने आज तक कभी किसी को तृप्त नहीं किया। जैसे कोई खाज खुजाकर अपनी खाज मिटाना चाहता है तो क्या खुजाने से आज तक किसी की खाज मिटी है? खुजाने से खाज नहीं मिटती। खुजाते वक्त थोड़ी देर की राहत जरूर महसूस होती है लेकिन बाद में उतनी ही तीव्र जलन होती है। ये अभ्यस्त विषय है इसलिए जब भी खाज उठती है तो कोई भी समझदार व्यक्ति खाज खुजाता नहीं उस पर कोई लोशन या मरहम लगा लेता है ताकि खाज खत्म हो जाए।
सन्त कहते हैं ध्यान रखो पंच इन्द्रिय-विषयों की खाज जब भी उठे उसे खुजाकर शांत नहीं किया जा सकता। उस खाज से मुक्त होना चाहते हो तो उस पर भेद-विज्ञान की मरहम लगा दो, वैराग्य का लोशन चढ़ा दो, खाज मिट जाएगी। आज तक का इतिहास है इन्द्रिय विषयों की दिशा में जो भी गया है वह भटका है। बड़े-बड़े विद्वानों ने भी इन पंच-इन्द्रियों के विषयों के चक्कर में फसकर अपना सर्वनाश किया है, सत्यानाश किया है। इसलिए अपने आप को सम्हालो और इस गलत डायरेक्शन (दिशा) से अपने आपको बचाने की कोशिश करो तब कहीं जाकर तुम अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकोगे।
इन्द्रिय चेतना हमारे चित्त को बहिर्मुखी बनाती है। बहिर्मुखी दृष्टि हमें विषयों में आसक्त बना देती है और ये आसक्ति हमें आतुर बनाती है। आसक्ति, आतुरता, अतृप्ति और अधीरता -ये ही पंच-इन्द्रिय विषयों की निष्पत्तियाँ हैं। किसी भी विषय पर एक बार व्यक्ति का मन आसक्त हो जाए फिर वह उसे प्राप्त करने के लिए एकदम आतुर हो जाता है। और प्राप्त कर ले तो उसे भोगने के लिए अंदर में अधीरता, एकदम उतावलापन आता है और फिर कभी उसे तृप्ति नहीं होती।
अच्छे-अच्छे ज्ञानियों के साथ भी ऐसा घटित हुआ। भागवत का एक प्रसंग है, वेद व्यास के संदर्भ में आता है व्यास जी को अध्ययन करते-करते एक सूत्र मिला
“बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वासमपि कर्षति"
इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान है जो ज्ञानियों को भी दुख देता है। व्यास जी को ये सूत्र ठीक नहीं लगा। उन्होंने कहा- नहीं; विद्वानों को इन्द्रिय विषय प्रभावित नहीं करते, अविद्वान ही इन्द्रिय-विषयों से प्रभावित होता है। ये चूक हो गई है इसलिए उन्होंने इसकी सन्धि करके इसमें न-खण्डाकार जोड़कर उसका उच्चारण इस तरह से किया-
‘बलवानिन्द्रियग्रामोऽविद्वांसमपि कर्षति'
इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान है ये अविद्वानों को दुखी करता है। लिख दिया। सब कुछ सामान्य चल रहा था। एक दिन वे नदी पार कर रहे थे। पैदल नदी पार करने का एक संकरा पुल था। एक छोर से ये आ रहे थे और सामने की दिशा से एक षोडशी युवती आ रही थी। उस युवती ने दूर से ही आवाज लगाते हुए कहा कि व्यास जी आप वहीं रुक जाइए, पुल सकरा है मुझे निकल जाने दो फिर आप निकल जाना। व्यास जी ने कहा- ऐसी कोई बात नहीं है, पुल में इतनी चौड़ाई है मैं एक ओर हो जाऊँगा तुम निकल जाना। युवती ने कहा- नहीं मैं चाहती हूँ कि पहले आप निकल जाओ फिर मैं निकल जाऊँगी। व्यास जी बोले- कोई बात नहीं मैं आ रहा हूँ तुम एक साइड से निकल जाना।
