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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति


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आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति

एक राजा ने किसी सन्त के चरणों में उपस्थित होकर उनसे अपने राजमहल में भिक्षा ग्रहण करने का निवेदन किया। सन्त ने राजा का निवेदन स्वीकार कर लिया और कहा- ठीक है, कल मैं तुम्हारे राजमहल में भिक्षा ग्रहण करूंगा। संत का आश्वासन पाकर राजा फूला न समाया, सन्त के स्वागत में उसने पलक-पाँवड़े बिछा दिए। निश्चित समय पर सन्त का आगमन हुआ। राजा ने उनसे भिक्षा ग्रहण करने का अनुरोध किया तो सन्त ने कहा- मैं अपनी भिक्षा में ज्यादा कुछ नहीं लेता, मेरे पास एक कटोरा है, मैं उस कटोरे भर भिक्षा ही लेता हूँ तुम कोई भी चीज मेरे कटोरे में डाल दो। राजा ने कहा- ठीक, जैसी आपकी आज्ञा। संत ने अपना कटोरा राजा की ओर बढ़ा दिया।

 

राजा ने सन्त के भोजन के लिए खीर तैयार करवाई थी। कटोरा देखने में छोटा सा ही था। राजा ने उसमें पूरी खीर उड़ेल दी फिर भी कटोरा खाली ही रहा। दो चम्मच खीर से भरने लायक कटोरे को पूरी खीर उड़ेलने के बाद भी नहीं भरा जा सका तो राजा के मन में बड़ी उथल-पुथल मचने लगी। आखिर बात क्या है? द्वार पर आए। सन्त का सत्कार न हो सका, अभ्यागत अतिथि का सम्मान न कर सका तो मुझसे बड़ा अभागा कौन होगा? इनकी एक छोटी सी रिक्वायरमेंट (आवश्यकता) भी मैं पूरी नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे लिए इससे बड़ी विडम्बना की बात और क्या होगी? राजा ने दोबारा खीर बनवाई, वह भी उस कटोरे में समा गई। तीसरी बार खीर बनवाई, वह भी उसमें समा गई। अब राजा से रहा नहीं गया। वह सन्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला- गुरुदेव! क्षमा करो। ये कटोरा कब भरेगा? संत ने कहा- ये कटोरा कभी नहीं भरेगा। संत की बात सुनकर राजा एकदम आश्चर्य में पड़ गया, आखिर ये कटोरा क्यों नहीं भरेगा? ये कटोरा किस धातु का बना है?

 

सन्त ने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा- राजन! किसी धातु से बना कटोरा भर सकता है पर ये कटोरा कभी नहीं भरेगा। क्यों नहीं भरेगा? दुनिया के सब कटोरे भर सकते हैं पर मानव के मन का कटोरा कभी नहीं भर सकता। वह हमेशा खाली का खाली ही रहता है, उसे जितना-जितना भरने का प्रयास किया जाता है वह उतना ही रिक्त होता जाता है।

 

आज का शौच धर्म हमें यही प्रेरणा देता है। "प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृित्तिः शौचम्" उत्कृष्टता को प्राप्त लोभ की निवृत्ति का नाम शौच है। शौच का शाब्दिक अर्थ होता है पवित्रता। बाहर की पवित्रता का ध्यान हर कोई रखता है लेकिन यहाँ आतरिक पवित्रता से प्रयोजन है। आांतरिक पवित्रता तभी घटित होती है जब मनुष्य लोभ से मुक्त होता है। हमारे मन में पलने वाला लोभ ही हमारे मन में अपवित्रता उत्पन्न करता है। आचार्य कार्तिकेय स्वामी ने इस अपवित्रता के प्रक्षालन का उपदेश देते हुए कहा है -

 

सम-संतोस-जलेण जो धोवदि तिव्वलोह-मलपुंजं |

भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्च हवे विमल|| 

जो समता और संतोष के जल से लोभ रूपी तीव्र मल के पुंज का प्रक्षालन करता है उसके अन्तरंग में शौच धर्म प्रकट होता है। लोभ व्याकुलता को उत्पन्न करने वाला तत्व है तो संतोष के बल पर लोभ का शमन किया जा सकता है।

 

आज मैं आपसे संतोष की बात करूंगा। एक बार मैं संतोष की चर्चा कर रहा था। एक युवक ने मुझसे कहा- महाराज! आप संतोष की बात तो करते हैं लेकिन आपको शायद दुनिया का पूरा अनुभव नहीं। यदि हम लोग संतोष धारण करके बैठ जाएँ तो जीना ही मुश्किल हो जाएगा क्योंकि हमारा सम्पूर्ण जीवन धन-पैसे की बदौलत ही चलता है, बिना पैसे के हमारी गृहस्थी की गाड़ी एक कदम भी नहीं चल सकती, जीवन की सारी जरूरतों की पूर्ति हम पैसे से करते हैं, बिना पैसे के हमें कोई पूछता तक नहीं, पैसों से ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, हमारी पूछ-परख होती है, हमारी पहचान बनती है और आप कहते हो संतोष करके बैठ जाओ तो फिर बिना पैसे के जीवन में क्या होगा? मैं समझता हूँ ये प्रश्न कभी आपके मन में भी आया होगा या आता होगा। मैंने उस युवक को जो जवाब दिया आज मैं उसी को अपने प्रवचन का आधार बनाकर बात आगे बढ़ाता हूँ। मैंने कहा- जीवन में पैसे की आवश्यकता है, मैं उसे नकारता नहीं पर कुछ बातों पर विचार करो। पैसा तुम्हारे जीवन में आवश्यक है लेकिन क्या पैसे से ही सब कुछ उपलब्ध हो सकता है? पैसा जीवन में कितना आवश्यक है इसका विचार करो। इस बात का विचार करो कि जीवन के लिए पैसा है या पैसे के लिए जीवन? यदि जीवन के लिए पैसा है तो तुम्हारे मन में तीव्र लोभ और लिप्सा के भाव पैदा नहीं होंगे और यदि पैसे के लिए जीवन है तो तुम्हारी लोभ, लालच, लिप्सा का कभी अंत नहीं होगा।

 

