जो वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं, उन्हें आप्त कहते हैं, आप्त को देव भी कहते हैं। ऐसे सच्चे देवकी श्रावक पूजन करता है। अत: इस अध्याय में देवपूजन विधि का वर्णन है।
1. पूजन का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
'पू' धातु से पूजा शब्द बना है। पू का अर्थ अर्चना करना है। पज्चपरमेष्ठियों के गुणों का गुणानुवाद करना पूजा कहलाती है।
2. पूजा के कितने भेद हैं ?
पूजा के दो भेद हैं
- द्रव्य पूजा - जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ चढ़ाकर भगवान् का गुणानुवाद करना द्रव्य पूजा है।
- भाव पूजा - अष्ट द्रव्य के बिना परम भक्ति के साथ जिनेन्द्र भगवान् के अनन्तचतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करना भाव पूजा है।
3. दर्शन, पूजन, अभिषेक आदि क्यों करते हैं ?
तत्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण के अन्तिम पद में कहा है "वन्दे तद्गुणलब्धये" हे भगवान्! जैसे गुण आप में हैं, वैसे गुणों की प्राप्ति मुझे भी हो। इससे आपके दर्शन, पूजन, अभिषेक आदि करते हैं।
4. द्रव्य पूजा और भाव पूजा के अधिकारी कौन हैं ?
द्रव्य पूजा एवं भाव पूजा दोनों का अधिकारी गृहस्थ श्रावक है एवं भाव पूजा के अधिकारी मात्र श्रमण (आचार्य, उपाध्याय और साधु) आर्यिका, एलक, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका हैं।
5. पूजन के और कितने भेद हैं ?
पूजा के पाँच भेद हैं
- नित्यमह पूजा - प्रतिदिन शक्ति के अनुसार अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, चैत्य और चैत्यालय बनवाकर उनकी पूजा के लिए जमीन, जायदाद देना तथा मुनियों की पूजा करना नित्यमह पूजा है।
- चतुर्मुख पूजा - मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे चतुर्मुख पूजा कहते हैं, क्योंकि चतुर्मुख बिम्ब विराजमान करके चारों ही दिशा में पूजा की जाती है। बड़ी होने से इसे महापूजा भी कहते हैं। ये सब जीवों के कल्याण के लिए की जाती है, इसलिए इसे सर्वतोभद्र भी कहते हैं।
- कल्पवृक्ष पूजा - याचकों को उनकी इच्छानुसार दान देने के पश्चात् चक्रवर्ती अर्हन्त भगवान् की जो पूजन करता है, उसे कल्पवृक्ष पूजा कहते हैं।
- अष्टाहिका पूजा - अष्टाहिका पर्व में जो जिनपूजा की जाती है, वह अष्टाहिका पूजा है।
- इन्द्रध्वज पूजा - इन्द्रादिक के द्वारा जो जिनपूजा की जाती है, वह इन्द्रध्वज पूजा है। (का.अ.टी., 391)
6. पूजा के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ?
याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह। ये सब पूजा के पर्यायवाची नाम हैं।
7. पूजा के कितने अंग हैं ?
पूजा के छ: अंग हैं - अभिषेक, आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन।
8. अभिषेक किसे कहते हैं ?
"अभिमुख्यरूपेण सिंचयति इति अभिषेकः"। सम्पूर्ण प्रतिमा जल से सिञ्चित हो। इस प्रकार प्रासुक जल की धारा जिन प्रतिमा के ऊपर से करना अभिषेक है।
9. अभिषेक कितने प्रकार का होता है ?
अभिषेक चार प्रकार का होता है -
- जन्माभिषेक - सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर बालक को पाण्डुक शिला पर ले जाकर करता है।
- राज्याभिषेक - जो तीर्थंकर राजकुमार को राज्यतिलक के समय किया जाता है।
- दीक्षाभिषेक - यह तीर्थंकर वैराग्य होने पर दीक्षा लेने के पूर्व किया जाता है।
- चतुर्थाभिषेक - जिनबिम्ब प्रतिष्ठा में ज्ञान कल्याणक के पश्चात् किया जाता है,
इस चतुर्थाभिषेक को ही जिनप्रतिमा अभिषेक कहते हैं। जो पूजन से पूर्व में किया जाता है। विशेष :- ये चारों अभिषेक मनुष्य गति की अपेक्षा से हैं।
10. जिन प्रतिमा अभिषेक कब से चल रहा है ?
