अब प्रमाण और नय के द्वारा जाने गये जीव आदि तत्त्वों को जानने का अन्य उपाय बतलाते हैं -
निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः॥७॥
अर्थ - निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह अनुयोगों के द्वारा भी सम्यग्दर्शन आदि तथा जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है। जिस वस्तु को हम जानना चाहते हैं, उसका स्वरूप कहना निर्देश है। स्वामित्व से मतलब उस वस्तु के मालिक से है। वस्तु के उत्पन्न होने के कारणों को साधन कहते हैं। वस्तु के आधार को अधिकरण कहते हैं। काल की मर्यादा का नाम स्थिति है। विधान से मतलब उसके भेदों से है। इस तरह इन छह अनुयोगों के द्वारा उस वस्तु का ठीक ठीक ज्ञान हो जाता है।
English - (Knowledge of the seven categories is attained) by description, ownership, cause, resting place (substratum), duration and division.
विशेषार्थ- वस्तु को हम जानते तो प्रमाण और नय से ही हैं, किन्तु उसके जानने में ऊपर बतलायी गयी छह बातें उपयोगी होती हैं,उनसे उस वस्तु की पूरी-पूरी जानकारी होने में सहायता मिलती है। जैसे, हम यदि सम्यग्दर्शन को जानना चाहते हैं, तो उसके विषय में छह अनुयोग इस प्रकार घटाना चाहिए - तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह निर्देश है। सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव होता है। सम्यग्दर्शन के साधन दो हैं- अन्तरंग और बहिरंग। अन्तरंग साधन अथवा कारण तो दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है और जिनधर्म का सुनना, जिनबिम्ब का दर्शन, जातिस्मरण वगैरह बहिरंग साधन हैं। अधिकरण भी दो हैं - अन्तरंग और बहिरंग। सम्यग्दर्शन का अन्तरंग अधिकरण या आधार तो आत्मा ही है; क्योंकि सम्यग्दर्शन उसी को होता है। और बहिरंग आधार त्रसनाड़ी है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव त्रसनाड़ी में ही रहते हैं, उससे बाहर नहीं रहते। सम्यग्दर्शन की स्थिति कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त मात्र है और अधिक से अधिक सादि अनन्त है; क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व एक बार प्राप्त होने पर कभी नहीं छूटता और मुक्त हो जाने पर भी बना रहता है।
सम्यग्दर्शन के दो भेद भी हैं - निसर्गज और अधिगमज। तथा तीन भेद भी हैं - औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक। इसी तरह ज्ञान, चारित्र और जीव आदि पदार्थों में निर्देश आदि लगा लेना चाहिए।