उस युवती ने देखा कि व्यास जी वापिस नहीं हो रहे हैं तो वह स्वयं वापिस हो गई। व्यास जी की ओर पीठ करके पीछे की ओर चलना शुरू कर दिया। युवती जैसे ही पीछे की ओर गई व्यास जी की चाल तेज हो गई। उन्होंने अपने कदम तेज कर दिए ताकि उस युवती तक पहुँचा जा सके। जैसे ही व्यास जी के कदम तेज हुए कि आकाश से ध्वनि आई -
'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति'
ये शब्द सुनकर व्यास जी चौक पड़े। देखते हैं सामने जो युवती थी कहाँ विलीन हो गई पता नहीं। लेकिन ये शब्द उनके कानों में गूंजने लगे-
'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति'
ये इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान है जो अच्छे-अच्छे विद्वानों को व्यास जैसे विद्वानों को भी प्रभावित कर देता है। कहते हैं वह युवती कोई और नहीं स्वयं सरस्वती थी जो व्यास जी के भ्रम को मिटाने के लिए प्रकट हुई थी। उन्हें बोध हो गया अपनी अज्ञानता का और सूत्र में किया गया संशोधन उन्होंने वापस ले लिया।
अच्छे-अच्छे ज्ञानियों को भी इन्द्रियासक्ति भटका देती है। इसलिए अपनी इस दिशा को बदलिए आपकी दशा बदल जाएगी। जो इन्द्रिय विषयों की दिशा में बढ़ते गए हैं वे भटके हैं और दुखी हुए हैं तथा जिन्होंने इन्द्रियों को सही दिशा दी, मन को सही दिशा दी वे सम्हले हैं और सुखी हुए हैं।
क्या चाहते ही भटकना और दुखी होना अथवा सम्हलना और सुखी होना। सम्हलना और सुखी होना चाहते हो तो आज से डायरेक्शन चैन्ज कर दो (दिशा बदल दो) और ये तय कर लो कि मैं अब इन्द्रिय-विषयों का रास्ता स्वीकार नहीं करूंगा। न तुम दिशा बदलना चाहते हो और न दशा सुधारना चाहते हो। तुम तो बस अपनी दशा पर रोना जरूर जानते हो।
दिशा बदलना नहीं चाहते, दशा सुधारना नहीं चाहते बस रात दिन अपनी दशा का रोना रोते हो। हे महाराज! आशीर्वाद दे दो बहुत दुखी हूँ। किसी के आशीर्वाद से कोई भी सुखी नहीं होता। सुखी होने के लिए तुम्हें खुद अपनी आत्मा को जगाना होगा। आत्मा को जगाओ, आध्यात्मिक दिशा में बढ़ना शुरु करो तब कहीं जाकर अपने जीवन में कुछ सार्थक उपलब्धि घटित कर सकोगे।
विषयों का चक्कर
इन्द्रिय-विषयों की स्थिति बहुत भयानक है। शास्त्रकारों ने कहा कि हाथी जैसा बलशाली प्राणी भी अपनी स्पर्शन-इन्द्रिय के व्यामोह में अपना सर्वनाश कर लेता है, मछली रसना इन्द्रिय की चाहत में अपना सत्यानाश कराती है, भौंरा प्राण इन्द्रिय की चाह में अपना विनाश करता है, पतंगा या चमरी गाय अपनी नेत्र इन्द्रिय की चाह में; रूप की चाह में अपना सर्वनाश करती है और हिरन कर्ण इन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर अपना विनाश करता है।
ये पाँचों प्राणी एक-एक इन्द्रिय के विषय के कारण अपना विनाश करते है तो जो पाँचों इन्द्रियों का दास है उसका क्या हाल होगा विचार करो। जो अपनी इन्द्रिय को सही दिशा में आगे बढ़ाते हैं, इन्द्रियों पर नियंत्रण करते हैं उनके जीवन की दशा परम सुखमय हो जाती है और जो इन्द्रिय विषयों के दास बन जाते हैं उनकी दशा दुर्दशा कहलाती है।
एक बार कुछ लोग मेरे पास बैठे थे। उनमें से एक आदमी ने बात करते-करते ऐसी बात कह दी जो सामने बैठे हुए व्यक्तियों के लिए उस समय कहना उपयुक्त नहीं थी। कहते-कहते कह दिया कि भैया तुम आदमी हो कि घनचक्कर? लोग तो चले गए पर ये घनचक्कर शब्द मेरे दिमाग में चक्कर लगाता रहा। घनचक्कर शब्द ने जब मेरे दिमाग मे चक्कर लगाया तो कुछ पंक्तियाँ बनीं