जिन प्रतिमा अभिषेक अनादिकाल से चल रहा है, क्योंकि तिर्थंकरो के पञ्चकल्याणक एवं अकृत्रिम चैत्यालय अनादिनिधन हैं। अनादिकाल से चतुर्निकाय के देव अष्टाहिका पर्व में नंदीश्वरद्वीप जाकर अभिषेक एवं पूजन करते हैं। इस प्रकार अभिषेक की परम्परा अनादिनिधन है। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी नंदीश्वरभक्ति में लिखते हैं -
भेदेन वर्णना का सौधर्म: स्नपनकर्नुतामापन्नः।
परिचारकभावमिताः शेषेन्द्रारुन्द्रचन्द्र निर्मलयशसः ॥ 15॥
अर्थ :- उस पूजा में सौधर्म इन्द्र प्रमुख रहता है, वही जिन प्रतिमाओं का अभिषेक करता है। शेष इन्द्र सौधर्म इन्द्र के द्वारा बताए गए कार्य करते हैं।
11. अभिषेक में वैज्ञानिक कारण क्या हैं ?
प्रत्येक धातु की अलग-अलग चालकता होती है। अत: जब धातु की प्रतिमा पर जल की धारा छोड़ते हैं तब धातु के सम्पर्क से जल का आयनीकरण होता है, उस आयनीकरण से युक्त जल अर्थात् गन्धोदक को उत्तमांग में लगाने से शरीर में स्थित हीमोग्लोबिन में वृद्धि करते हैं।
12. अभिषेक का फल बताइए ?
- मैनासुंदरी ने गंधोदक से अपने पति श्रीपाल सहित 700 कोढ़ियों का कोढ़ दूर किया था।
- जो मनुष्य जिनेन्द्र देव का अभिषेक क्षीर सागर के जल से करता है, वह स्वर्ग विमान में उत्पन्न होता है।
- जो भाव पूर्वक जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करते हैं, वे मोक्ष के परम सुख को प्राप्त करते हैं।
- जब विशल्या नामक कन्या के स्नान के जल से लक्ष्मण को लगी शक्ति दूर हो सकती है तब क्या जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक के जल से प्राप्त गंधोदक से अष्टकर्मों की शक्ति दूर नहीं हो सकती ? अवश्य ही होगी।
13. गंधोदक वंदनीय क्यों है ?
जिनबिम्ब प्रतिष्ठा की विधि में, पञ्चकल्याणक के माध्यम से, तप कल्याणक के दिन, अंगन्यास एवं ज्ञान कल्याणक के दिन बीजाक्षरों का आरोपण एवं मन्त्रन्यास विधि में प्रतिमा में मन्त्रों का आरोपण दिगम्बर मुनि के द्वारा किया जाता है। जलाभिषेक की धारा से जो जल प्रतिमा पर गिरता है, उन मन्त्रों एवं अभिषेक के समय उच्चारित मन्त्रों का प्रभाव जल में आ जाता है, इससे वह वंदनीय हो जाता है। (पु.)
14. आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण क्या है एवं किस प्रकार किया जाता है ?
आह्वान - भगवान् के स्वरूप को दृष्टि के समक्ष लाने का प्रयास करना आह्वान है।
स्थापना - उनके स्वरूप को हृदय में विराजमान करना स्थापना है।
सन्निधिकरण - हृदय में विराजे भगवान् के स्वरूप के साथ एकाकार होना सन्निधिकरण है। सीधे दोनों हाथों को सही मिलाएं और अनामिका अज़ुली के मूल भाग में अंगूठा रखकर आह्वान किया जाता है, उन्हीं हाथों को पलट लेना स्थापना है एवं अंगूठा ऊपर रखकर मुट्ठी बांध लें और दोनों अंगूठों को हृदय पर लगाना इसके बाद ठोना पर पुष्प क्षेपण करना चाहिए। आह्वान, स्थापना के बाद पुष्प क्षेपण नहीं करना चाहिए। पुष्पों की संख्या निश्चित नहीं है, जितने चाहें, बिना गिने क्षेपण कर सकते हैं।
15. ठोना की आवश्यकता क्यों है ?
