Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 3. सम्बल : कम्बल का

       (0 reviews)

    प्रभु की दासता को छोड़ जिन्होंने इन्द्रियों की दासता स्वीकार की है, वे शरीर से बलशाली होते हुए भी बलहीन ही हैं। विश्व-विजेता सम्राट सिंकदर को यह बात समझ आ गई थी कि मैं दुनिया को तो जीतने निकला हूँ किन्तु मैंने अपने आपको नहीं जीता तो मेरा बल किस काम का और वह वापस अपने देश लौट गया था किन्तु कर्म की बलिहारी देश पहुँचने के पहले ही उसने देह छोड़ दिया।

     

    67.jpg

     

    शिल्पी कहता है- जिनका मनोबल कमजोर है, उन्हें ही कम्बल की जरूरत होती है। प्रभु की निकटता ही हमारे लिए सहारा, सम्बल है। हमें कम्बल की जरूरत नहीं केवल एक सूती चादर से ही हमारा काम चल जाता है। दूसरी बात यह है जिनकी प्रकृति उष्ण हो, भीतर कषायों का उद्वेग, संयम का अभाव हो जिनमें, वे ही ठण्ड से भयभीत एवं नम्रता से रहित होते हैं। मेरी प्रकृति और ऋतु की प्रकृति दोनों ही एक जैसी शीतल हैं, अत: अपनी जीवन-यात्रा यूँ ही सहज चलती जा रही है। प्रकृति की गोद में प्राकृतिक रूप में रहना ही हमें अच्छा लगता है, इसी में हमारा कल्याण है और यह भी समझना होगा कि –

     

    "पुरुष प्रकृति से

    यदि दूर होगा

    निश्चित ही वह

    विकृति का पूर होगा।" (पृ. 93)

     

    प्रकृति रूप (दिगम्बरत्व) को धारण कर, प्रकृति की गोद में रहने वाला श्रमण ही सच्चे सुख की अनुभूति करता हुआ आत्यन्तिक स्वास्थ्य (मोक्ष) को प्राप्त करता है, कर सकता है। जो प्रकृति से दूर हो, अनेक प्रकार के बाहरी परिग्रह" को अंगीकार करता है वह सदा विकारी भावों (शारीरिक-मानसिक दुख, कषायों की बहुलता) को प्राप्त होता रहता है।



    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...