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  • अध्याय 3 - जैन रामायण

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    Vidyasagar.Guru

    तीर्थङ्कर प्रायः जैनों तक ही सीमित रहे किन्तु आठवें बलभद्र श्रीराम अजैनों में भी प्रसिद्ध हुए। राम, रावण, हनुमान, लक्ष्मण, कुम्भकर्ण आदि महापुरुषों के बारे में अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं किन्तु इनके वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए जैन ग्रन्थों का आधार लेना आवश्यक है । अतः इस अध्याय में संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित जैनरामायण का वर्णन है ।

     

    1. राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न कब हुए एवं इनका सामान्य परिचय क्या है ?

    तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत के निर्वाण के बाद एवं नमिनाथ के जन्म के पहले अयोध्या नगरी में राजा दशरथ हुए जिनकी चार रानियाँ थी- अपराजिता (कौशल्या), सुमित्रा, केकया और सुप्रभा ।
    एक दिन रानी अपराजिता ने रात्रि के पिछले प्रहर में चार स्वप्न देखें - 1. सफेद हाथी, 2. सिंह, 3. सूर्य, 4. चन्द्रमा।प्रात:कालीन रानी ने राजा से उन स्वप्नों का फल पूछा तब राजा ने कहा हे कान्ते ! तुम्हारे परम आश्चर्य का कारण ऐसा पुत्र होगा जो अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों प्रकार के शत्रुओं का नाश करेगा।

     

    तदनन्तर सुमित्रा रानी ने भी एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में तीन स्वप्न देंखे 1. लक्ष्मी और कीर्ति कलशों से सिंह का अभिषेक कर रही हैं, 2. ऊँचे पर्वत के शिखर पर चढ़कर समुद्ररूपी मेखला से सुशोभित विस्तृत पृथ्वी को देखा, 3. घूमता हुआ सुन्दर चक्र देखा । रानी ने प्रातःकाल राजा से इन स्वप्नों का फल पूछा? तब राजा ने कहा हे प्रिये ! तुम्हारे ऐसा पुत्र होगा कि जो युग प्रधान होगा, महातेजस्वी तथा अद्भुत चेष्टाओं का धारक होगा ।

     

    अथानन्तर समयपूर्ण होने पर अपराजिता रानी ने कान्तिमान पुत्र को जन्म दिया। राजा दशरथ ने बहुत उल्लास के साथ पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। जिसके नेत्र कमल के समान अतः माता-पिता ने पुत्र का नाम (पद्म) राम रखा। तदनन्तर सुमित्रा ने श्रेष्ठ कान्ति के धारक पुत्र को जन्म दिया इसका भी जन्मोत्सव मनाया गया। शत्रुओं के नगरों में आपत्तियों की सूचना देने वाले हजारों उत्पात होने लगे और बन्धुओं के नगरों में सम्पत्तियों की सूचना देने वाले हजारों शुभ चिह्न प्रकट होने लगे। प्रौढ़ नीलकमल के भीतरी भाग के समान जिसकी आभा थी जो कान्तिरूपी जल में तैर रहा था और अनेक अच्छे-अच्छे लक्षणों सहित था ऐसे उस पुत्र का नाम माता-पिता ने लक्ष्मण रखा था । तदनन्तर केकया ने भरत को जन्म दिया और सुप्रभा ने शत्रुघ्न को जन्म दिया ।


    युवा अवस्था होते ही राम का विवाह राजा जनक की पुत्री सीता के साथ सम्पन्न हुआ। कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने मुनिराज से अपने पूर्वभव सुनकर जातिस्मरण हो गया और उन्होंने तुरन्त ही मुनि दीक्षा लेने का विचार किया तथा अपना राज्य पद अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को देने के लिए निश्चय किया। किन्तु केकया को दिए हुए वरदान के कारण भरत को राजा बनाकर स्वयं ने सर्वभूतहित मुनिराज से 72,000 राजाओं के साथ दिगम्बरी ( मुनि) दीक्षा धारण की । उधर राम ने विचार किया कि यदि मैं अयोध्या में रहूँगा तो भरत गद्दी पर नहीं बैठेगा तब माँ केकया की अभिलाषा पूर्ण नहीं होगी । अतः मुझे स्वयं अयोध्या छोड़कर जाना चाहिए जब राम ने प्रस्थान किया तब साथ में सीताजी एवं लक्ष्मण जी ने भी प्रस्थान किया ।

     