- पूजा का संकल्प किया है, उसको पूर्ण करने के लिए जब तक पूजा पूर्ण नहीं होगी, तब तक नहीं उठेगे अर्थात् ठोना पूजा के संकल्प को याद दिलाता रहता है।
- पावर हाउस से करेंट डायरेक्ट घर में नहीं आता है, ट्रांसफार्मर से आता है। उच्च शक्ति से निम्न शक्ति में परिवर्तित होकर आता है। ऐसे ही भगवान् से सम्बन्ध जोड़ना है तब ठोना को माध्यम बनाया जाता है। ठोना याद दिलाने के लिए है कि हमने भगवान् से सम्बन्ध जोड़ा है।
16. ठोना में क्या बनाना चाहिए ?
ठोना में स्वस्तिक या अष्ट पांखुड़ी वाला कमल बनाना चाहिए।
17. पूजन में अष्ट द्रव्य क्यों चढ़ाते हैं एवं वह हमें क्या संदेश देते हैं ?
- जल - जल बाहरी गंदगी को दूर करने वाला है किन्तु आपके गुण रूपी जल मेरे राग-द्वेष रूपी मल को दूर करने वाले हैं। आत्मा में लगे ज्ञानावरणादि कर्म की रज को धोने के लिए चढ़ाया जाता है। जल हमें यह संदेश देता है कि हम उसकी तरह सभी के साथ घुल-मिलकर जीना सीखें एवं जल की तरह तरल एवं निर्मल होना सीखें।
- चंदन - इस चंदन से तो तात्कालिक शांति होती है किन्तु आपकी अमृत वाणी शारीरिक और मानसिक दाह को सदा-सदा के लिए नष्ट कर देती है। मिलावट के इस युग में आज चंदन के स्थान पर हल्दी चल रही है, जो गर्म होती है, इससे संसार रूपी ताप का नाश नहीं हो रहा है अत: चंदन के स्थान पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए। चंदन हमें यह संदेश देता है कि उसकी तरह सभी के प्रति शीतलता अपनाएं एवं चंदन के वृक्ष को कोई काटे तो वह सुगंध ही देता है। वैसे हम भी हो जाएँ। कोई मुझे मारे तो उसे सुगंध के समान मीठे वचन दे सके।
- अक्षत - हे भगवान् मुझे यह क्षत-विक्षत पद नहीं चाहिए मुझे तो आप जैसा शाश्वत पद प्राप्त हो जाए जिससे मुझे चौरासी लाख योनियों में न भटकना पड़े। अक्षत (चावल) यह संदेश देता है कि धान का छिलका हटाए बिना अक्षत प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार बाहरी परिग्रह छोड़े बिना हमें आत्मतत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
- पुष्प - हे भगवान् ! इस काम दाह से सारा संसार पीड़ित है किन्तु आपने ऐसे काम रूपी विजेता को भी जीत लिया है इसलिए मैं भी उस काम भाव पर विजय प्राप्त करने के लिए आपके चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ, आप अवश्य ही मेरी भावना साकार करें। पुष्प यह संदेश देता है कि उसका जीवन दो दिन का है फिर उसे मुरझा जाना है। टूट कर गिर जाना है। हमारा जीवन भी दो दिन का है फिर यह देह मुरझाकर गिर जाएगी। यदि दो दिन के जीवन को शरीरगत क्षणिक कामवासनाओं में चला जाने देंगे तो मुरझाने और टूटकर गिर जाने के अलावा हमारे हाथ में कुछ भी नहीं रहेगा। इसलिए स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि की सभी वासनाओं से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए।
