सो यह लेखनी तुलना करने लगी सौरमण्डल और भूमण्डल की। ऊपर सौरमण्डल में अणु की शक्ति काम कर रही है, पौगलिक यन्त्र आवाज कर रहा है। जो मारक है विज्ञान का उत्पादक, जिसका जीवन ही तर्क-वितर्क से चलता है, अधर में लटका है। यही कारण है कि ऊपर वाले (देव, धरवान, ओले आदि) के पास दिमाग तो है किन्तु चरण-आचरण नहीं, लगता है उनके चरणों को दीमक खा गई है।
नीचे (मनुष्य, सामान्य व्यक्ति, भूकण आदि) भूमण्डल में मानव की संकल्प शक्ति विद्यमान है, मन्त्रोच्चारण चल रहा है जो जग से उस पार उतारने वाला है। आस्था से भरा जीवन है, आजीविका की चिन्ता नहीं इसे, धरती की शरण मिली है जिसे वह चलता भी है और कार्यवशात् ऊपर चढ़ता भी है किन्तु ऊपर वाले का तो दिमाग ही चढ़ सकता है जिससे उसका विनाश और पतन ही संभव है। यह सभी जानते हैं -
"प्रश्न- चिह्न ऊपर ही
लटका मिलता है सदा,
जबकि
पूर्ण-विराम नीचे।
प्रश्न का उत्तर नीचे ही मिलता है।
ऊपर कदापि नहीं......
उत्तर में विराम है, शान्ति अनन्त।
प्रश्न सदा आकुल रहता है।" (पृ. 249)
प्रश्न चिह्न (?) सदा ऊपर लटका हुआ ही मिलता है प्रश्न में सदा आकुलता, घबराहट मिलती है किन्तु पूर्ण विराम (।) नीचे ही मिलता है इसी प्रकार प्रश्न का उत्तर ऊपर नहीं नीचे ही मिलता है। उत्तर में हमेशा-हमेशा के लिए विश्राम, शाश्वत शान्ति मिलती है। सही उत्तर मिल जाने के पश्चात प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता, सागर में बूंद के समान उत्तर में प्रश्न विलीन हो, नष्ट हो जाता है सदा के लिए।