    अयोध्यावासियों ने श्रीराम लक्ष्मण से बहुत प्रार्थना की आप वापस अयोध्या चलिए किन्तु श्रीराम के वापसी की प्रार्थना न मानने के कारण भरत निराश होकर वापस लौट गए और राज्य का पालन करने लगे । उसने द्युति भट्टारक के समक्ष प्रतिज्ञा ली थी कि मैं राम के दर्शन मात्र से मुनि दीक्षा ले लूँगा तथा राम, लक्ष्मण, सीता सहित दण्डक वन में जाकर रहने लगे ।


    राम जी ने उसी वन में साहसगति विद्याधर की माया (विक्रिया) से परेशान हो सुग्रीव को उसकी पत्नी सुतारा वापस दिलाई। वंशस्थल के वंशगिरि पर्वत पर देशभूषण और कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर किया तथा दण्डक वन में कर्णरवा नदी के तट पर सुगुप्ति नामक और गुप्ति नामक चारण ऋद्धिधारी मुनियों को आहार दान दिया । मुनियों के आहार ग्रहण के पश्चात् वहाँ पञ्चाश्चर्य हुए।


    एक दिन लक्ष्मण वन में भ्रमण करते-करते दूर निकल गए। उन्हें एक ओर से अद्भुत गन्ध आई उसी गन्ध से आकृष्ट हो वे उस ओर बढ़ते गए। एक बाँस के भिड़े में शम्बूक सूर्यहास खड्ग सिद्ध कर चुका था देवोपनीत खड्ग आकाश में लटक रहा था। उसी की सुगन्धि सर्वत्र फैल रही थी । लक्ष्मण ने लपककर सूर्यहास खड्ग हाथ में लिया और उसकी तीक्ष्णता की परख करने के लिए उसने उसी बाँसों के स्तम्भ (भिड़े) पर चला दिया। चलाते ही बाँसों का भिड़ा कट गया और साथ ही उसके भीतर स्थित शम्बूक भी कट कर दो टूक (टुकड़े) हो गया। शम्बूक रावण की बहिन चन्द्रनखा का पुत्र था । प्रतिदिन पुत्र को भोजन देने के लिए आती थी। उस दिन पुत्र के दो टुकड़े देख उसके दुःख का पार नहीं रहा। उसका करुण विलाप आकाश में गूँजने लगा। कुछ समय बाद राम लक्ष्मण के सौन्दर्य से उसका मन हरा गया और वह उन्हें प्राप्त करने के लिए छल से कन्या बन गई । राम-लक्ष्मण उसकी माया से विचलित नहीं हुए ।

     

    कामेच्छा पूर्ण न होने से चन्द्रनखा को पुत्र शोक ने फिर धर दबाया जिससे विलाप करती हुई वह अपने पति खरदूषण के पास गई । खरदूषण ने स्वयं आकर पुत्र को मरा देखा । उसका क्रोध उबल पड़ा। वह राम -लक्ष्मण के साथ युद्ध के लिए उठ खड़ा हुआ। खरदूषण ने रावण को भी इस घटना का समाचार दिया। खरदूषण इधर लक्ष्मण के साथ घमासान युद्ध होता है। उधर रावण उसकी सहायता के लिए आता है। किन्तु बीच में सीता को देख मोहित हो जाता है। छल से सिंहनाद कर राम को लक्ष्मण के पास भेज देता है और सीता को अकेली देख हरण कर ले जाता है । जटायु पक्षी ने अपने पंखों के आघात से रावण के समस्त शरीर को छिन्न-भिन्न कर डाला तदनन्तर इष्ट वस्तु में बाधा डालने से तदनन्तर क्रोध को प्राप्त हुए रावण ने हस्ततल के प्रहार से ही जटायु को मारकर नीचे गिरा दिया । वह पक्षी कें कें करता हुआ मूच्छित हो गया । तत्पश्चात् बिना किसी विघ्न बाधा के रावण सीता को पुष्पक विमान से विलाप करती हुई सीता को लंका ले गया। उसने उसे लंका के उद्यान में रखा तथा सीता ने संकल्प कर लिया कि जब तक श्रीराम का सन्देश न मिलेगा तब तक के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग। ऐसे सीताजी के लंका में ग्यारह उपवास हो गए। तत् पश्चात् हनुमान जी सीताजी को खोजते हुए लंका में पहुँचे तथा श्रीराम के द्वारा प्रदत्त अँगूठी सीताजी की गोद में डाल दी। जिसे देखकर सीता रोमांचित हो गई, उसके मुख पर मुस्कान आ गई सीताजी ने आहार पानी ग्रहण किया । तथा राम के समाचार सीता जी को सुना दिए । तत् पश्चात् हनुमान जी श्रीराम के पास वापस आ गए और राम, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि सेना सहित रावण से युद्ध करने के लिए प्रस्थान किया। पहले रावण को समझाया कि मेरी सीता वापस कर दो अन्यथा युद्ध होगा। रावण तैयार नहीं हुआ तथा रावण का भाई विभीषण भी रावण का पक्ष छोड़कर राम के दल में आकर मिल गया। राम और रावण की सेना में लगभग साढ़े चार माह तक युद्ध चलता रहा। अन्त में रावण ने चक्ररत्न चला दिया तो वह तीन प्रदक्षिणा दे चक्ररत्न लक्ष्मण के हाथ में आ जाता है एवं लक्ष्मण नारायण घोषित होते है और उसी चक्र से रावण (प्रतिनारायण) का वध कर देते हैं ।