- नैवेद्य - मैंने इस क्षुधारोग का नाश करने के लिए दिन-रात भक्ष्य-अभक्ष्य पदार्थों का सेवन किया। फिर भी इस तन की भूख शांत नहीं हुई। यह तो अग्नि में घी डालने के समान दिनों-दिन बढ़ती जाती है किन्तु ऐसे क्षुधा रोग को आपने नष्ट कर दिया है। ऐसी शक्ति मुझे भी प्राप्त हो, जिससे मैं भी हमेशा के लिए क्षुधा रोग नष्ट कर सकूं। नैवेद्य यह संदेश देता है कि मैं स्वयं नष्ट होकर दूसरों को जीवन देता हूँ। हम इतना कर लें कि दूसरे प्राणी भी जीवन जी सकें। हम उनके लिए बाधक न बनें।
- दीप - यह जड़ दीपक तो बाह्य जगत् के अंधकार को नष्ट करता है, इसमें तो बार-बार तेल-बत्ती की आवश्यकता होती है और दिया तले अंधेरा ही रहता है। लेकिन आपका केवलज्ञान रूपी दीपक स्वपर प्रकाशी, तेल और बत्ती से रहित, अखण्ड शाश्वत प्रकाशवान है। मेरे घट में भी केवलज्ञान की ज्योति जल जाए इसलिए मैं यह नश्वर दीप चढ़ा रहा हूँ। दीप यह संदेश देता है कि मैं जलकर भी दुनिया को प्रकाश देता हूँ तो हम भी यह शिक्षा लें कि कष्ट सहन कर दूसरों को सेवा प्रदान करें।
- धूप - यह धूप तो बाह्य जगत् के वातावरण को स्वच्छ करती है। परन्तु प्रभो आपने तो अष्ट कर्मों की धूप को ही नष्ट कर दिया है। मेरे भी अष्ट कर्म नष्ट हो जाएं मुझे भी वह अष्ट कर्मों से रहित अवस्था प्राप्त हो। इससे धूप चढ़ाता हूँ। धूप से संदेश ले सकते हैं कि धूप अपनी सुगंध अमीर-गरीब और छोटे-बड़े का भेद किए बिना सभी के पास समान रूप से पहुँचाती है। ऐसे ही हम अपने जीवन में भेदभाव को छोड़कर सर्वप्रेम, सर्वमैत्री की सुगन्ध फैलाते रहें।
- फल - हे प्रभु! इस संसार के सारे फल तो नश्वर हैं, अस्थिर हैं, छूट जाने वाले हैं। इन फलों को खाने से तात्कालिक आनंद आने के उपरान्त दु:ख ही हाथ लगता है। मुझे शाश्वत मोक्ष रूपी फल प्राप्त हो जाए इसलिए आपके चरणों में फल चढ़ाता हूँ। फल यह संदेश देता है कि सांसारिक फल की आकांक्षाएँ व्यर्थ हैं, क्योंकि वे तो कर्माश्रित हैं। अच्छे का अच्छा, बुरे का बुरा फल मिलता है। ध्यान रहे फल कभी भी फल नहीं चाहता है, वह कर्तव्य करता है। हम भी कोई कार्य करें तो कर्तव्य समझकर करें, फल की अपेक्षा न करें।
- अर्घ - उस अनर्घ पद के सामने इस अर्घ का क्या मूल्य है, फिर भी भक्ति वशात् मैं उस अनर्घ पद को प्राप्त करने के लिए यह अर्घ चढ़ा रहा हूँ। अर्घ हमें एकता का संदेश देता है, उसमें आठों द्रव्य एक हैं हम सब भी एक हो जाएँ तो बड़े-से-बड़ा कार्य भी शीघ्र हो जाता है।
- जयमाल - पञ्च परमेष्ठी, नवदेवताओं की अष्ट द्रव्य से पूजा के बाद विशेष भक्ति व श्रद्धा युक्त हो गुणों का स्मरण करना एवं गुणानुवाद करना, जयमाल है।
18. अष्ट द्रव्य हमें कैसे चढ़ाना चाहिए ?
जन्म, जरा, मृत्यु का नाश करने के लिए जल की तीन धारा छोड़ना चाहिए। चंदन चढ़ाते समय एक धारा छोड़ना चाहिए। अक्षत दोनों मुट्ठी बाँधकर अंगूठा अंदर रखकर चढ़ाना चाहिए। पुष्प दोनों हाथों की अंजुलि मिलाकर नीचे गिराते हुए छोड़ना चाहिए। नैवेद्य प्लेट में रखकर चढ़ाना चाहिए। दीप प्लेट में रखकर चढ़ाना चाहिए। धूप मध्यमा, अनामिका और अंगुष्ठ मिलाकर धूप घट में ही छोड़ना चाहिए। फल प्लेट में रखकर चढ़ाना चाहिए। अर्घ प्लेट में रखकर दोनों हाथ लगाकर चढ़ाना चाहिए।
19. द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में क्या बनाना चाहिए ?