जरूरी नहीं सभी जरूरतें

आज की चार बाते हैं- आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति। आवश्यकता.......हर प्राणी के जीवन के लिए कुछ आवश्यक साधन चाहिए, उनकी आवश्यकता है। आवश्यकता भी दो प्रकार की है- एक अनिवार्य आवश्यकता जिसके बिना आपका जीवन नहीं चल सकता। जीवन जीने के लिए श्वास की आवश्यकता है, प्राण वायु न हो तो जीवित नहीं रह सकोगे। पानी की आवश्यकता है, पानी न मिले तो जीवन न टिकेगा। भोजन की आवश्यकता है, भोजन न मिले तो तुम्हारा जीवन नहीं टिकेगा। रहने के लिए घर की आवश्यकता है, घर न मिले तो आप ठीक से जी नहीं सकते और पहनने के लिए वस्त्र की आवश्यकता है इसके बिना आपका जीवन नहीं गुजर सकता -ये अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं।

 

सन्त कहते हैं धर्म तुम्हें तुम्हारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कतई मनाही नहीं करता। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। रहने के लिए घर चाहिए; एक घर बना लो, पहनने के लिए वस्त्र चाहिए; वस्त्र ले ली, खाने के लिए भोजन चाहिए; दो जून की रोटी की व्यवस्था कर लो, इसमें तुम्हें ज्यादा समय नहीं लगता, इसके लिए तुम्हें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। तुम्हें अपने रहने के मकान के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है, तुम्हें अपना पेट भरने के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है, तुम्हें अपना तन ढकने के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है? तय करो और उसकी पूर्ति कर लो। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ज्यादा प्रयत्न करने की जरूरत नहीं होती। हर कोई अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है।

 

एक है अनिवार्य आवश्यकता और दूसरी है विलासितापूर्ण आवश्यकता। महाराज! अब हम लोगों की लाइफ स्टाइल (जीवन शैली) थोड़ी अलग हो गई है, लग्जीरियस टाइप (सुविधावादी)। रहने के लिए घर चाहिए तो ऐसा-वैसा घर नहीं, शहर के किसी पॉश एरिया में घर होना चाहिए, देखने में आकर्षक होना चाहिए, बढ़िया फर्नीचर होना चाहिए, ये सब हो तो घर, घर है। महाराज साधारण सा मकान तो साधारण ही होता है। ये बात और है कि जब तुम्हारा अपना घर नहीं था तब तुमने सोचा था कि कैसे भी हो, अपनी पक्की छत हो जाए। अब समर्थ हो गए, घर बन गया तो अब मन में विचार आता है कि किसी पॉश एरिया में घर होना चाहिए, बढ़िया घर, अच्छा फ्लैट होना चाहिए, उसका अच्छा फर्नीचर होना चाहिए -ये लग्जीरियस (सुविधावादी) में आ गया।

 

भोजन की आवश्यकता है, दो वक्त की रोटी आप कभी भी खा सकते हो लेकिन नहीं, हमारा भोजन और अच्छा होना चाहिए, अच्छे से अच्छा भोजन होना चाहिए। चलो इसको भी मान लिया। कपड़े चाहिए लेकिन कपड़े भी ऐसे-वैसे नहीं होने चाहिए, ब्राण्डेड होने चाहिए, इसको भी मान लिया। ये आवश्यकता नहीं है, ये सब इच्छा से प्रेरित परिणति है। इच्छा से प्रेरित होने के कारण मनुष्य उसमें उलझ जाता है। संत कहते हैं इस पर भी यदि तुम एक जगह थम जाओ तो तुम्हारे जीवन में अशांति नहीं होगी लेकिन आप कभी थमते ही नहीं। आवश्यकताओं की पूर्ति करो पर कितनी आवश्यकता इसका विचार करो। कितनी भूख लगी है? भोजन की आवश्यकता है तो हो सकता है किसी का पेट दो रोटी में भर जाए और किसी का पेट बीस रोटी में भरे। पेट भर जाने के बाद अगर उस व्यक्ति से कुछ कहा जाए, चाहे आग्रह किया जाए, मनुहार किया जाए कि कुछ और खा लो तो वह साफ इन्कार कर देता है कि भाई! पेट भर गया, अब मैं रसगुल्ला भी स्वीकार नहीं कर सकता, मुझे इसकी जरूरत नहीं क्योंकि मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति हो गई। पेट भर जाने के बाद कोई भी व्यक्ति कुछ भी खाने को तैयार नहीं होता, भूख की एक आवश्यकता थी, पेट भर गया।

 

बंधुओं! ये पेट तो आप फिर भी भर लेते हो पर मन का पेट कभी नहीं भरता। कितनी आवश्यकता है ये तय करो। मनुष्य तब का निर्धारण नहीं कर लेता। तय कीजिए मेरे जीवन में क्या आवश्यक है। पैसा कमाना आवश्यक है, कमाइए, कोई निषेध नहीं, पर कितना कमाना है? कितना जरूरी है? कितने में आपकी पूर्ति हो जाएगी? पैसे की कहानी बड़ी विचित्र है। किसी को आठ रोटी की भूख हो और उसे चार रोटी खाने को मिल जाएँ तो भूख आधी हो जाती है। आठ रोटी की भूख हो और चार खा लीं तो भूख आधी हो गई, किसी को दस लाख की चाहत हो और पाँच लाख मिल जाएँ तो क्या चाहत आधी होती है? क्या हो गया? आठ रोटी की चाहत में चार मिलने से भूख आधी हो जाती है तो दस लाख की चाहत में पाँच लाख मिलने पर भी तुम्हारी भूख आधी होनी चाहिए। महाराज! पाँच लाख मिलने के बाद दस लाख की चाहत बीस लाख में परिवर्तित हो जाती है, रोज का अनुभव है। आवश्यकता कितनी है इसे ध्यान में रखो। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्साहित कम होता है, आवश्यकताओं के साथ जुड़ी हुई इच्छाओं की परिपूर्णता में रात-दिन पीड़ित रहता है। जो अपनी आवश्यकताओं को सामने रखकर चलता है वह कभी दुखी नहीं होता और जिसके मन में आकांक्षाएँ हावी हो जाती हैं वह कभी सुखी नहीं होता। 

 