    तदनन्तर श्रीराम ने कहा कि अब क्या करना चाहिए ? क्योंकि विद्वानों के बैर तो मरण पर्यन्त ही होते हैं । अच्छा हो कि हम सब लोग मिलकर परलोक को प्राप्त हुए महामानव लंकेश्वर के शरीर का दाह संस्कार करें । कपूर, अगरु, गौशीर्ष, चन्दन आदि उत्तम पदार्थों से रावण के शरीर का अन्तिम संस्कार किया । तत् पश्चात् विभीषण को लंका का राज्य सौंपकर 6 वर्ष तक विभीषण के आथित्य में रहकर बाद में राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वापस अयोध्या में आ जाते हैं ।


    राम के आते ही भरत ने देशभूषण केवली के समक्ष मुनि दीक्षा धारण कर ली थी। राम का राज्याभिषेक हुआ। सीता के विषय में लोकोपवाद होने पर कुल मर्यादा की रक्षा हेतु राम ने सीता का परित्याग करना उचित समझा और सेनापति कृतान्तवक्र को आदेश देकर गर्भवती सीता को तीर्थयात्रा के बहाने सिंहनाद नामक भयंकर वन में छुड़वा दिया। तब कृतान्तवक्र ने सीताजी से कहा माँ राम से कोई सन्देश कहना है क्या? तब सीता ने कहा सेनापति आप यह बोल देना जिस प्रकार प्रजा के कहने से मुझे छोड़ दिया उसी प्रकार किसी के कहने से धर्म को नहीं छोड़ देना । निर्दोष सीता को जंगल में छोड़ने से कृतान्तवक्र बहुत रोया और कहा माँ ऐसा आशीर्वाद दो कि कभी किसी की नौकरी न करना पड़े । अथान्तर पुण्य योग से सीता के समीप राजा वज्रजंघ आया उसने सीता को बड़ी बहिन बनाकर अपने महल में ले जाता है। वहीं श्रावण माह की पूर्णिमा के दिन सीता ने अनङ्ग लवण (लव) और मदनांकुश (कुश) नामक युगल पुत्रों को जन्म दिया ।


    सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक से शस्त्र विद्या, शास्त्र विद्या आदि की शिक्षा प्राप्त कर बड़े होने पर उन पुत्रों को जब अपनी माँ की पूरी घटना का पता चला तो उन्होंने युद्ध हेतु अयोध्या नगरी को घेर लिया। युद्ध हुआ जब राम की सेना भी उन पुत्रों को न जीत सकी तब नारद जी ने राम-लक्ष्मण से उनका रहस्य प्रकट किया। तब उन्होंने युद्ध को छोड़कर पुत्रों का नाम पुकारा और वे पिता, काका, पुत्र आपस में प्रीति भाव को प्राप्त हुए ।


    कुछ दिन पश्चात् हनुमान, सुग्रीव आदि ने राम से सीता को वापस लाने के लिए प्रार्थना की। राम की आज्ञा से सीता का आगमन हुआ, तब राम ने सीता से कहा मैं तुम्हारी निर्दोषता को जानता हूँ तथापि स्वभाव से कुटिलचित्त प्रजा को विश्वास दिलाकर तुम उनकी शंका को दूर करो।