आदमी के साथ है जीभ,
जीभ के साथ है खान-पान,
नये-नये स्वाद,
मधुर-मिष्ठान्न का चक्कर।
आदमी के पास है स्पर्श,
स्पर्श के साथ है,
मृदुल-मृदुल वस्तुओं के स्पर्श का चक्कर।
आदमी के साथ हैं कान,
कान के साथ है गीत-संगीत,
मधुर लय-ताल के श्रवण का चक्कर।
आदमी के पास है अाँख,
अाँख के साथ है,
रूप-लावण्य के दर्शन का चक्कर।
आदमी के पास है शब्द;
वचन की है शक्ति,
कहीं भी कुछ भी बकता है,
बुराई करते नहीं थकता है,
वचन के साथ है
अथकन का चक्कर।
आदमी के पास है मन,
मन के साथ लगा है
राग-द्वेष भोग-विलास का चक्कर।
आदमी के पास हैं प्राण,
प्राणों के साथ लगा है। सघन चक्कर।
और इन चक्करों के बीच
चकराते-चकराते,
आदमी का नाम हो गया है
'घनचक्कर'।
ये चीजें समझना चाहिए। इस घनचक्करपने को खत्म करो। जब तक घनचक्कर बने रहोगे संसार में चक्कर खाते रहोगे इसलिए अब घनचक्कर नहीं बनना है। अपने जीवन को समझना है। जीवन को समझकर उसी अनुरूप अपने आप को आगे बढ़ाने की कोशिश करना है। यदि अपने जीवन की दशा को बदलना चाहते हो तो दिशा को बदली।
आज से तय करो कि अभी तक मैं इन्द्रिय विषयों की तरफ अपनी दृष्टि रखता था अब मैं त्याग की और दृष्टि रखेंगा। अभी तक मेरी दृष्टि भोगवादी थी अब मैं अपने भीतर आध्यात्मिक दृष्टि जगाऊँगा। जो मनुष्य अपने जीवन की दिशा बदलते हैं उनकी दशा बदल जाती है और दशा बदलने से दृष्टि बदलती है। अपनी अंतर्दृष्टि को बदले बिना मनुष्य जीवन में कुछ भी नहीं पा सकता। किसी व्यक्ति से मैं कितने भी नियम-संयम लेने की बात करूं लेकिन उस पर तब तक असर नहीं पड़ता जब तक उसकी दृष्टि नहीं बदलती।
कोई व्यक्ति गुटखा मसाला खाता है; उसे लाख समझाओ कि गुटखा मसाला नहीं खाओ लेकिन वह छोड़ने को राजी नहीं होता क्योंकि अभी उसमें उसकी उपादेय बुद्धि है, उसकी दृष्टि में अभी वह हेय नहीं बना इसलिए वह उसे मजा देता है। उसे पता नहीं इस मजा में जिंदगी की कितनी बड़ी सजा है। अभी उसका मन इस बात को स्वीकारने के लिए राजी नहीं है।
जब तक किसी वस्तु में, किसी विषय-सामग्री में उपादेय बुद्धि है, तुम्हारी दृष्टि में वह अच्छी है तब तक कोई उसे कितना भी समझाए वह उसे छोड़ नहीं सकता। जिस दिन तुम्हारी दृष्टि में ये बात आ जाएगी कि ये चीज ठीक नहीं, ये मेरे लिए हानिकारक है, उपादेय नहीं है, ये तो छोड़ने योग्य है, इसे मुझे छोड़ना है तब एक पल में छूट जाएगी। फिर आपको उपदेश देने की जरूरत नहीं पडेगी।
दिशा बदलोगे, दशा सुधारेगी
बन्धुओं! दृष्टि बदलिए, अंतर्दृष्टि जगाइए, आध्यात्मिक दृष्टि जगाइए। ऐसे अन्धे बनकर तो अनन्त जन्म गाँवा दिए। ये जन्म भी व्यर्थ न चला जाए। सम्हलो, अपने भीतर की अंतर्दृष्टि जगाओ, स्वयं का अन्तर्विश्लेषण करके देखो कि अभी तक जिस रास्ते मैं चला, जिस दिशा में मैं चला उसका नतीजा क्या निकला। अगर तुम अपनी दिशा की समीक्षा करोगे तो तुम्हारी दृष्टि बदलेगी और दृष्टि बदलेगी तो तुम्हारी सृष्टि बदल जाएगी।
आप लोक में हमेशा ऐसा प्रयोग करते हैं। कभी आपकी गाड़ी गलत ट्रेक (रास्ते) पर चली जाती है तो क्या आप उसी ट्रेक पर चलाते हैं कि रिवर्स में (वापस) लाते हो? क्यों लाते हो रिवर्स में? सही ट्रेक पर आने की क्या जरूरत है? गाड़ी में बैठे हो; गाड़ी चल भी रही है कहीं भी चले जाओ। नहीं महाराज! मंजिल को पाने के लिए सही ट्रेक पर आना जरूरी है। सही बोल रहे हो आप मंजिल तक पहुँचने के लिए सही ट्रेक पर आना जरूरी है।
