भगवान की मुद्रा प्रसन्न है !
चंद्रगिरी डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की उपवास करते समय मन आकुल – व्याकुल नहीं होना तप है ! भूख – प्यास की वेदना से आकुल – व्याकुल नहीं होना चाहिए ! रस को त्यागने से शरीर में उत्पन्न हुए संताप को सहना तप है ! मनुष्यों से शून्य स्थान (जंगल आदि) में निवास करते हुए पिशाच, सर्प , मृग, सिह, आदि को देखने से उत्पन्न हुए भय को रोकना तथा परिषय को जीतना चाहिए !
प्रायश्चित करने से उत्पन्न हुए श्रम से मन में संक्लेश न करना “यह जगत जीवों से भरा है बचाना शक्य नहीं है फिर भी जानबूझकर हिंसा से बचना ही धर्म है ! प्रसन्न मुद्रा भगवान् की मुद्रा मानी जाती है ! मन तो भोजन की ओर जाता है लेकिन संकल्प है की लेना नहीं है, यह महत्वपूर्ण है ! “समयसार” का उपयोग तो करो कब करोगे ! केवल पेट्रोल डालना है भाडा देना है शरीर को और चलाना है, उसके दास नहीं बनना है ! भगवान के पुण्य से जन्म के समय सभी वस्तुएं दिव्य आती हैं भोजन, वस्त्र आदि ! अपनी शक्ति का सदुपयोग करो यह हमें अच्छा लगता है
“सब जग देखो छान, छान नहीं पाये तो पहचान नहीं पायें” ! आत्मा को श्रद्धा की आँखों से देखा जाता है ! आज के वैज्ञानिक और डाक्टर भूत-प्रेत आदि नहीं मानते हैं क्योंकि वह M.R.I., C.T. स्केन, एक्सरे आदि मशीन में नहीं आता है ! आज भले डाक्टर M.B.B.S., M.D. हो जाएँ फिर भी नहीं जान पाते हैं भूतों को !
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