आकांक्षा नहीं लोभ का विस्तार

शौच धर्म कहता है- आवश्यकता और आकांक्षा के बीच की भेदक रेखा को समझकर चली। कितनी आवश्यकता है? कितने में तुम्हारा काम चल सकता है? कितने में अच्छे से जी सकते हो, मौजपूर्वक जी सकते हो? आदमी जब व्यापार की शुरुआत करता है तो ये सोचकर करता है कि ये मेरे कैरियर के लिए जरूरी है। पैसा कमाना शुरु करता है तो सोचता है कि जब मैं पैसा कमाऊँगा तभी अपने घर परिवार को चला पाऊँगा, ये मेरी जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों का पालन कर सकेंगा, अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकेगा। ठीक है, पैसा कमाना तो तुमने शुरु कर दिया लेकिन जिसके लिए पैसा कमाना शुरु किया था क्या वह कर पाए? पैसा कमाना आवश्यक है, मैं निषेध नहीं करता। आवश्यकता है क्योंकि मुझे परिवार को देखना है, अपने बच्चों के भविष्य को संवारना है, खुद की जिम्मेदारियों को पूरा करना है, अपने सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का भी धर्मपूर्ण अनुपालन करना है। आप पैसा कमाने के साथ इस बात का विचार करो कि जिस उद्देश्य से पैसा कमाने के लिए उत्साहित हुए थे, उस उद्देश्य की पूर्ति हो भी रही है या नहीं? रात-दिन पैसे के ही पीछे पागल हो जाना कतई समझदारी नहीं है। दुनिया में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो पहले जरूरत के लिए ही पैसा कमाते थे, अब कमाने के लिए कमाते हैं। शुरुआत में पैसा उनकी जरूरत थी, अब पैसा कमाना एक नशा हो गया। ऐसा नशा जिसका कोई अंत नहीं, जिसका कोई ओर-छोर नहीं। जहाँ से भी अवसर मिले दौड़ जाओ।

 

एक बड़ा उद्यमी था। वह बहुत व्यस्त रहता था। अक्सर रात के ग्यारह बजे के पहले घर आना नहीं होता था और सुबह नौ बजे के आसपास उठता और नहा-धोकर सीधे अपने ऑफिस के काम में लग जाता। सुबह उठे तो बच्चे अपने स्कूल चले जाते और रात को आता तो बच्चे सो जाते। बच्चों के लिए कभी उसके पास टाइम ही नहीं रहता, समय ही नहीं निकाल पाता। बच्चे इस बात से बड़े आहत रहते थे कि पापा अपने बिजनिस (व्यापार) में ही इतने मग्न रहते हैं कि हम लोगों के लिए उनके पास कोई समय ही नहीं है। एक दिन उस उद्यमी के बच्चे ने उससे पूछा- पापा! आप एक घण्टे में कितना कमा लेते हो? पिता ने पूछा क्यों? बच्चा बोला- बस यूँ ही पूछ रहा हूँ, आप बताइए न। उसने कहा- यूँ समझ लो कोई पाँच हजार। वह बच्चा तुरंत अपनी माँ के पास गया और बोला- माँ! क्या आप मुझे दो हजार रुपये दोगी? माँ ने पूछा क्यों? बच्चा बोला- आप दीजिए तो सही फिर बताता हूँ। माँ ने बच्चे को दो हजार रुपये दे दिए, उसकी गुल्लक में तीन हजार थे, कुल मिलाकर पाँच हजार हो गए। बच्चे ने रुपये अपने पिता के आगे रखते हुए कहा- पापा। ये लो पूरे पाँच हजार रुपये और प्लीज हमें एक घण्टे का समय देने की कृपा करो। कितना बड़ा प्रहार है? सोचो! पैसे हैं पर समय नहीं है। क्या ये लोभ की पराकाष्ठा नहीं है? आसक्ति का चरम नहीं है? विचार करने की आवश्यकता है कि हम क्या कर रहे हैं? क्या हो रहा है इस पर गम्भीरता से विचार कीजिए। सोचिए आवश्यकता की सीमा क्या और कितनी है? रात-दिन दौड़ते ही रहना अगर तुम्हारे जीवन की जरूरत बन गई है तो दौड़ते रहो।

 

एक युवक ने अल्प उम्र में बहुत अच्छा कारोबार बढ़ाया, पैसा कमाया, सेल्फ मेड व्यक्ति था। आज उसकी उम्र 38-40 साल के बीच है। एक दिन उसकी धर्मपत्नी ने उसके सामने मुझसे शिकायत की कि महाराज जी! इनको समझाओ, केवल पैसा कमाना ही जीवन नहीं है, जीवन में और भी बातों का ध्यान रखें। परिवार के लिए सोचें, पत्नी के लिए सोचें, बच्चों के लिए सोचें, धर्म के लिए सोचें, खुद के लिए सोचें। मैंने उसकी तरफ देखा कि भाई! क्या बात है? वह बोला- महाराज! बस थोड़े ही दिन की बात और है, मैं सोच रहा हूँ कि थोड़े दिन और कमा लें फिर आप लोगों के रास्ते पर लगूँगा। मैंने पूछा- थोड़े दिन और क्यों कमाना चाहते हो? उसने कहा- महाराज! बस इतना हो जाए कि कल हमारे बच्चों को शिकायत न हो, पर्याप्त हो जाए। मैंने कहा- पर्याप्त की कोई सीमा होती है क्या? पर्याप्त किसे बोलते हैं? है किसी के पास पर्याप्त की सीमा? कितने को तुम पर्याप्त कहोगे बताओ? कई बार लोग सोचते हैं कि इतना मेरे लिए सफिसिएण्ट (पर्याप्त) है। उतना आते ही वह इनसफिसिएण्ट (अपर्याप्त) हो जाता है। जब तक नहीं है तब तक सफिसिएण्ट (पर्याप्त) और उतना मिल गया तो और पाने की चाहत होती है, पर्याप्त कभी होता ही नहीं है। पर्याप्त कभी नहीं होगा। आज जग जाओ तो पर्याप्त है। तुम बताओ आज जो तुम्हारे पास है, क्या वह तुम्हारे जीवन-निर्वाह के लिए कम है? तुम्हें कितना चाहिए? अपने बच्चों के लिए तुमने जो जोड़कर रखा है क्या वह कम है? आज तुम सारा काम बन्द कर दो तो क्या तुम अपनी हुकोचता ह सक्ते महाज से ते आक आदिसे बहुत है।