ये बात मुँह से बोल रहे हो कि अंदर से? यदि तुम अपने अंतर्मन से बोल रहे हो तो भैया सही ट्रेक पर आने में देरी क्यों? इसलिए कि अभी तुमने अपनी मंजिल ही तय नहीं की है। ये जीवन की हकीकत है। मैं पूछना चाहता हूँ आप लोगों से आपके जीवन की मंजिल क्या है? पता ही नहीं। एक दिन हमने पूछा भैया! जिंदगी का क्या उद्देश्य है, क्यों जी रहे हो तो सभा में से एक व्यक्ति ने कहा महाराज जी! इसलिए जी रहे हैं क्योंकि अभी मरे नहीं हैं। ऐसा आदमी जीते जी मरे हुए के समान है।
अपने जीवन की मंजिल तय करो और मंजिल तय करने के बाद देखो कि मैं अपनी मंजिल की दिशा में जा रहा हूँ या उसके विरुद्ध जा रहा हूँ। जब तक तुम अपनी मंजिल तय नहीं करोगे तब तक तुम्हारा उद्धार नहीं होगा।
खुद पता होता नहीं जिनको अपनी मंजिल का।
मील के पत्थर उन्हें कभी रास्ता नहीं देते।
तुम्हें अपनी मंजिल का पता होना चाहिए। नहीं तो; न तुम्हारे गुरु तुम्हारा उद्धार कर पाएँगे, न धर्म उद्धार कर पाएगा और न ही शास्त्र उद्धार कर पाएँगे क्योंकि तुम्हारी मंजिल ही तय नहीं है। क्या है तुम्हारी मंजिल? क्या चाहते हो? किसको अपनी मंजिल मानते हो? अभी सोचा ही नहीं है महाराज! कब सोचोगे जब परलोक जाओगे तब। आज तय करो कि मेरी मंजिल क्या है, मेरा लक्ष्य क्या है? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मेरे जीने का मकसद क्या है? क्या चाहते हो? सुख चाहते हो कि नहीं? महाराज! सुख चाहते हैं| इसलिए तो आए हैं।
अच्छा ये बताओ अभी सुन रहे हो तो सुख मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है? ऐसा तो नहीं लग रहा कि आज तो महाराज लपेट रहे हैं। सुख क्यों मिल रहा है क्योंकि यहाँ जो बातें बताई जा रही हैं वे बातें तुम्हारे मन को अच्छी लगती हैं। तुम्हारे मन को अच्छी लगने वाली एक भी बात नहीं है। ध्यान रखना। संतो का उपदेश व्यक्ति के मन को खुश करने के लिए नहीं होता; संतो का उपदेश व्यक्ति की आत्मा को प्रसन्न करने के लिए होता है। मैं वह बात नहीं कहना चाहता हूँ जो तुम्हारे मन को अच्छी लगे। मैं सदैव वह बात कहना चाहता हूँ जिससे तुम्हारा जीवन अच्छा बने। मन को अच्छी लगने वाली बातें तो तुम आज तक संसार में सुनते रहे हो; जीवन को अच्छा बनाने वाली बात जिस दिन सुन लोगे, जीवन धन्य हो जाएगा।
जीवन को अच्छा बनाओ। जीवन अच्छा तभी बनता है जब मनुष्य अपनी दिशा ठीक करता है, विषयों की लालसा को नियंत्रित करता है, भोगों की आसक्ति को मंद करता है और अपने जीवन में संयम तथा वैराग्य का रास्ता अपनाता है, जीवन अच्छा बनाता है। जीवन को अच्छा बनाना तो चाहते हो पर त्याग-संयम अच्छा नहीं लगता, भोग विलास अच्छा लगता है। तो फिर क्या होगा? फिर विनाश ही तो होगा और अभी तक हुआ भी विनाश ही है।