थाली में ऊपर अर्धचंद्राकार बिन्दु सहित उसके नीचे तीन बिन्दु तथा उसके नीचे स्वस्तिक बनाना चाहिए। स्वस्तिक में प्रथम नीचे से ऊपर रेखा ऊध्र्वगति प्राप्ति की भावना से लोक नाड़ी या संसाररेखा मानकर खीचें। आड़ी रेखा जन्म-मरण की रेखा के रूप में खींचे। चारों मोड चार गतियों के एक --> प्रतीक हैं। अर्थात् लोक नाड़ी में जन्म मरण करके चारों गतियों में परिभ्रमण कर रहे है हैं। चार बिन्दु चारों अनुयोग के प्रतीक हैं, जिससे ज्ञान प्राप्त करके मोक्षमार्ग रत्नत्रय रूप में तीन बिन्दु बनाते हैं। इस रत्नत्रय धारण की भावना के साथ सिद्धशिला की : प्राप्ति की भावना से सिद्ध शिला एवं बिन्दु (बिन्दु सिद्ध भगवान् के प्रतीक) बनाते हैं।
20. विसर्जन क्या है ?
विश्वशान्ति की मंगल भावना के साथ शान्ति पाठ पढ़कर विसर्जन किया जाता है। विसर्जन का तात्पर्य पूजन के पश्चात् भगवान् का विसर्जन नहीं है। बल्कि पूजन में होने वाली त्रुटि (गलती) के प्रति क्षमायाचना करना है। पूजन समाप्ति पर विसर्जन पाठ पढ़ें-बिन जाने वा जानके --------- करहुँ राखहुँ मुझे देहु चरण की सेव, पढ़ना चाहिए। अन्त में निम्न पद पढ़कर ठोने में पुष्प क्षेपण करें। यहाँ पुष्पों की संख्या निश्चित नहीं हैं, जितना चडाना हो, चड़ा सकते है |
श्रद्धा से आराध्य पद, पूजे शक्ति प्रमाण।
पूजा विसर्जन मैं करूं, होय सतत कल्याण॥
नोट - संकल्पों के पुष्पों को निर्माल्य की थाली में क्षेपण कर दें, उन्हें अग्नि में नहीं जलाना चाहिए।
21. रात्रि में पूजन करना चाहिए या नहीं ?
जिस प्रकार रात्रिभोजन का निषेध है, उसी प्रकार रात्रि पूजन का भी निषेध है।
22. क्या देव रात्रि में पूजन करते हैं ?
स्वर्गों में दिन-रात का भेद नहीं है, किन्तु वे ही देव, जहाँ दिन-रात का भेद है, वहाँ पर रात्रि में जाकर पूजन नहीं करते हैं। दो सशत्त दृष्टान्त धवला पुस्तक 9 के हैं, जो इस प्रकार हैं।
- चौदह पूर्व का ज्ञान होते ही उन मुनिराज की पूजन एवं श्रुत की पूजन करने देव आते हैं। चौदह पूर्व का ज्ञान संध्या के समय हो गया और मुनिराज रात्रि में कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। किन्तु उस समय देव पूजन करने नहीं आए। दूसरे दिन प्रभात के समय में भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों द्वारा शंख, काहला और तूर्य के शब्द से व्याप्त महापूजा की गई। (धपु,9/13/71)
- तीर्थंकर महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि में हुआ था। किन्तु देव निर्वाण महोत्सव मनाने रात्रि में नहीं आए। सौधर्म इन्द्र ने अमावस्या के प्रात: आकर परिनिर्वाण पूजा की थी। (ध.पु., 9/44/125) जब भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्र में आकर देव भी रात्रि में पूजन नहीं करते तब श्रावक कैसे करेगा ? अत: रात्रि में पूजन नहीं करना चाहिए। इसके अलावा अनेक ग्रन्थों में रात्रिपूजन का निषेध किया गया है।
1. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार के श्लोक 210 में कहा है -
त्रिकालं-जिननाथान् ये, पूजयंति नरोत्तमाः।
लोकत्रयभवं शर्म, भुक्त्वा यांति परं पदम्॥
अर्थ - जो उत्तम पुरुष प्रात:, दोपहर एवं सायंकाल के समय भगवान् जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं।