 

मैंने पूछा- फिर क्या बात है? महाराज! थोड़ा समय और चाहिए। पत्नी ने शिकायत की इनका बीडी के पत्तों का काम है, जगलों में फिरते रहते हैं, महीनों घर से बाहर रहते हैं, इनको बोली इसकी जरूरत क्या है? हमें ऐसा पैसा नहीं चाहिए। हमें पैसा नहीं चाहिए, हमें अपना पति चाहिए। बच्चे कहते हैं हमें अपने पिता चाहिए और ये कहते हैं अभी कमाने दो। अब बताओ इस स्तर से पैसा कमाना जरूरत है या पागलपन? मैंने उसे समझाया- भाई! तुमने इतनी हाय-हाय क्यों लगा रखी है? तुम्हारे पिता जी ने तुम्हें जो सम्पति दी थी, तुमने उसका क्या किया? उसको घटाया या बढ़ाया? महाराज! पिता जी ने जो सम्पति दी थी, मैंने उसे कई गुना बढ़ाया। मैंने कहा- मतलब तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति तुम्हारे काम नहीं आई? बोला- हाँ महाराज! मैं उसे भोग नहीं सका। तब मैंने उससे कहा कि जब तुम्हारे पिता की सम्पति तुम्हारे काम नहीं आई तो तय मानना तुम्हारी सम्पत्ति भी तुम्हारे बेटे के काम में नहीं आने वाली, अगर बेटे में हुनर होगा तो जो तुम छोड़ोगे, उससे कई गुना बढ़ा लेगा और अगर तुम्हारा बेटा हुनरशून्य होगा तो तुम कितना भी छोड़ जाना, वह सब मटियामेट कर देगा, सत्यानाश कर देगा। किसके लिए जी रहे हो?

 

रुको, थमो, सोचो कितनी आवश्यकता है? आकाक्षा का कोई अन्त नहीं है। रिक्वयॉरमेण्ट (जरूरत) को पूरा किया जा सकता है, लग्जीरियस रिक्वयॉरमेण्ट (सुविधाभोगी जरूरत) भी पूरी की जा सकती है लेकिन डिजायर (इच्छा) ऐण्डलेस (अन्तहीन) है। भईया! कहीं तो ऐण्ड (अन्त) करो। रिक्वयॉरमेण्ट (जरूरत) का ऐण्ड (अन्त) है लेकिन डिजायर एण्ड (और) वाली है। इस एण्ड -एण्ड((और-और-और) के चक्कर में तुम्हारी साडी जिन्दगी बैण्ड हो गई है | सम्हालो अपने आपको | इच्छाओं का कोई अंत नहीं है |

 

'जहा लाहो तहा लोहो लोहो लाहेन वड्ढड़।'

जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। लोभ लाभ से बनता है। इच्छा को आकाश के समान अनन्त माना है। अनन्त आकाश को देखते हैं तो दूर क्षितिज पर ऐसा नजर आता है कि दो, चार, दस मील चलेंगे तो क्षितिज को छू लेंगे। वहाँ पर धरती आकाश मिलकर एक हो गए हैं। लेकिन दुनिया के किसी कोने में ऐसा छोर नहीं जहाँ धरती और आकाश मिलकर एक होते हों। हम दो-चार कदम चलते हैं; क्षितिज भी हमसे उतना ही दूर भागता रहता है। मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली इच्छा इस भाव से प्रकट होती है कि इसके बाद ये हो जाएगा तो काम खत्म लेकिन वह काम होते ही मन में दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। दूसरी के बाद तीसरी उत्पन्न हो जाती है। उनका अन्त कभी नहीं होता। भगवान महावीर ने कहा है-

 

सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।

नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि इच्छा हुआगाससमा अणन्तिया।

सोने चाँदी के कैलाश की तरह असंख्यात पर्वत हो जाएँ तो भी लुब्ध मनुष्य को संतोष नहीं हो सकता क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।

बन्धुओं! आवश्यकता-मूलक जीवन जिएँ, आकांक्षा-मूलक जीवन मत जियो। अपने मन में अतिरिक्त आकांक्षा को पनपने मत दीजिए, ये तुम्हारे जीवन की शान्ति को खण्डित करने वाली है। जिसके मन में आकांक्षाएँ होती हैं वह जिन्दगी भर दौड़ता रहता है। ये आकांक्षाएँ दौड़ाती हैं। एक आचार्य ने लिखा -

 

आशा नाम मनुष्याणा काचिदाश्चर्य-श्रृंखला।

यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पंगुवत्॥

सामान्यत: कोई व्यक्ति किसी के बन्धन में बंध जाए तो वहीं ठहर जाता है लेकिन ये आशा-आकांक्षा का बंधन, एक ऐसा बंधन है जिससे बंधने वाला मनुष्य सारी जिन्दगी दौड़ता रहता है और उससे जो मुक्त हो जाता है वह पंगु(लंगड़े व्यक्ति) की तरह कीलित हो जाता है। तुम्हारे मन की इच्छाएँ तुम्हें दौड़ाती हैं। इच्छा कई प्रकार की होती हैं- धन की आकांक्षा, यश की आकांक्षा, काम की आकांक्षा, सत्ता की आकांक्षा -ये सारी आकांक्षाएँ मनुष्य को बर्बाद करती हैं, इन पर अंकुश होना चाहिए। धनाकांक्षा पर अंकुश, यश-आकांक्षा पर अंकुश, सत्ता की आकांक्षा पर अंकुश और काम की आकांक्षा पर अंकुश इन चार बातों को ध्यान में रखी। मुझे कितना धन चाहिए इस पर भी नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है। यदि मनुष्य यहाँ नहीं जगता तो वह मनुष्य अन्धा ही बना रहता है, वह दौड़ता ही रहता है।

 

