संयम स्वर्ण महोत्सव Posted December 8, 2017 Report Share Posted December 8, 2017 संस्कृत भाषा में गो शब्द के अर्थ माता, गाय और पृथ्वी है। - पहला अर्थ गाय, दूसरा पृथ्वी, तीसरा माता। और मातृ शब्द का पहला अर्थ है माँ, फिर गाय और फिर पृथ्वी अर्थात् मातृ और गो शब्द, दोनों ही, गाय और पृथ्वी के समानार्थी शब्द है। पाणिनि के व्याकरण में 'सुसंपन्नोऽयं देशो भाति"-यह देश सुसंपन्न दिखता है कैसे? 'गोमानथ अयम्' अर्थात् यहां बहुत गायें दीखती हैं, इसलिये यह देश संपन्न दिखता है। व्याकरण में 'मान् प्रत्यय समझाने के लिए यह वाक्य आता है। 'मान् प्रत्यय जहां प्रचुरता होती है वहाँ उपयोग होता है। बाहुल्य प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होता है। गोमान् यानी एक-दो गाये नहीं, लाखो गाये जहां है वह। यहा लाखों गाये है इसलिये यह देश सुसंपन्न दिखता है। पाणिनि ने व्याकरण समझाने के लिए यह इस्तेमाल किया और आज हिंदुस्तान में लाखों गाये कटती है। ‘‘गां मा हिंसीरदिति विराजम्" – यजुर्वेद (१३-४२) अर्थात् - तेजस्वी अदिति (अबध्य गाय है - उसे मत मारो. ‘‘घृतं दुहानामदितिं जनाय मा हिंसीः" – यजुर्वेद (१३-४९) अर्थात् - गो अवध्य है और वह लोगों को घृत देती है, इसलिये गाय की हिंसा मत करो। ‘‘गोस्तु मात्रा न विद्यते’’ - यजुर्वेद (३३-४८) अर्थात् - गाय की तलुना किसी से नहीं हो सकती। वह अतुलनीय, अनुपम एवं सर्वोत्तम हैं। 'सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदन:' - उपनिषद शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंगी है, जैसे परिषद, उपनिषद यें कहा है? गाय है। सारी उपनिषद गाये है। उपनिषद में से, उस गाय में से दोहने कर लिया कृष्णजी। ‘‘न नः स समितिं गच्छेद्यश्च नो निर्वपेत् कृषिम्।" (उद्योग पर्व २६-३१) जो किसान के व्यवसाय को नहीं जानते, वे उसका सचा हितअहित भी नहीं पहचान सकते। अतएव भारतीय संस्कृति में कृषि-महिमा और गो-महिमा दोनो पर्यायवाची है। कृषि से गो-रक्षा और गो-रक्षा से कृषि का संवर्धन स्वयंसिद्ध हैं। गौ सब प्रकार की अर्थ-सिद्धियों का द्वार है, इस तत्व को भारतीय संस्कृति में गों के अनेक प्रतीकों से पलवित किया गया है। उदाहरण के लिये 'गी' शब्द के कई अर्थ हैं। भूमि गो है, विद्या और वाणी गो है, शरीर में इन्द्रियाँ गी है और विराट विश्व में सूर्य और चन्द्र की रश्मियाँ गौ हैं। विश्व-रचना में प्रजापति की जो आद्य-शक्ति है वह गी हैं। इस प्रकार गों के प्रतीक द्वाराजीवन की बहुमुखी-सम्यकता को प्रकट किया गया। जंगल में मेघो के जल से जो तृण उत्पन्न होते है, वे जल का ही रूप है। उस नीररूपी घास को खाकर गों सायंकाल जब घर लौटती है, तो उसके थन दूध से भर जाते है। नीर का क्षीर में परिवर्तन, यही गौ की दिव्य महिमा है। पर ऐसा तभी होता है, जब गर्भधारण करके वह बच्चे को जन्म देती है। उसके हृदय में जो माता का स्नेह उमडता है वही जल में घुलकर उसे दूध बना देता है। सचमुच माता के हृदय की यह रासायनिक शक्ति प्रकृति का अंतरंग रहस्य है। मानव की माता में अथवा संसार की सब माताओं के हृदय में यही स्नेहतत्व भरा होता हैं। दोनों मे ही उत्पादन या नये-नये प्रजनन की अपरिमित-क्षमता पायी जाती है। गों की वंश वृद्धि अत्यंत विपुल होती हैं। प्राणिनां रक्षणं धर्मः अधर्मः प्राणिनां वधः। तस्माद्धर्म सुविज्ञाय, कुर्वन्तु प्राणरक्षणाम्। प्राणियों के प्राण की रक्षा करना (मरते को बचाना) धर्म है, और प्राणियों के प्राणों का विनाश करणा (हिंसा करना) अधर्म है, पाप है। इस प्रकार धर्म और अधर्म को जानकर प्रत्येक प्राणी के प्राणों की रक्षा करें। एकतः कांचनो मेरूः कृत्स्ना चैव वसुन्धरा। जीवस्य जीवितं चैवन तारतुल्य युधिष्ठिर। भीष्म पितामह युधिष्ठिर संबोधित कर रहे है, एक और तो मेरू पर्वत के बरोबर सोना और समस्त पृथ्वी दान के लिए रखी जावे और दूसरी और एक जीव का जीवन, इन दोनों की तुलना नही हो सकती। पर्वत बराबर सोना और समस्त पृथ्वी का दान इतना महत्वशाली नही है, जितना किसी के प्राणों की रक्षा। देवी पुराण – देवी भत लोगों से कहती है कि प्राणियों कि हिंसा करनेसे बकरे वगेरे की बली देने से मेरी पूजा होती है। ऐसा मानकर जो लोग हिंसा करते है, मुझे बली चढ़ाते है, वे लोग मुझे भी बुरी बनाते है। अत: इस दोष की वजह से उन्हें नरक जाना पडेगा। कुरआने हकीम कुरआने हकीम की सुरत अलहज ३२:२२ में स्पष्ट किया गया है की ‘ना तो पशुओं का मांस और ना ही उनका खून ईश्वर तक पहुंचता है। ईश्वर तक पहुंचता है तो सिर्फ मनुष्य का त्याग और रहम माने दया।” 1 Link to comment Share on other sites More sharing options...
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