मैं आपसे कह रहा था लोक जीवन में आप जब कभी भी कोई डायरेक्शन चैन्ज करते (दिशा बदलते) हो। जैसे कोई आदमी बीमार हो; बीमार होते ही डॉक्टर के पास जाते हो, डॉक्टर को दिखाते हो वह प्रिसक्रिप्शन (दवाईयाँ) लिखकर देता है। आप वह दवाई खाते हो। दो-चार दिन तक दवाई खाने के बाद आराम नहीं मिलता तो क्या करते हो? डॉक्टर के पास दोबारा जाते हो, उससे प्रिसक्रिप्शन (दवाईयाँ) चैन्ज कराते (बदलवाते) हो। डॉक्टर प्रिसक्रिप्शन (दवाईयाँ) बदलकर देता है। आप वह दवाई लेते हो; वह दवाई भी सूट (असर) नहीं करे तो डॉक्टर बदलते हो। अब किसी सुपर स्पेशलिस्ट के पास चले और अगर वहाँ भी काम नहीं बना तो फिर आप किसी बड़े हास्पिटल में जाना चाहते हो। हॉस्पिटल बदलते हो और जब अच्छे हॉस्पिटल में जाने के बाद भी लाभ नहीं मिला तो कहते हैं अब जयपुर से काम नहीं चलेगा; मुम्बई चली। आपने शहर बदल दिया और वहाँ जाने के बाद भी यदि आपको आराम न मिले तो फिर क्या करते हो। फिर सोचते हो भैया आजकल एलोपेथिक (अंग्रेजी दवाईयाँ) ठीक नहीं है चलो किसी होम्योपैथी वाले को दिखाते हैं। होम्योपैथी से भी फायदा नहीं मिले तो फिर किसी वैद्य-हकीम के पास अपनी नाड़ी पकड़वाते हो। वहाँ भी काम नहीं बने तो फिर आप नैचुरोपैथी में जाते हो।
सौ रोगों की एक दवा
मिट्टी, पानी और हवा
महाराज! हम तो चाह रहे थे आप ऐसा आशीर्वाद दोगे कि कोई बीमारी न हो। आपने तो हमें ऐसा बीमार बना दिया कि सारी पैथियाँ फैल हो गई। भगवान न करे ऐसा हो। लेकिन यदि किसी के साथ ऐसा होता है तो आखिरी क्षण तक परिवर्तन और प्रयोग करता रहता है। और जब सारी पैथियाँ फैल हो जाती हैं तो सिम्पैथी (सहानुभूति) से काम चलाते हो।
पहले आप ने दवाई बदली, फिर डॉक्टर बदला, फिर हॉस्पिटल बदला, फिर पैथी (विधि) बदली। ये सब क्यों बदला क्योंकि आरोग्य चाहिए। ये रोज का अनुभव है। जब कभी भी ऐसा होता है तो परिवर्तन करते रहते हो। अपने जीवन में तुमने अपने भीतर का इलाज कराने में पैथी (विधि या तरीका) क्यों नहीं बदली? तुम जिस पैथी (विधि या तरीके) से अपना ट्रीटमेन्ट (इलाज) करा रहे हो वह तुम्हारी बीमारी को बढ़ाने वाला है।
तुम्हारी बीमारी का ट्रीटमेन्ट (इलाज) हम लोगों के पास है। आ जाओ; रोग जड़ से चला जाएगा। संयमवटी खाओ, संतोष का रसायन पिओ, जीवन आनन्द से कटेगा लेकिन वह तुम्हें पसंद ही नहीं। ध्यान रखना। इलाज तो एक ही है; आज करो तो आज और सौ जन्म बाद करो तो सौ जन्म बाद।
आरोग्य की अनुभूति उन्हें ही मिलती है जो संयम-साधना के रास्ते पर चलते हैं। भोग और विलासिता में रचे-पचे लोग अंदर से अस्वस्थ रहते हैं। अपितु यूँ कहें अस्वस्थ व्यक्ति ही भोग और विलासिता की ओर भागते हैं, स्वस्थ व्यक्ति तो योग और साधना में ही अपने आप को लीन करते हैं।
भोगवादी दृष्टि को बदलो। अध्यात्ममूलक दृष्टि को उद्घाटित करने की कोशिश करो | लेकिन क्या करे अच्छे - अच्छे लोगों की दृष्टि नहीं सुधरती। अगर पंचइन्द्रिय के विषयों में कोई युवा आगे आए तो बात अलग है, अच्छे-अच्छे बूढ़े लोग भी ऐसी गड़बड़ कर देते हैं।
जब जागोगे तभी सबेरा
मैं एक स्थान पर था। समाज के प्रधान अस्सी वर्ष के थे उन्होंने कहा- महाराज! रात के बारह बजे दो मिस्सी-पराटें न खाऊँ तो मुझे नींद नहीं आती। अस्सी वर्ष के बुजुर्ग, समाज के प्रधान कह रहे हैं कि रात के बारह बजे दो मिस्सी-पराठे न खाऊँ तो मुझे नींद नहीं आती। वहीं उनका पोता बैठा था जो रात में पानी भी नहीं पीता था। मैंने कहा इसको देखकर कुछ तो शर्म खाओ। वह बोले- महाराज! दोष हमारा नहीं; आपका है। गल्ती हमारी नहीं आपकी है। मैंने कहा मेरी क्या गलती? बोले- इसकी उम्र में आप हमको नहीं मिले। सम्हलो, जब सम्हल सको तभी सम्हलो। जब जागो तभी सबेरा। सम्हलो; अपनी लालसा को ठीक करो। अक्सर होता ये है कि -जैसे अवस्था ढलान की ओर बढ़ती है अंदर की आसक्ति प्रबल होती जाती है। अपनी बढ़ती हुई आसक्ति को शांत करना चाहते हो तो अध्यात्म को आत्मसात करो।