सम्राट सिकन्दर विश्वविजयी बनने का सपना लेकर भारत आया। सत्ताईस वर्ष की उम्र में उसने सारी दुनिया पर फतह पाने की शोहरत पाई लेकिन जब वह भारत से यूनान लौट रहा था तब अपने जीवन के अंतिम दिनों में गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसकी उस बीमार दशा में वैद्यों ने तरह-तरह के उपचार किए लेकिन कोई भी उपचार उस पर असर नहीं छोड़ सका तब सिकन्दर ने कहा कि मैं तुम लोगों से एक ही निवेदन करता हूँ, मेरी एक छोटी सी गुजारिश है कि किसी भी तरह मुझे मेरी माँ तक पहुँचा दो। मैं अपनी माँ से बहुत मोहब्बत करता हूँ। परिचारकों ने कहा- सम्राट! आपके शरीर की स्थिति ऐसी नहीं है कि आपको आपकी माँ तक पहुँचाया जा सके। सिकन्दर ने कहा- मुझे मेरी माँ तक नहीं ले जा सकते तो कोई बात नहीं, मेरी माँ के यहाँ आने तक मुझे बचा लो, मैं तुम्हें अपना आधा साम्राज्य दे दूँगा। परिचारकों ने कहा- सम्राट! आधा क्या आप पूरा साम्राज्य भी दे दें तो भी हम इस बात की गारंटी नहीं ले सकते कि आपकी माँ के यहाँ आने तक आपको बचाया जा सके।तब सिकन्दर ने कहा- धिक्कार है उस साम्राज्य और उस सम्पदा को सब को दाँव पर लगाने के बाद भी वह मुझे एक साँस के लिए बचाने में असमर्थ है।

 

अब मैं चाहूँ भी तो रुक सकता नहीं दोस्त,

कारण मंजिल ही खुद ढिंग बढ़ती आती है।

मैं जितना पाँव जमाने की कोशिश करता हूँ,

उतनी ही माटी और धसकती जाती है।

मेरे अधरों में घुला हलाहल है काला,

नयनों में नंगी मौत खड़ी मुस्काती है।

है राम नाम ही सत्य, असत्य और सब कुछ,

बस यही ध्वनि कानों से आ टकराती है।

सिकन्दर ने कहा- मेरे मरने के बाद जब तुम लोग मेरा जनाजा उठाओ तो मेरे दोनों हाथ जनाजे से बाहर निकाल देना। परिचारकों ने कहा- जनाजे से हाथ निकालना तो कायदे के खिलाफ होगा। तब सिकन्दर बोला- हाँ, सिकन्दर का जनाजा उठेगा और कायदे के विरुद्ध ही उठेगा ताकि दुनिया के लोग इस बात को जान सक कि सारे कायदों का उल्लंघन करके विश्वविजेता बनने वाला सिकन्दर भी दुनिया से खाली हाथ ही जा रहा है।

 

बन्धुओं! सिकन्दर को तो जीवन की आखिरी घड़ी में याद आ गया कि राम नाम सत्य है बाकी सब असत्य है। आप को कब याद आएगा? लोगों का राम नाम सत्य भी हो जाता तब भी "राम नाम सत्य है" याद नहीं आता। लोग मुदों को 'राम नाम सत्य है' सुनाते हैं, अरे जीते जी सुनो। अगर जीते जी 'राम नाम सत्य है' इस बात को समझ गए तो तुम्हारा राम नाम सत्य होने से पहले जीवन को सत्य को प्राप्त कर लोगे।

 

आसक्ति खुद को खा लेगी

आकांक्षाओं से अपने आपको बचाओ। आसक्ति से बचो। आवश्यकता के ऊपर जब आकांक्षा हावी होती है तो मनुष्य बहुत कुछ उपार्जित और संग्रहीत करने के पीछे लग जाता है। संग्रह करते-करते उसके प्रति आसक्ति इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि न तो वह उसका उपभोग कर पाता है और न ही उसका उपयोग कर पाता है। संग्रहीत करके रखता जाता है। ये आसक्ति बड़ी खतरनाक है। ऐसा आदमी पैसे का कीड़ा बन जाता है।

 

सन्त कहते हैं आवश्यकता के अनुरुप संग्रह करो। अपनी आकांक्षाओं को सीमित करने की कोशिश करो और जो तुम्हारे पास संग्रहीत है उसमें आसक्त मत हो, अनासक्त भाव रखो, उसका सदुपयोग करो, उसे अच्छे कार्य में लगाने की कोशिश करो, गलत रास्ते में अपने पैसे को कभी मत लगाओ। ये दृष्टि और भावना तुम्हारे हृदय में विकसित हो गई तो जीवन में कभी गड़बड़ नहीं होगी। कबीर ने कहा -

 

बेड़ा दीनो खेत को बेड़ा खेती खाय।

तीन लोक संशय पड़ा काहो करे समझाय।

हमारी संस्कृति कहती है कि तुम्हारे जीवन में धन पैसे की वैसी ही भूमिका है जैसे खेत में फसल की सुरक्षा के लिए चारों तरफ लगाई जाने वाली बाड। बाड़ लगाने से खेत की फसल सुरक्षित होती है। बाड़ केवल इस ख्याल से लगाया जाता है कि बाड़ न होने पर मवेशी चरकर उस फसल को नष्ट कर सकते हैं इसलिए बाड़ लगाओ। बाड़ बाहर होती है। बाड़ अगर खेत में प्रवेश कर जाए तो खेती कहाँ करोगे? ये धन पैसा तुम्हारे जीवन के निर्वाह के लिए साधन है, साध्य नहीं है। ये बाड़ है, उससे मूल्यवान जीवन है। जीवन के लिए पैसा है, पैसे के लिए जीवन नहीं है। आप किसके लिए जीते हो? जीवन के लिए पैसा कमाते हो या पैसे के लिए जीवन जीते हो? जीवन के लिए पैसा कमाना बुरा नहीं है, साथ जीना और पैसे के लिए जीना, दोनों में बहुत अंतर है।

