कुम्भकार को प्रसन्नता से भरा हुआ देख कुम्भ ने कहा कि -
"परीषह - उपसर्ग के बिना कभी
स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि
न हुई, न होगी
त्रैकालिक सत्य है यह!" (पृ. २६६)
आज तक जिन्होंने ने भी स्वर्गीय सुख व मोक्ष सुख प्राप्त किया अथवा आगे करेंगे उन्होंने समता पूर्वक आगत' बाधाओं, संकटों को सहर्ष स्वीकार किया है। क्योंकि यह त्रैकालिक सत्य है कि परीषह-उपसर्गों को सहन किए बिना किसी को भी सच्चे सुख की प्राप्ति न हुई और न होगी।
कुम्भ की बात सुन कच्चे कुम्भ की परिपक्व दृढ़ आस्था पर कुम्भकार को आश्चर्य हुआ और वह कहता है - मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतने थोड़े समय में तुम्हारी आस्था इतनी दृढ़ बनेगी, समता-सहनशीलता का विकास हो पायेगा, क्योंकि कठिन साधना-पथ पर बड़े-बड़े साधक भी हार मान जाते हैं, किन्तु अब मुझे पूरा विश्वास हो चुका है कि आगे भी तुम्हें पूर्ण सफलता मिलेगी। फिर भी तुम्हारी यात्रा अभी प्रारम्भिक घाटियों से गुजर रही है आगे घाटियाँ ही घाटियाँ आने वाली हैं और सुनो आग की नदी भी पार करनी है तुम्हें, वह भी बिना किसी नौका अर्थात् सहारे के, स्वयं अपने बाहुबलों से तैरकर इसके बिना किनारे का मिलना संभव नहीं।
"इस पर कुम्भ कहता है कि-
जल और ज्वलनशील अनल में
अन्तर शेष रहता ही नहीं
साधक की अन्तर-दृष्टि में।" (पृ. २६७)
आत्म तत्त्व/निर्वाण' की उपलब्धि हेतु निरन्तर साधना करने वाले साधक की अन्तर दृष्टि में पानी और आग में अन्तर दिखता ही नहीं, उसके लिए सब समान हैं, जो मिले उसे स्वीकार । साधक की यात्रा निरन्तर एकत्व की ओर, परमात्मपने की ओर बढ़ती है बढ़नी ही चाहिए अन्यथा यात्रा नाम मात्र की मानी जावेगी। सही यात्रा की शुरुआत तो अभी हुई ही नहीं साधना की, ऐसा समझना चाहिए। कुम्भ की ये पक्तियाँ जोश भरी, प्रभावशाली साबित हुई हैं।