अध्यात्ममूलक दृष्टि तुम्हारे भीतर विरक्ति का संस्कार जगाती है। जिस मनुष्य के अंतर्मन में विरक्ति के संस्कार जाग जाते हैं वह कभी गलत रास्ते पर नहीं चलता। दृष्टि में अध्यात्म लाओ। अध्यात्मदृष्टि कहती है कि आत्मा का सुख तुम्हारे भीतर है बाहर नहीं। बाहर के साधन तुम्हें सुविधा दे सकते हैं सुख नहीं। ध्यान रखना सुविधाएँ साधनों से जुटाई जा सकती हैं लेकिन सुख तो भीतर से अर्जित होता है जो अन्त:करण की तृप्ति से प्रकट होता है। ऐसी तप्ति इच्छाओं के नियंत्रण में होती है।
पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोको। इन्हें दुखदायी समझो। जिस मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक-दृष्टि जाग जाती है वह इस बात को समझता है कि ये एक मृगमरीचिका है। मृगमरीचिका क्या होती है? रेगिस्तान में रेत के कणों पर सूर्य की किरणें जब पड़ती हैं तो रिफ्लेक्शन (चमक) आता है और दूर से ऐसा लगता है कि कोई सरोवर लहलहा रहा है। वहाँ रहने वाला मृग (हिरण) जिसे प्यास लगती है वह सोचता है कि थोड़ी ही दूरी पर सरोवर है। मैं वहाँ पहुँचूँगा और जीभर पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लूँगा। बस दस-बीस कदम और, दस-बीस कदम और। दस-बीस कदम सोचते-सोचते हिरण जितना दौड़ता जाता है सरोवर उससे उतना ही दूर होता जाता है।
बंधुओं! इस सच्चाई को समझने की कोशिश कीजिए। तुम्हारे मन में जब कभी किसी भी चीज के विषय में बात आती है तो बस थोड़ा सा और, थोड़ा सा और, थोडा सा और। उस और-और-और का अंतिम छोर कहीं नहीं होता। बस और है छोर नहीं। आज तक का अनुभव है यदि तुम भागते रहोगे तो अपने प्राण गंवा दोगे।
संत कहते हैं जिसे तुम तृप्ति का आधार मानकर चल रहे हो वह तो अतृप्ति का केन्द्र है। उससे तृप्ति कभी नहीं मिलने वाली। न भूतो न भविष्यति। इसलिए दौड़ो मत, यहीं सम्हलो। प्यास बुझाने की अंतहीन चाह में दौड़ने की अपेक्षा प्यासे रहकर थम जाना अच्छा है। दौड़ते रहने से कुछ नहीं मिलने वाला। आज तक का अनुभव हमें यही बताता है- यहाँ जो सावधान हो जाते हैं उनके जीवन में कभी भटकाव नहीं आता और जो यहाँ नहीं सम्हल पाते उनके जीवन में कभी ठहराव नहीं आता। भटक रहे हो, भाग रहे हो, कब तक भागोगे। जिस अवस्था में ही उसी अवस्था में अपने आपको सम्हालो। अध्यात्ममूलक दृष्टि रखो।
यावत्स्वस्थोऽयं देहः यावत् मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यसि॥
जब तक तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, जब तक मृत्यु तुम्हारे नजदीक नहीं आती तब तक अपनी आत्मा का हित कर ली, जब प्राण निकल जाएँगे तो क्या करोगे? तुम सोचो कि मेरी उम्र पूरी हो जाए, उम्र पक जाए तब मैं करूंगा। पकने के बाद टपकने के सिवाय कुछ नहीं होगा। पकने के बाद तो टपकना है; टपक जाओगे। इससे पहले कि तुम पको और तुम्हें टपकना पड़े; अपने आपको सम्हाल लो, सबक सीख लो। यदि प्रारम्भ से ही अध्यात्मदृष्टि मनुष्य के अंदर जाग जाती है तो वह कभी भटकता नहीं है। बड़ी अच्छी प्रेरणा दी है इस कवित्व में
