अब तत्त्वों को जानने का उपाय बतलाते हैं-
प्रमाणनयैरधिगमः॥६॥
अर्थ - प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादिक पदार्थों का ज्ञान होता है। सम्पूर्ण वस्तु को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। और वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं।
English - Knowledge (of the seven categories) is attained by means of pramana and naya.
विशेषार्थ - प्रमाण के दो प्रकार हैं - स्वार्थ और परार्थ। जिसके द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जानता है। उसे स्वार्थ प्रमाण कहते हैं। इसी से स्वार्थ प्रमाण ज्ञानरूप ही होता है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जान सकता है। दूसरों को नहीं बतला सकता। और जिसके द्वारा दूसरों को ज्ञान कराया जाता है, उसे परार्थ प्रमाण कहते हैं। इसी से परार्थ प्रमाण वचनरूप होता है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा ज्ञाता स्वयं जानकर वचन के द्वारा दूसरों को ज्ञान कराता है।
आगे ज्ञान के पाँच भेद बतलाये हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इनमें से श्रुतज्ञान के सिवा शेष चार ज्ञान तो स्वार्थ प्रमाण ही हैं, क्योंकि वे मात्र ज्ञानरूप ही हैं, परन्तु श्रुतज्ञान ज्ञानरूप भी है और वचनरूप भी है, अतः श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी है। ज्ञानरूप श्रुतज्ञान स्वार्थ प्रमाण है, और वचनरूप श्रुतज्ञान परार्थ प्रमाण है। जैसे तत्त्वार्थसूत्र के ज्ञाता को तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित विषयों का जो ज्ञान है, वह ज्ञानात्मक श्रुत होने से स्वार्थ प्रमाण है। और जब वह ज्ञाता अपने वचनों के द्वारा दूसरों को उन विषयों का ज्ञान कराता है, वह वचनात्मक श्रुतज्ञान परार्थ प्रमाण है। इस श्रुतज्ञान के ही भेद नय हैं।