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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सोपान 10. माटी से निकलते भिन्न-भिन्न रस

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    शिल्पी की पिंडरयों से लिपटी माटी में से फूटता है वीररस, माटी की महासत्ता के अधरों से फिसलता हास्य रस, रसातल में उबलता रौद्र रस, भय-महाभय सभी शिल्पी के जीवन में अपनी अनुपयोगिता सुन चुप हो जाते हैं। रौद्र को रुग्ण और भय को भयभीत देख, विस्मय को भी विस्मय (आश्चर्य) होने लगा। इस स्थिति में श्रृंगार का मुख भी सूख गया। शिल्पी की प्रभु से प्रार्थना, भीतरी आयाम (चिन्तन) और श्रृंगार को सम्बोधन, सही श्रृंगार भीतर झांकी। श्रृंगार की कोमलता को अनित्यता का बोध, अर्थ-परमार्थ की समीचीन भूमिका। श्रृंगार ने विदेही बनने हेतु स्वर स्वीकारता की बात कही तब शिल्पी के साफे ने स्वर की नश्वरता बताते हुए उसे भी नकारा। चिन्तन में डूबा शिल्पी सही संगीत का स्वरूप विचारता है। स्वर की नश्वरता और सारहीनता सुन वीभत्स रस ने भी श्रृंगार को नकारा। श्रृंगार की नाक से बहते मल का स्वाद लेती रसना को देख कुपित हो प्रकृति माँ ने श्रृंगार के गालों पर चाटे लगाए सो माँ को अपने कर्तव्य की ओर इंगित किया। प्रकृति माँ की आँखों से रोती हुई करुणा द्वारा रसों को सम्बोधन जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का वृण सुखाओ, ऋण चुकाओ। पुनः गंभीर हो अपने अस्तित्व को मिटाने की प्रभु से प्रार्थना। यह सब सुन बिलखत लेखनी द्वरा विश्व के चलक चलकों की समीक्षा



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