सरिता-तट पर कुम्भकार आ चुका है और अब माटी को उठाकर अपने उपाश्रम तक ले जाना है अतः धरा से माटी को उठाने के पूर्व शिल्पी का उपक्रम (प्रारम्भ की तैयारी) होता है। माटी को कुदाली से खोदना है। इस कार्य को प्रारम्भ करने से पहले शिल्पी ने पञ्च परमेष्ठी का वाचक, बीजाक्षर (मंत्र का पहला अक्षर) मंत्र स्वरूप ओकार (ॐ) को नमन किया तथा नमन क्रिया के पूर्व ही अहंकार, अभिमान को छोड़ दिया। नमन के साथ ही स्वयं के आत्म परिणामों की निर्मलता बनी रहे, अत:
"कर्तृत्व-बुद्धि से
मुड़ गया है वह
और
कर्तव्य-बुद्धि से
जुड़ गया है वह।" (पृ. 28)
स्वयं के कर्तापन का त्याग कर, कर्तव्य भावों को स्वीकार करता है वह शिल्पी। सज्जन पुरुषों, आत्म हितार्थी भव्य आर्यों के लिए यह मुड़न-जुड़न की क्रिया आवश्यक ही नहीं अनिवार्य ही है, जब तक कार्य सम्पन्न न हो जाए। क्योंकि संसार में दुख का मूल कारण कर्तापन (मैं अन्य का अच्छा-बुरा कर अरिहत, सिद्ध-अशरीरी, आचार्य, उपाध्याय, साधु-मुनि। सभी के प्रथम अक्षर के संयोग से अ+अ+आ+उ+म=ओम् (ॐ) सकता हूँ/करता हूँ यह परिणाम) ही बनता है। इसी कारण व्यक्ति पापों को बाँधता हुआ दुखी होता है। इसीलिए कर्तापन का त्याग कर कर्तव्य (करने योग्य था सो किया) बुद्धि से कार्य करें एवं हर्ष-विषाद से बचें।
शिल्पी माटी को खोदना प्रारम्भ करता है कि यह जीवन जो बिना रुके बिना थके आगे बढ़ता ही जा रहा है, इस दृश्य को देख रहा है। क्रूर कुदाली से माटी खोदी जा रही है, स्वयं ही शंका-प्रतिशंका करता है कि यह सामने कौन-सा कर्तव्य किया जा रहा है? समझ नहीं आ रहा। कौन इसका निर्देशक है, किस उद्देश्य से यह किया जा रहा है। माटी के माथे पर मार पड़ रही है, माटी की मृदुता में कुदाली की कठोरता लीन हुई जा रही है। क्या माटी की दया ने ही कुदाली की अदया बुलाई है? क्या अदया (क्रूरता) और दया के बीच घनी मित्रता है? यदि नहीं तो माटी के मुख से रोने की आवाज और आँखों से आँसू क्यों नहीं आ रहे? इस क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप मुख पर थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं। कहीं यह राजसत्ता की भाँति कुछ रहस्य तो नहीं कि भय या लोभादि के कारण दुख व्यक्त ना किया जा रहा हो। लगता है कुछ विशेष परिस्थितियों और लोगों को छोड़कर बाहरी क्रियाओं से भीतर की परिणति, भावों का सही-सही अंदाज नहीं लगाया जा सकता, फिर ऐसी स्थिति में गलत निर्णय देना भी उचित नहीं है।
जब कोई भव्यात्मा सच्चे सुख के साधन रूप मोक्षमार्ग पर कदम बढ़ाता है, तब उसे केशलोंच करना, एक बार भोजन करना, पैदल चलना, गर्मी, सर्दी आदि के कष्टों को सहन करना पड़ता है, समीचीन आस्था और वैराग्य होने पर वह समता पूर्वक सब कुछ सहता चला जाता है। इधर सामान्य व्यक्ति (मार्ग से अपरिचित ) यह सब देखकर आश्चर्यचकित होता हुआ विचार करता है कि यह कैसा सुख प्राप्ति का मार्ग है, यहाँ तो कष्ट ही कष्ट दिख रहे हैं।