    स्वामी के ऐसे विश्वसनीय वचन सुनकर प्रसन्नचित्त सीता ने कहा कि मैं हर प्रकार से परीक्षा देने को तैयार हूँ। यदि आप आज्ञा दे तो मैं भयंकर विष पी जाऊँ अथवा अग्नि की ज्वाला में प्रवेश कर जाऊँ अथवा तुला पर चढ़ सकती हूँ । तब राम ने सीता को अग्नि में प्रवेश करो। राम ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि एक दो पुरुष गहरा अर्थात् दो पुरुषों की गहराई के बराबर एक गड्ढ़ा और तीन सौ हाथ चौड़ी चौकोन पृथ्वी प्रमाण के अनुसार खोदो और ऐसी वापी बनाकर उसे कालागरु तथा चन्दन के सूखे और बड़े मोटे ईन्धन से परिपूर्ण करो। और उसमें ऐसी अग्नि प्रज्वलित करो कि जिसमें तीक्ष्ण ज्वालाएँ निकल रही हो। ऐसी अग्नि तैयार हो गई। तथा सीता के लिए आदेश दिया कि इसमें प्रवेश कीजिए ।


    सीताजी ने अग्नि की लपटों में प्रवेश करने से पूर्व ऋषभादि तीर्थङ्करों को नमस्कार किया, सिद्ध परमेष्ठी, समस्त साधु, मुनिसुव्रतनाथ तीर्थङ्कर को नमस्कार कर कहा हे अग्ने ! यदि मैंने राम को छोड़कर किसी अन्य मनुष्यों को स्वप्न में भी मन वचन और काय से धारण नहीं किया है यह मेरा सत्य है । यदि मैं यह मिथ्या कह रही हूँ तो यह अग्नि दूर रहने पर भी मुझे क्षण भर में भस्म कर दे राख का ढेर बना दे। और यदि मैंने राम के अलावा किसी अन्य मनुष्य को मन में धारण नहीं किया है तो विशुद्धि से सहित मुझे यह अग्नि नहीं जलावे । इतना कहकर उस देवी ने उस अग्नि में प्रवेश किया। परन्तु आश्चर्य की बात की वह अग्नि स्फटिक के समान स्वच्छ, सुखदायी तथा शीतल जल हो गई । जल से वह वापिका लबालब भर गई । सीताजी अग्नि परीक्षा में पास हो गई । तब राम ने सीता से राजमहल में चलने का आग्रह किया किन्तु सीता ने कहा कि मैं अब भवन की ओर नहीं वन की ओर जाऊँगी और आत्मकल्याण करूँगी । राम की आज्ञा ले सीता ने पृथ्वीमति आर्यिका से आर्यिका के व्रतों को अंगीकार किया। एवं 62 वर्ष तक घोर तपस्या करती हुई आयु के अन्तिम 33 दिनों की सल्लेखना धारण कर स्त्री पर्याय को छेदकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई ।


    एक दिन भातृ प्रेम की परीक्षा करने आए देवों के द्वारा ऐसा कहने पर कि राम की मृत्यु हो गई, सुनते ही लक्ष्मण मरण को प्राप्त हो जाते हैं । राम मोह के वशीभूत हो लक्ष्मण के शव को अपने कन्धे पर रखकर छ: माह तक भातृ मोह के कारण भटकते रहे। इसी बीच लव - कुश भी दीक्षा ले चुके थे । राम की हालत देखकर देवों के द्वारा (जटायु एवं कृतान्तवक्र सेनापति का जीव) अनेक प्रकार से सम्बोधे जाने पर प्रतिबोध को प्राप्त हो सरयू नदी के तट पर लक्ष्मण के शव का दाह संस्कार किया और अनङ्गलवण के पुत्र अनन्तलवण को राज्य दिया तथा कुछ अधिक 16,000 राजाओं के साथ सुव्रतनामक मुनिराज से मुनि दीक्षा अंगीकार की एवं दीक्षा की रात को ही मुनि राम को अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई। मुनि राम ने घोर तपस्या करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया तथा सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर तुंगीगिरि (मांगीतुंगी) से निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त किया।


