माटी की इस उदासी का कारण यह है कि वह जान रही है कि इस छिलन और जलन में निमित्त कारण तो मैं ही हूँ, पश्चाताप की आग में झुलस रही है। तभी माटी के भीतर (पलने वाली, वृद्धि को प्राप्त हुई) अनुकम्पा रोने लगी, उसकी आँखों से निकलने वाले आँसू और देह के पसीने ने बाहर आ पूरी बोरी को गीला कर दिया, जिससे पूरी बोरी मुलायम हो गई। इधर दूसरी ओर गदहे का अन्त:करण भी दया से भीगा हुआ बाहर आ भावना भाता हुआ प्रभु से प्रार्थना करता है कि मेरा गदहा नाम सार्थक ही प्रभो! और में सबके रोगों को नष्ट करने वाला बनूँ इसके सिवा मेरी और कोई इच्छा नहीं है। इधर अनहोनी घटना घटती है माटी को अनुभव हुआ कि उसके छिद्र सहित गाल, घावहीन हो धुल गये। यह सब भावना का फल है। गदहे और माटी की अनुकम्पा यहाँ एक जैसी लग रही है कम-ज्यादा नहीं, एक साथ उत्पन्न हुई दो बहनों-सी, छोटी बड़ी नहीं। “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” यह सूत्र यहाँ सार्थक हुआ। सब कुछ यहाँ जीवन्त है जीवन! चिरंजीवन!! संजीवन!!!
इतना होने के बाद भी माटी की अनुकम्पा अपनी लघुता व्यक्त करती हुई श्वांस को शमन कर अपने भार को हल्का बनाती हुई प्रतीक्षारत उपाश्रम की ओर ही देख रही है ऐसा लगता है मानो किसी राजा की रानी चाँदी की पालकी में बैठी यात्रा कर रही है किन्तु ऊबी-सी, लज्जा को धारण करती रनवास की ओर देख रही है।
इन्हीं प्रसंगों के बीच दया-भावों पर भी प्रकाश डाला गया। अनुकम्पा और दया के विषय में यह कहना उचित होगा कि जिसकी आँखें करुणामयी हृदय को धारण करने वाली हैं, उन आँखों में कोई चेतन हो या अचेतन, दयालु हो अथवा क्रूर सभी के प्रति दिन-रात, प्रतिसमय दया का भाव पैदा होता ही है।और
"दया का होना ही
जीव-विज्ञान का
सम्यक् परिचय है।" (पृ. 37)
मन में प्राणि मात्र के प्रति दया के परिणाम होना ही जीव सम्बन्धी सही जानकारी का परिचय, उपयोग है, किन्तु पञ्चेन्द्रिय के विषय-भोगों में लिप्त रहने वाला स्वार्थी, सदा विषय-कषायों, भोगों की पूर्ति में ही लगा रहता है उसके हृदय में पर के प्रति दया कहाँ?