हमारे पास शरीर है, हम शरीर के लिए नहीं जीते, शरीर साथ जीते हैं, शरीर का उपयोग अपनी साधना के लिए करते हैं आप पैसे वाले हो, किसके लिए जीते हो? पैसे के लिए जीते हो या पैसे के साथ जीते हो? तय करो। पैसे के लिए जीते हो तो जीवन का दुरुपयोग कर रहे हो और यदि पैसे के साथ जीते हो तो फिर भी उपयोग हो सकता है। पैसे के साथ जीने वाला मौके पर पैसे का सदुपयोग करता है और पैसे के लिए जीने वाला सारी जिन्दगी उससे चिपककर रहता है, छूटता ही नहीं, अगाढ़ आसक्ति होती है। मरणासन्न स्थिति में भी उसके हाथ से पैसा निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। ऐसे लोभी आसक्त मनुष्य कृपण-कजूस बन जाते हैं, उनके हाथ से कुछ भी निकलता नहीं।

 

एक कजूस सेट मरणासन्न था। बार-बार उसके मुख से ब, ब, ब निकल रहा था। उसके बेटे उसकी सेवा में लगे थे। उन्होंने सोचाब, ब क्यों बोल रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा। कहीं कुछ बक्से-अक्से की बात तो नहीं है, कहीं रखा हो तो माल-वाल मिल जाए। बेटों ने डॉक्टर से कहा- डॉक्टर साहब! कुछ ऐसा उपाय करो जिससे ये कुछ बोलें। डॉक्टर ने कहा- देखो भईया! एक इंजेक्शन तो कुछ बात बन सकती है। पचास हजार वाला इंजेक्शन देने से एक-दो वाक्य बोल सकते हैं। बेटों ने सोचा- बूढ़ा मर रहा है अगर एकाध बक्सा बता देगा तो पचास लाख की जुगाड़ हो जाएगी। ऐसा थोड़ी ताकत आई तो बोला- ब, ब बछड़ा कितनी देर से झाडू खाए जा रहा है, उसको तो बचाओ। कब्र में पाँव लटके हैं पर आसक्ति झाडू पर है। इस खतरनाक आसक्ति से बचो। मैं ऐसे कई लोगों को बढ़ाते जाते हैं। अक्सर सूदखोर न खा पाता है और न खिला पाता है।

 

बुंदेलखण्ड की बात है। मेरा विहार चल रहा था। जंगलों में विहार था। वहाँ हर जगह गाँव मिलते हैं। सर्दी का समय, शाम को पहुँचते-पहुँचते रात हो जाए, मेरे साथ के लड़के कुछ खा नहीं पाते। जगलों में होटल वगैरह तो मिलता नहीं। तीन दिन से बेचारे एक समय खाकर काम चला रहे थे, शाम को तो भोजन मिलता ही नहीं था। चौथे दिन एक गाँव में पहुँचा, उस गाँव के प्रमुख व्यक्ति के घर उनका निमंत्रण हुआ। लड़कों ने सोचा कोई अच्छी व्यवस्था होगी। रोज तीस-पैतीस किलोमीटर चल रहे थे, ढंग से भोजन-पानी भी नहीं हो पा रहा था। मैं आहार करके आया तब उन बच्चों को भोजन का निमन्त्रण मिला। लड़के भोजन करने गए और तुरंत ही लौटकर आ गए। मैंने पूछा- तुम लोग जल्दी क्यों लौट आए? लड़कों ने कहा- कोई बात नहीं, भोजन हो गया। उनमें से एक लड़का बड़ा मजाकिया था। वह बोला- महाराज! दूसरे कपड़े लेकर नहीं गए थे नहीं तो दाल में डुबकी लगा लेते। घुटनों तक दाल में पानी था और उबली हुई लौकी उठाकर दे दी, हमने तो सोचा था कि आज सिंघई जी के घर भोजन है तो अच्छा होगा लेकिन वह तो और गया बीता निकला। मैंने पूछा- ये आदमी ब्याज-बट्टे का तो काम नहीं करता? पता चला ब्याज-बट्टे का काम करता है तो मैंने कहा- वह न खा पाएगा, न खिला पाएगा, वह पैसे का आसक्त ही बना रहेगा। है अपार वैभव लेकिन भोग नहीं करता। आसक्ति मनुष्य को भोगने बनी। आसक्त रहोगे तो धनांध बनोगे और यदि तुम्हारे अंदर अनासक्ति होगी तो उदारता आएगी।

 

आज का शौच धर्म कहता है आसक्त नहीं, अनासक्त बनो। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके एक शहर के हर प्रमुख चौराहे पर एक मकान है। हर प्रमुख चौराहे पर मकान है और वह आदमी खुद दो कमरे के टूटे से मकान में रहता है। उस आदमी का काम है हर महीने की पहली तारीख को साइकिल लेकर किराया वसूलना और साइकिल भी कौन सी? हरक्यूलिस का पहला संस्करण। दूर से ही आवाज आ जाए, घंटी बजाने की भी जरूरत न पड़े। वह आदमी केवल पैसा इकट्ठा करने में लगा है, आज भी इस दुनिया में है।

 

ये क्या है? ये आसक्ति है। ऐसी आसक्ति को अपने जीवन में हावी मत होने दो, उपयोग करो, उपभोग करो, गलत उपयोग मत करो, सही उपयोग करो, जितना आवश्यक है उतना खर्च करो, व्यर्थ के कायों में लगाने की वजह परमार्थ के कार्य में लगाओ तभी जीवन में उन्नति होगी। मैंने आप लोगों से पहले कहा था धनाढ्य बनना बुरा नहीं है, धनान्ध बनना बुरा है। आज का शौच धर्म तुम्हें धनाढ्यता की ओर ले जाने की बात करता है, धनान्ध बनने की प्रेरणा नहीं देता।

 

अतृप्ति के अन्तहीन मरुस्थल

आसक्ति पर अंकुश रखना परम आवश्यक है। आसक्ति पर अंकुश नहीं रखोगे तो अतृप्त बने रहोगे। अतृप्ति मतलब प्यास, पीड़ा आतुरता, परेशानी। जो मनुष्य गाढ़ आसक्त होता है वह अतृप्त भी होता है, उसे तसल्ली नहीं मिलती। चाहे कितना भी हो जाए, तृप्त नहीं होगा, उसके मन में कुछ न कुछ कमी लगी ही रहेगी कि ये और हो जाता तो अच्छा था। अरे भईया! ये और, और, और कब तक चलेगा? कभी-कभी इस और-और के चक्कर में आदमी को मुँह की खानी पड़ती है।

