कंकरों की प्रार्थना सुनकर माटी की मुस्कान कुछ कहती है –
"संयम की राह चलो
राही बनना ही तो
हीरा बनना है,
स्वयं राही शब्द ही
विलोम-रूप से कह रहा है
रा.......ही ही.......रा "(पृ. 56)
पाँच पाप को त्यागकर संयम पथ पर चलो, संयमी का जीवन हीरे के समान बहुमूल्य बन जाता है। रत्नत्रय अंगीकार कर, शिवपथ पर गमन करने वाला राही ही तो हीरा बनता है तथा तन और मन को त्याग तपस्या की अग्नि में तपा-तपाकर, जला-जलाकर, राख करना होगा। बहुत पुरुषार्थ करना होगा तब कहीं यह चेतन आत्मा विशुद्ध बनेगा।
"खरा शब्द भी स्वयं
विलोम रूप से कह रहा है-
राख बने बिना
खरा-दर्शन कहाँ?
रा....ख ख....रा।" (पृ. 57)
क्योंकि स्वयं खरा शब्द पलटकर कह रहा है तन-मन को राख बनाए बिना खरा यानि विशुद्ध चेतना का दर्शन संभव नहीं। इतना कहकर समुद्र के समान उदार माटी की मूरत हाथ उठाकर आशीष प्रदान करती है कि तुम्हारा भी जीवन सफल बनें शुभाशीष।