वे तीनों लोकों में उत्पन्न होने वाले समस्त भोगों को भोगकर मोक्षपद में जा विराजमान होते हैं।
2. गुणभूषण श्रावकाचार के श्लोक 65 में इस प्रकार कहा है -
प्रातः पुनः शुचीभूय निर्माप्याप्ता आदि पूजनम |
सोत्साहस्तदहोरात्रं सद ध्याना ध्यय नेर्नयेत ||
अर्थ - पुन: प्रात:काल पवित्र होकर देव-शास्त्र-गुरु आदि का पूजन करके उत्साह के साथ उत्तम ध्यान और अध्ययन करते हुए उस दिन और रात्रि को व्यतीत करें। विशेष - यहाँ प्रात:काल पूजन करना कहा गया है और रात्रि को ध्यान एवं अध्ययन करने का विधान किया है।
3. धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार के श्लोक 73 में कहा है -
रात्री स्नान विवर्जन।
अर्थ - रात्रि में स्नान करने का त्याग करें। क्योंकि स्नान बिना पूजन संभव नहीं है, अतः रात्रि में पूजन का निषेध प्राप्त होता है।
4. लाटी संहिता के 5/186 श्लोक में कहा है-
(प्रसंग - तीनों संधि कालों अर्थात् प्रात:, दोपहर तथा सायंकाल भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करें परन्तु) आधी रात्रि के समय भगवान् अरिहंत देव की पूजा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि रात्रि में पूजा करने से जीवों की हिंसा अवश्य होती है, अतः रात्रि पूजा करने का निषेध है।
23. कितने गति के जीव पूजन करते हैं ?
तीन गति के जीव पूजन करते हैं - मनुष्यगति, देवगति एवं तिर्यच्चगति।
24. पूजा को वैयावृत्य और अतिथि संविभाग में किस आचार्य ने रखा है ?
पूजा भगवान् की सेवा है, जिसका लक्ष्य आत्मतत्व की प्राप्ति है। इसलिए आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने पूजा को वैयावृत्य में शामिल किया है। पूजा अतिथि का स्वागत है, इसलिए आचार्य श्री रविषेण स्वामी ने अतिथि संविभाग में रखा है।
25. किस ग्रन्थ में पूजा को सामायिक व्रत व ध्यान कहा है ?
पूजा गहरी तल्लीनता और आत्मोपलब्धि में कारण बनती है। इसलिए उपासकाध्ययन में इसे सामायिक व्रत में रखा है। पूजा ध्यान है, ऐसा भावसंग्रह में आचार्य देवसेनजी ने कहा है। इसलिए इसे पदस्थ ध्यान में शामिल किया है।
26. पूजा के छ: प्रकार कौन से हैं बताइए ?
- नाम पूजा - अरिहंतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं, वह नाम पूजा है।
- स्थापना पूजा - आकारवान पाषाण आदि में अरिहंत आदि के गुणों का आरोपण करके पूजा करना स्थापना पूजा है।
- द्रव्य पूजा - अरिहंतादि के उद्देश्य से जल, गंध, अक्षत आदि समर्पण करना द्रव्य पूजा है।
- क्षेत्र पूजा - जिनेन्द्र भगवान् के जन्म कल्याणक आदि पवित्र भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना क्षेत्र पूजा है।
- काल पूजा - तिर्थंकरो के कल्याणकों की तिथियों में भगवान् का अभिषेक, पूजा आदि करना काल पूजा है।
- भाव पूजा - मन से अरिहंतादि के गुणों का चिन्तन करना भाव पूजा है।
27. पूजन के लाभ बताइए?
आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि पूजन सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली और काम विकार को भस्म करने वाली तथा समस्त दुख को दूर करने वाली है।
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