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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. गुरु की डॉट ही शिष्य के लिए शिक्षा का घर है। अर्थात् गुरु की डाँट से शिक्षा/विद्या जल्दी प्राप्त हो जाती है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहा करते थे कि अज्ञानियों से वर्षों प्रशंसा मिलने की अपेक्षा, ज्ञानी के द्वारा डाँट मिलना भी श्रेष्ठ है। क्योंकि ज्ञानी की डाँट के द्वारा दिशाबोध प्राप्त हो जाता है और यही डाँट व्यक्ति की दशा परिवर्तन करा देती है एवं दुर्दशा होने से बचा लेती है। वे कहा करते थे कि शिष्य का कर्तव्य है कि गुरु की आज्ञा को बिना कान फड़फड़ाये स्वीकार कर लेना चाहिए अर्थात् गुरु आज्ञा को निर्विकल्प शिरोधार्य कर लेना चाहिए। इससे गुरु के प्रति उसका विनय एवं समर्पण प्रकट होता है। ज्ञानार्णव वाचना, ०६.१०.१९९६, अतिशय क्षेत्र महुवाजी, चातुर्मास एवं द्रव्य संग्रह वाचना के समय, १७.०७.१९९५, कुण्डलपुर
  2. अपने उपयोग को स्थिर रखने के लिए एवं मन को शांत बनाये रखने के लिए साधक साधना करता है। चिन्तन, मनन, लेखन भी करता है। पर प्रकाशन से हमेशा दूर रहता है क्योंकि प्रकाशन शब्द स्वयं कहता है प्रकाश-न। इसलिए आचार्य ज्ञानसागरजी कहा करते थे कि आज के लेखकों को प्रकाशन की अधिक चिन्ता है। साधक को चिन्ता नहीं बल्कि चिन्तन करना चाहिए। वे कहते थे कि "मैं तो साधक हूँ प्रकाशक नहीं।" लेखन कार्य दोषपूर्ण है अति आवश्यक होने पर किसी और से लिखवा लें तो अच्छा रहेगा। आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज जी ने समयसार की टीका को छोड़कर बाकी सभी ग्रन्थ निर्ग्रन्थ होने से पूर्व अर्थात् पं. भूरामल एवं क्षु. ज्ञानभूषण की अवस्था में लिखे हैं, मुनि अवस्था में नहीं। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ या तो ग्रन्थालयों में या मंदिरों में या उनके भक्त श्रावकों के यहाँ से प्राप्त हुए और अधिकतर ग्रन्थों का प्रकाशन उनकी समाधि के बाद ही हुआ। अपने द्वारा रचित ग्रन्थों के प्रकाशन से दूर रहने वाले वे एक महान् साधक थे आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज। आचार्य श्री के मुखारबिन्द से धवला (६) वाचना के अवसर पर ०४.०६.१९९८, भाग्योदय तीर्थ, सागर
  3. आवश्यक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/aavashyak/
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