जौ लों देह तेरी कोनी रोग से न घेरी
जौ लों जरा नाही नेरी जासों पराधीन परिहैं
जौ लों जम नामा बैरी देय न दमामा
जौ लों माने कान रामा बुद्धि जाय न बिगारि है
तौ लों मित्र मेरे निज कारज सम्हार ले रे
पौरुष थकेंगे फिर पाछे काहे करिहैं
आग के लगाय जब झोपरी जरनि लागी
कुआँ के खुदाय पाछे कौन काम सरिहैं।
बड़ी मार्मिक प्रेरणा है अपनी दृष्टि को बदलने और सृष्टि को सुधारने की। हे! मित्र जब तक तुम्हारा ये शरीर किसी रोग से ग्रस्त नहीं होता, जब तक बुढ़ापा नजदीक नहीं आता जिससे तुम पराधीन हो जाओ। बुढ़ापे को क्या बोलते हैं? अर्धमृतक सम बूढ़ापनो। बुढ़ापे को अर्धमृतक यानी अधमरा क्यों कहते है पता है? बूढ़े को अर्धमृतक अधमरा इसलिए कहते हैं क्योंकि मुर्दे को चार उठाते हैं और बूढ़े को दो उठाते हैं। मुर्दे को चार उठाएँगे अभी दो उठा रहे हैं अर्धमृतक हो गए। बुढ़ापे में तुम्हारे ऊपर पराधीनता हावी होगी ये उम्र का असर है। जब तक मृत्यु रूप शत्रु का विगुल नहीं बजता, जब तक तुम्हारे मन और बुद्धि तुम्हारे हाथ में हैं, तब तक मेरे मित्र! अपनी करनी को सुधार लो, जब तुम्हारा शरीर ही सत्वहीन हो जाएगा तो फिर क्या करोगे।
कितना सुंदर उदाहरण दिया। अरे भैया! ‘आग की लगाय जब झोपरी जरनि लागी' कहीं आग लग जाए और झोपड़ी जलने लगे तो तुम उसे बुझाने के लिए उसी समय कुआँ खोदोगे तो तुम्हें कितना बड़ा विद्वान कहा जाएगा। आग लगने के समय कोई कुआँ खोदे कि झोपड़ी को बुझाना है तो समझ लेना बड़ी गड़बड़ है।
एक आदमी एक लुहार के यहाँ गया और उसकी सबसे बड़ी साईज (आकार) की बाल्टी पसंद करने के बाद बोला इसको घर भेज दो। पैमेन्ट (पैसा) भी दे दिया। चार कदम जाकर लौटा और बोला- सुनो इसको थोड़ा जल्दी भेजना क्योंकि मेरे मकान में आग लगी है। जब आग लगी उस समय तुम बाल्टी खरीद रहे हो। ध्यान रखो आग लगने की सम्भावना तो पल-पल है उससे घबराने से कोई फायदा नहीं होगा। पर आग लगे उससे पहले अग्निशामक की व्यवस्था कर ली। आप लोगों ने आग लगे इससे पहले ही फायर इन्सटिग्विन्सर (अग्निशामक) यंत्र लगा रखा है; क्यों? ताकि यदि आग लगे तो हमें कुछ सोचना न पड़े। आजकल कहीं भी कुछ भी कार्यक्रम होता है तो शॉर्टसकिट से बचने के लिए आप लोग एम. सी.वी. लगाते हैं, फायर सेन्सर लगाते हो, क्योंकि आप चौकस रहते हैं कि कहीं भी किसी प्रकार की दुर्घटना न घटे।
बंधुओं! मैं भी आपसे कहना चाहता हूँ शार्टसकिट कभी भी हो सकती है, एम.सी.वी. लगा लो। एम.सी.वी. और फायर सेन्सर दो चीजे हैं। एम.सी.वी. है तुम्हारे जीवन का संयम। संयम का संकल्प एम.सी.वी. है। संयम जब भी तुम्हारे जीवन में होगा तुम्हारी आत्मा में कभी शॉर्टसकिट नहीं होगा। थोड़ा सा किसी का पावर बढ़ा, वोल्टेज बढ़ा तो अपने आप कट हो जाएगा, आग लग ही नहीं पाएगी। सम्हल जाओगे, संयम उसे काट डालेगा।
