इधर बादल ने भूमि में रहने वाले, आकाश में उड़ने वाले पक्षियों का हा-हाकार सुना और राहु के मुख में छटपटाते सूर्य को देखा तो उसके मन को अत्यधिक संबल मिला और कई गुणा खून बढ़-सा गया उसका। अज्ञानता का ही यह परिणाम है कि दूसरे पक्ष की हार में अपना खून बढ़ जाता है और अपनी पराजय में दिल का दौरा पड़ता है। (लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए) अब बादलों की वर्षा और प्रशंसा, मन के उल्लास को रोकने वाला कौन है? प्रलयकारी वर्षा की पूरी-पूरी भूमिका बन चुकी है। इस प्रकार के माहौल को देखकर धरती सोचती है -
"जब हवा काम नहीं करती
तब दवा काम करती है,
और
जब दवा काम नहीं करती
तब दुआ काम करती है।
परन्तु,
जब दुआ भी काम नहीं करती
तब क्या रहा शेष?
कौन सहारा?
सो सुनो!.......
दृढ़ा धुवा संयमालिंगिता
यह जो चेतना है -
स्वयंभुवा काम करती है|" (पृ. 241)
जब हवा से स्वास्थ्य लाभ न हो तो दवा का प्रयोग किया जाता है जब दवा भी कार्यकारी न रहे तो प्रभु-प्रार्थना की जाती है, किन्तु जब प्रभु की प्रार्थना से भी काम ना बने तो फिर शेष क्या बचा, कौन सहारा? तो सुनो संयम से जुड़ी, दृढ़-स्थायी जो चेतना (आत्म शक्ति) है स्वयंभुवा (स्वयं से ही उत्पन्न) काम करती है।
यूँ सोचती हुई धरती माँ से विनयपूर्वक प्रार्थना करते हुए धरती के कण आज्ञा माँगते हुए कहते हैं कि-माँ के मान की रक्षा के लिए हम भी रामचन्द्रजी के वंश के ही अंश हैं, यद्यपि निम्न से निम्न, छोटे से छोटे व्यक्ति की भी हम प्रशंसा सेवा करते हैं, उन्हें सहारा देते हैं किन्तु अहंकार में डूबे, मानी वंश को नष्ट करने वाले भी हम हैं माँ। जिस श्रेष्ठ परम्परा में ऋषि, मुनि, अर्हन्त हुए हैं उनकी स्मृति नष्ट न हो जाए, अब वंश की रक्षा हेतु हमें कर्तव्य करने दो माँ। मात्र चर्चा पर चर्चा, जो श्रम का कारण है उसे रहने दो, अब मीठे-मीठे भाषणों की अपेक्षा कर्तव्य का नीरस भोजन ही स्वास्थ्य वर्धक और स्वादपूर्ण लग रहा है।
और वे कण जगहितकारी माँ धरती के चरणों में अपना माथा रखते, नमस्कार करते हैं। फिर सुनते हैं माँ के मुख से मंगलकारी आशीर्वाद -
"पाप-पाखण्ड पर प्रहार करो
प्रशस्त पुण्य स्वीकार करो!" (पृ. 243)
अधर्म, दुष्कर्म, छल-कपट, दिखावटी आडम्बर पर आघात/वार करो क्योंकि पाप को नष्ट करना ही प्रशंसनीय पुण्य को प्राप्त करना है। जाओ कर्तव्य करो मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।