 

एक आदमी अमेरिका गया। पैसे जुगाड़ करके अमेरिका गया था। अमेरिका में खाने की बात आई तो सोचा यहाँ अमेरिका में तो बहुत महँगाई है, क्या किया जाए? वह इण्डियन मार्केट (भारतीय बाजार) में गया। इण्डियन माकट (भारतीय बाजार) में एक रेस्टोरेंट में गया तो देखा वहाँ पर दो अलग-अलग केबिन थे। एक तरफ वेज(शाकाहारी) और एक तरफ नॉनवेज(मांसाहारी) था। वह वेज वाले केबिन में घुसा तो फिर दो कबिन मिले। उनमें से एक पर लिखा था देसी और एक पर लिखा था डालडा। उसने सोचा देसी मंहगा होगा, डालडा में घुस गया। फिर दो केबिन मिले, एक पर लिखा था ताजा, एक पर लिखा था बासी। उसने सोचा ताजा स्वभाविक रूप से मंहगा होगा, वह बासी में घुस गया। वह जब और आगे गया तो फिर दो केबिन मिले, जिनको देखकर उसकी वांछे खिल गई। एक पर लिखा था नगद और एक पर लिखा था उधार। अमेरिका में उधार मिल जाए तो इससे अच्छी बात और क्या होगी? वह उधार वाले केबिन में घुसा तो देखता है कि वह सड़क पर आ गया।

 

बंधुओं! इस अन्तहीन लालसा से प्रेरित होने वाला मनुष्य एक दिन सड़क पर आ जाता है। अतृप्ति से बचना चाहते हो तो अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करो। ये सब तभी होगा जब आवश्यकता-मूलक जीवन हो, आकांक्षाएँ हावी न हों, आसक्ति को मंद करो, अतृप्ति से बचो। कहते हैं सारी नदियों के जल से भी सागर कभी तृप्त नहीं होता, अनगिनत शवों से शमशान कभी तृप्त नहीं होता। इसी तरह मनुष्य के मन की इच्छापूर्ति से इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। इच्छाओं का नियंत्रण ही इच्छाओं की तृप्ति का साधन है। इच्छाओं का नियंत्रण कैसे करें? अपने अंदर संतोष के से धारण करें?

 

यथार्थ को अपनी आँखों के सामने रखी। जीवन का यथार्थ क्या है इस पर हमेशा दृष्टि रखो। मैं कितना भी जोड़ लुं, एक दिन सब का सब छोड़कर चला जाऊँगा -ये जीवन का यथार्थ है। दुनिया में आज तक एक भी आदमी ऐसा हुआ जो अपने साथ अपना एक भी कण ले जा सका हो? नहीं. तुम जीवन में कितना भी जोड़ो एक दिन सब छोड़कर जाना है, इसका भरोसा है? विश्वास है? अभी मुँह से कह रहे हो, अंदर से कही। जब लेकर नहीं जाना है तो जोड़ क्यों रहे हो?

 

भार कम : मज़ा ज्यादा

एक बात और बोलता हूँ- आप लोगों को जब यात्रा करनी होती है तो जितना अच्छा साधन होता है आप उतना लगेज(सामान) कम रखते हो। ट्रक से जाना हो तो भरपूर लगेज, कार में जाना हो तो दो-चार अटेची और प्लेन में जाना हो तो एक बैग। जितना लगेज साथ में रखते हो उतनी परेशानी होती है। अगर पूरा ट्रक लेकर जाओ तो उसे उतरवाना भी पड़ता है, उसकी बिल्टी मिलानी पड़ती है, सब देखना पडता है। यदि आप दो-चार अटेची लेकर जाते हैं तो उसको भी उठवाना पड़ता है, कुली ढूंढ़ना पड़ता है और यदि आपके पास पड़ता है, आप आनंद से आगे बढ़ जाते हैं।

 

बंधुओं! जीवन के इस सफर(यात्रा) में आनंद की अनुभूति तो परेशान हो जाओगे। ये जीवन की सच्चाई है जितना अपने पास भार जोडोगे जाते वक्त उतने परेशान होगे। दिमाग को निर्भार रखो,अपनी आसक्ति को मंद करो, जीवन का पथ तभी और केवल तभी प्रशस्त होगा, नहीं तो क्या भरोसा कहाँ ब्रेनस्टोक हो जाए, कोमा में चले जाओ, पैरालिसिस का अटैक हो जाए, बिस्तर पर सड़ते रहो और न जाने क्या-क्या परेशानियाँ तुम पर हावी हो जाएँ।

 

आसक्ति-मुक्त जीवन जियो। कर्म का कब कैसा उदय आ जाए, पता नहीं। न लेकर आए हो, न लेकर जाओगे ये यथार्थ है। जीवन में जो मेरे कर्म के अनुकूल होगा वही संयोग मुझे मिलेगा, ये जीवन का यथार्थ है। मैं अपने बाल-बच्चों की बात सोर्चे तो आज मैं अपने पुण्य का खाता हूँ, मेरे बच्चे भी अपने पुण्य का खाएँगे। मैं किसके लिए परेशान हूँ? पूत सपूत तो का धन संचय। पूत कपूत तो का घन संचय। यदि ये बात तुम्हारे मन में बैठ गई तो सन्तोष स्वभावत: प्रकट होगा।

 

दूसरी बात भावोन्मुखी दृष्टि रखो। भावोन्मुखी दृष्टि यानि जो तुम्हारे पास है बस तुम उसे देखो, जो नहीं है उसे मत देखो। सुखी होने का एक ही रास्ता है- जो है उसे पसंद करो और दुखी होने का एक ही रास्ता है जो नहीं है उसकी देख लो।

 

तुम्हारे पास जो है यदि तुम उसे देखना शुरु कर दो तो मन में असंतोष नहीं आएगा और जो नहीं है उसे देखोगे तो मन में कभी सन्तोष नहीं आएगा। अगर तुम्हारे पास लाख हैं और तुम्हारे लिए सामने वाले का दस लाख दिखता है। दस लाख पाने की आकांक्षा में वह एक लाख का सुख भोगने की जगह नौ लाख के अभाव का दुख भोगना शुरु कर देता है। अभाव को मत देखो, भाव को देखो। जो तुम्हारे पास है उसे देखो। भावोन्मुखी दृष्टि होते ही संतोष की सृष्टि होगी और अभावोन्मुखी दृष्टि में दुःख आता है, असंतोष आता है |