ये फायर सेन्सर क्या है? फायर सेन्सर है तुम्हारे अंदर की साधना। थोड़ा सा भी कुछ हुआ तो तुम्हें अवेयर (सचेत) कर देगा। तुम्हारा संकल्प तुम्हें जगा देगा। जाग जाओ, सम्हल जाओ, अब आग लगने वाली है। इस सीमा का उल्लघंन तुम्हें नहीं करना है। तुम्हारे जीवन का सुरक्षा कवच बन जाएगा। एक बात और बताऊँ सामान्यत: ये शॉर्टसकिट दो कारणों से होती है या तो पावर जरूरत से ज्यादा हो जाए तो अथवा दो तार अपनी धारा को छोड़कर एक दूसरे से टकरा जाएँ तो। इसके अलावा तीसरा कोई कारण नहीं होता। पावर ओवर (ज्यादा) हो जाए तो और दो तार एक दूसरे से टकरा जाएँ तो शॉर्टसकिट होती है। आपको एक एम.सी.वी. की व्यवस्था की गई है। पावर ओवर (ज्यादा) होता है तो एम.सी.वी. फ्यूज उड़ा देती है और लाईट कट हो जाती है ठीक इसी प्रकार ये संयम भी एक तरह की एम.सी.वी. है जो तुम्हारे अंदर एक प्रकार का नियंत्रण देता है। नियंत्रण देने से ओवर (ज्यादा) पावर कन्ज्यूम करने (खपाने) की शक्ति तुम्हारे भीतर आ जाती है जिससे कहीं भी शॉर्टसर्किट नहीं होता।
दो तार कब टकराते हैं? नंगी तार टकराने से शॉर्टसकिट होता है इसलिए इन्सुलेटिड वायर रखो। एक ही पाइप में कितने भी हो जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इन्सुलेशन चढ़ा है। बस मैं आपसे इतना ही कहना चाहता हूँ यदि तुम्हारी जिंदगी की तार नंगी है तो उस पर नियम-संयम का इन्सुलेशन चढ़ा लो कभी शॉर्टसर्किट नहीं होगा। जिनके जीवन में संयम का इन्सुलेशन चढ़ा है उनके जीवन में कभी शॉर्टसकिट नहीं होता। तुम्हारी तार थोड़ी विचित्र प्रकार की है, न तो नंगी है न सुरक्षित है। तुम्हारी तार पुरानी है, जर-जर है, सैंकड़ों जगह कट लगे हुए हैं। हम कहतें हैं वायरिंग चैन्ज कर (बदल) लो; सो चैन्ज करने (बदलने) के दाम तुम्हारे पास नहीं हैं। मैं कहता हूँ चलो वायरिंग चैन्ज नहीं करते हो तो एक काम करो जहाँ-जहाँ कट शॉक से बच जाओगे इसलिए टैप लगाओ।
ये टैप क्या है? छोटे-छोटे नियमों का टैप अपनी जिदगी की तार पर चढ़ा लोगे तो शॉर्टसर्किट से बच जाओगे। बहुत सारे टैप हैं महाराज जी के पास। मेरे पास संकल्प नाम की एक डायरी है; ले लेना उसमें सब छोटे-छोटे टैप हैं; सब ले लेना।
आज की तारीख में, संयम की तिथि में एक न एक संयम जरूर लेना जो तुम्हारे जीवन के लिए कल्याणकारी है। संयम ही हमारे जीवन का सुरक्षा कवच है। कुरल काव्य में लिखा है- जो व्यक्ति अपने जीवन में संयम रखते हैं वे आगामी जन्मों के लिए अनन्त शक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं। संयम को अपने जीवन के सबसे बड़े खजाने की तरह सुरक्षित रखना चाहिए। जैसे कछुआ अपने हाथ-पैर को सिकोड़कर सुरक्षित रखता है वैसे ही अपनी इन्द्रिय-तप्तियों को भी संयमित और संकुचित बनाकर चलना चाहिए।
यदि ऐसा संयम आपके जीवन में आएगा तभी आपका जीवन धन्य हो सकेगा। इसलिए आज की चारों बातों को ध्यान में रखना है- दिशा, दशा, दृष्टि और सृष्टि। मुझे विश्वास है आप अपनी दिशा बदलोगे, आपकी दशा सुधरेगी, आध्यात्मिक दृष्टि को पकड़ोगे और अपने जीवन में सुख की सृष्टि करोगे।
सिद्धोदय है तीर्थ क्षेत्र
नेमावर वसुधा प्यारी
आहारों को निकल रहे
तीर्थंकर चर्या धारी
मंगलवार,10"सितम्बर 2019 🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊
🌈 आचार्य श्री के आज के आहार दान का सौभाग्य श्रीमान प्रभात जी , पंकज जी जैन मुम्बई एवं दयोदय महासंघ के पदाधिकारी गण को मिला पुण्योदय विद्यासंघ परिवार उनके पुण्य की अनुमोदना करता है, बधाई🌈