    जैन रामायण की विशेषताएँ -

    1. रावण राक्षस नहीं था किन्तु रावण का वंश राक्षस था । वह विद्याधर तीन खण्ड का स्वामी, अत्यन्त सुन्दर, नीतिवान एवं नियम का पक्का था । उसने अनन्तबल केवली के समक्ष नियम लिया कि जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे जबरदस्ती ग्रहण नहीं करूँगा। रावण का बचपन का नाम दशानन था।
    2. रावण का भाई भानुकर्ण (कुम्भकर्ण) था उसकी ससुराल कुम्भपुर में थी जब उसकी ससुराल पर किसी ने आक्रमण किया तो ससुर ने स्नेह से भानुकर्ण के कर्ण कुम्भपुर पर पड़े अर्थात् वहाँ के दुख भरे शब्द सुने तब उसका नाम कुम्भकर्ण प्रसिद्ध हुआ । वह छः छः माह नहीं सोता था, वह यथा समय ही शयन करता था।
    3. हनुमान बन्दर नहीं सुन्दर थे, वे कामदेव थे । वे वानर वंशी थे वानर नहीं । हनुमान जी का जन्म शैल अर्थात् पर्वत पर हुआ था एवं इनका जन्म होते ही इनके मामा के मामा प्रतिसूर्य जब विमान से अपने नगर ले जा रहे थे। तब हनुमान विमान से नीचे गिर गए इससे वह शिला चूर्ण - चूर्ण हो गई । किन्तु हनुमान जी तो मस्त खेल रहे थे । इससे माता एवं माता के मामा ने उसका नाम " श्रीशैल " रखा था तथा हनुमान का जन्मोत्सव हनुरुह द्वीप में मनाया इससे इनका नाम हनुमान पड़ा । हनुमान जी ने मुनि दीक्षा धारण कर तुङ्गीगिरि से मोक्ष प्राप्त किया।
    4. कर्णरवा नदी के तट पर जब राम और सीता ने सुगुप्ति और गुप्ति मुनिराज को आहार दान दिया । तब उन मुनियों को देखते ही गृध्र (जटायु) पक्षी को अपने अनेक भव स्मृत हो उठे । उसने महाराजों के चरणोदक को पीने लगा। जिसके प्रभाव से उसका शरीर उसी समय रत्नराशि के समान नाना प्रकार के तेज से व्याप्त हो गया। उसके दोनों पंख सुवर्ण के समान हो गए, पैर नील मणि के समान दिखने लगे और चोंच मूँगा के समान दिखने लगी । आहार के पश्चात् महाराज शिला पर बैठ गए वहीं गृध्र पक्षी जाकर रोने लगा क्योंकि उसने पूर्व भवों में बहुत पाप किए थे । महाराज ने उसे समझाया और श्रावकों के व्रत दिए उसने भी अञ्जलि बाँध बार-बार शिर हिलाकर तथा मधुर शब्द का उच्चारण कर मुनिराज का उपदेश ग्रहण किया। तदनन्तर दोनों मुनियों ने राम आदि को लक्ष्य कर कहा कि आप लोगों को क्रूर प्राणियों से भरे हुए सघन वन में इस सम्यग्दृष्टि पक्षी की सदा रक्षा करनी चाहिए। चूँकि उसके शरीर पर रत्न तथा स्वर्ण निर्मित किरण रूपी जटाएँ सुशोभित हो रही थीं इसलिए राम आदि उसे 'जटायु' कहकर पुकारते थे।
    5. राजा जनक की विदेहा रानी से एक साथ पुत्र और पुत्री का जन्म हुआ। पुत्र का नाम भामण्डल एवं पुत्री का नाम सीता रखा गया ।
    6. रावण के पुत्र इन्द्रजीत और मेघवाहन ने अनन्तवीर्य केवली के समक्ष दीक्षा ली और अन्त में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया ।
    7. जब लक्ष्मण रावण द्वारा अमोघ विजया शक्ति से मूर्छित कर दिए गए तब राजकुमारी विशल्या को समीप लाने पर वह शक्ति निकल कर भाग गई पश्चात् विशल्या का विवाह लक्ष्मण के साथ सम्पन्न हुआ ।
    8. श्रीराम की आयु 17,000 वर्ष एवं शरीर की ऊँचाई 16 धनुष ( 64 हाथ अथवा 96 फीट) थी । आठवें नारायण लक्ष्मण की आयु 12,000 वर्ष एवं शरीर की ऊँचाई 16 धनुष थी ।
    9. रावण, हनुमान जी का मामा श्वसुर था ।
    10. राम का आदर्श रावण जब भक्ति कर रहा था उस समय उसने उस पर शस्त्र चलाने को मना कर दिया।

    * * *

     

    • नारकियों को जातिस्मरण से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति किस प्रकार होती है?

    सामान्यरूप से भवस्मरण के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु धर्मबुद्धि से पूर्वभव में किए गए अनुष्ठानों की विफलता के दर्शन से ही प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण इष्ट है। (ध.पु., 6/422)

    • नारकियों को वेदना से सम्यग्दर्शन किस प्रकार होता है?

    वेदना सामान्य सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं है । किन्तु जिन जीवों के ऐसा उपयोग होता है कि अमुक वेदना अमुक मिथ्यात्व के करण या अमुक असंयम से उत्पन्न हुई उन्हीं जीवों की वेदना सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण होती है। अन्य जीवों की वेदना नरकों में सम्यक्त्वोत्पत्ति का करण नहीं होती, क्योंकि उसमें उक्त प्रकार के उपयोग का अभाव होता है। (ध.पु., 6/423)


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