 

सन्त कहते हैं तुम सड़क पर नंगे पाव चल रहे हो और कोई दूसरा व्यक्ति जूता पहनकर गुजर रहा है तो सामने वाले के जूतों को देखकर अपने मन में मलिनता मत लाओ, उस व्यक्ति को देखी जो बिना पाँव के चल रहा है और अपने आपको भाग्यशाली मानो कि मेरे पास जूते नहीं है तो क्या, मेरे पास पाँव तो हैं, मेरे पाँव अच्छे हैं। लेकिन मनुष्य की स्थिति ये है कि उसे अपने पाँवों का मूल्य और महत्व समझ में नहीं आता वह हमेशा दूसरे के जूतों पर नजर गडाये रखता है। ध्यान रखना। जूतों पर नजर गड़ाये रखने वाले जूते ही खाएँगे। दुखों के जूते खा रहे हो, अपनी अज्ञानता के कारण खा रहे हो।

 

सम्हलो, यहीं थमकर चिंतन करने की आवश्यकता है, विचार करने की आवश्यकता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य आखिर है क्या? जो मेरे पास है वह सफिसिएण्ट(पर्याप्त) है। पर्याप्त की तो कोई परिभाषा है ही नहीं। अगर आपकी दृष्टि भावोन्मुखी बनेगी तो मन कभी इधर-उधर नहीं डगमगाएगा और यदि भावोन्मुखी दृष्टि नहीं होगी तो जीवन कभी सही रास्ते पर नहीं आएगा। लेकिन क्या करें? आज के लोग बस अभाव को देख-देखकर दुखी होते हैं। एक बार कोयल के बच्चे ने मोर को देखा और मचल उठा। उसने अपनी माँ से कहा- माँ मेरे ये काले-काले पंख बड़े खराब लगते हैं, मुझे मोर जैसे सुन्दर-सुन्दर पंख चाहिए। कोयल ने अपने बेटे से कहा- बेटा! अपने पंख अच्छे हैं। उसने अपनी माँ से कहानहीं माँ! मुझे तो मोर जैसे ही पंख चाहिए। बच्चा जो मचला सो मचला। बच्चे तो बच्चे होते हैं, जब एक बार मचलते हैं तो मचलते ही जाते हैं, उन्हें माँ-बाप की मजबूरी का कोई आभास ही नहीं होता। बच्चे के मचल जाने पर कोयल मोर के पास गई और मोर से बोली- मोर भाई! ये तुम्हारे पंख बहुत सुंदर हैं, मेरा बच्चा तुम्हारे पंख के लिए मचल रहा है यदि तुम अपना एक पंख दे दोगे तो बड़ी कृपा होगी, मेरे बच्चे का मन रह जाएगा।

 

कोयल की प्रार्थना सुनकर मोर ने अपने पंख झड़ा दिए। कोयल ने उनमें से एक पंख उठाया और अपने बच्चे के पंखों में लगा दिया। मोर का पंख पाकर कोयल का बच्चा हर्ष से कुकने लगा। जैसे ही कोयल की बच्चे ने मधुर कंक लगाई तो पास बैठा मोर का बच्चा रोने लगा, उसने अपनी माँ से कहा- माँ! मेरी आवाज बड़ी भौड़ी है, मुझे कोयल जैसी मधुर आवाज चाहिए। 

 

बंधुओं! क्या कहें? कोयल का बच्चा मोर के पंख के पीछे परेशान है और मोर का बच्चा कोयल की आवाज के पीछे परेशान है। जब तक इधर-उधर देखते रहोगे, तुम्हारे जीवन की यही दशा होगी। रवीन्द्रनाथ टेगौर की ये पंक्तियाँ बहुत सार्थक हैं

 

छोड़कर नि:श्वास कहता है नदी का यह किनारा

उस पार ही क्यों बह रहा है जगत भर का हर्ष सारा।

किन्तु लम्बी श्वास लेकर वह किनारा कह रहा है

हाय ये हर एक सुख उस पार ही क्यों बह रहा है।

इस पार वाले को उस पार अच्छा लगता है और उस पार वाले को इस पार अच्छा लगता है इसलिए दोनों मझधार में हैं। जो तुम्हारे पास है उसे देखने की कोशिश करो, तुम्हारे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा।

 

नम्बर तीन संयमी प्रवृत्ति अपनाओ, जीवन में संयम रखो, संयमः से ही संतोष आता है। जीवन में संयम आना चाहिए, संयम संतोष का जन्मदाता है। संयम को अपनाओगे; अपने आप सब कुछ ठीक हो जाएगा। चौथी बात आप अपने जीवन को स्वाभाविक तरीके से जीना शुरु करें, कृत्रितमता को न अपनाएँ। स्वाभाविकता और कृत्रिमता में क्या अन्तर है? जब व्यक्ति स्वाभाविक जीवन जीता है तो उसकी दृष्टि अपनी आवश्यकता पर होती है और जब उसके जीवन में कृत्रिमता आती है तो दूसरों को देखकर चलना शुरु कर देता है, उसके हिसाब से अपना जीवन जीना शुरु कर देता है। कपड़ा चाहिए, ये आपकी एक आवश्यकता है। स्वाभाविक जीवन जीने वाला कोई भी कपड़ा पहन लेगा लेकिन जब कृत्रिमता उस पर हावी का कपड़ा चाहिए। मेरी आवश्यकता है ये स्वाभाविक है लेकिन जब उसमें कृत्रिमता आती है तो अमुक चीज चाहिए। ये कन्ज्यूमरिज्म (उपभोक्तावाद) का युग है, इसमें मनुष्य के जीवन की स्वाभाविकता नष्ट हो रही है, कृत्रिमता हावी हो रही है। इसी कृत्रिमता के हावी होने के कारण मनुष्य का आंतरिक जीवन तहस-नहस हो रहा है। स्वाभाविकता को अपनाइए।

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