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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

भूमिका


Vidyasagar.Guru

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'युगद्रष्टा' वर्तमान युग के महान् जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के यशस्वी शिष्य श्रमण श्री प्रणम्यसागरजी महाराज की एक अनुपम कृति है।

 

यह कृति पन्द्रह शीर्षकों में विभाजित है। इसके नौ शीर्षकों के अन्तर्गत भगवान् ऋषभदेव के पूर्व भवों का वर्णन है, शेष शीर्षकों के अन्तर्गत आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का जीवन चरित्र है!

 

जीवन और मरण निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है! जन्म-मरण के इस परिभ्रमण को विकारहीन होकर एक मात्र मुक्त होकर ही तोड़ा जा सकता है ! मुक्ति का मार्ग पुरुषार्थ मूलक है! भगवान् ऋषभदेव का जन्म महाराज नाभिराज और मरुदेवी के गर्भ से उस काल में हुआ जब कल्पवृक्षों के आशीष थकने लगे थे! समय कर्मभूमि की ओर यात्रा कर रहा था। उस काल में अयोध्या पति ऋषभदेव ने असि, मषि और कृषि का उपदेश देकर मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाई।

 

इस सृष्टि का न आदि है न अंत। आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है मात्र पर्याय ही बदलती रहती है। ऋषभदेव भगवान् की पूर्व पर्याय का वर्णन इस कृति में उपलब्ध है। ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर हैं। जैनधर्म अत्यन्त प्राचीनधर्म है। ऋग्वेद की ऋचायें भगवान् ऋषभदेव का गुणगान करती हैं। श्रीमद् भागवत में ऋषभदेव भगवान् का सम्पूर्ण जीवन चरित्र उपलब्ध है। मेजर जे-सी फरलांग के अनुसार – “जैनधर्म के आरम्भ को जान पाना असंभव है। इस तरह यह भारत का सबसे पुराना धर्म मालूम होता है।" यशस्वी लेखक ने जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर पर युगद्रष्टा शीर्षक से उपन्यास लिखकर समाज पर उपकार किया है।

 

आज के भौतिकवादी युग में लोगों के पास इतना समय कहाँ; जो आदिपुराण जैसे बृहत् काय ग्रन्थों को पढ़े और जैनधर्म के रहस्यों को समझें। इस दृष्टि से प्रांजल भाषा में लिखा हुआ यह उपन्यास उन उद्देश्यों की पूर्ति कर आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का महान् जीवन चरित्र से परिचय कराता हैं |

 

युगद्रष्टा कृति में तिलोत्तमा-नीलाञ्जना नामक प्रसंग भी दिया है! जो कि ऋषभदेव के वैराग्य का कारण बना। एक दिन अयोध्या पति सम्राट ऋषभदेव राज्य सभा में नीलाञ्जना का नृत्य देख रहे थे। सहसा नीलाञ्जना के आयु के पुष्प से जीवन रूपी सुरभि विलोप हो गई। इन्द्र ने तत्काल कृत्रिम नीलाञ्जना का नृत्य प्रारम्भ करा दिया किन्तु सम्राट ऋषभदेव की प्रज्ञा भरी

आँखों ने देख लिया कि नीलाञ्जना का आयु कर्म समाप्त हो चुका है। मृत्यु निश्चित है, किन्तु आयु कर्म कब समाप्त होगा यह अज्ञात है। उनके हृदय में वैराग्य के छिपे हुए अंकुर उगे और उन्होंने निश्चित किया कि मेरा जीवन भी व्यर्थ व्यतीत हो रहा है! इस घटना के पश्चात् स्वयंबोधित हुए और अभिनिष्क्रमण कर गए! और दीर्घ तपस्या के पश्चात् मुक्ति का वरण किया।

 

आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र, पूर्व भवों सहित 'युगद्रष्टा' उपन्यास में है। इस उपन्यास की भाषा प्रांजल, प्रभावकारी और सौम्य विषय वस्तु के सर्वथा अनुकूल है।

 

इस उपन्यास में भगवान् ऋषभदेव के यशस्वी पुत्र भरत और बाहुबली का संदर्भ न होना आश्चर्य उत्पन्न करता है। उपन्यास में यदि भरत और बाहुबली पात्र होते तो उपन्यास की रोचकता में श्रीवृद्धि होती। बहुत सम्भव है इस प्रसंग को इसलिए नहीं लिखा है कि इस विषय में मुनि श्री स्वतंत्र कृति लिखने की भावना रखते हों।

 

प्रस्तुत उपन्यास युगद्रष्टा मुनिश्री प्रणम्यसागरजी महाराज की प्रज्ञा का परिचय है। मानव जीवन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया का साक्षी है। राग रहित होना ही वीतरागता का प्रमाण है और वही परमात्म तत्त्व है। वर्तमान युग में जैन साहित्य के आधुनिकीकरण की अत्यन्त आवश्यकता है, यह उपन्यास इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक सिद्ध होगा।

 

श्रमणश्री मेरे आराध्य हैं । विनम्र प्रणाम सहित यह भूमिका प्रस्तुत है।

 

मिश्रीलाल जैन

एडवोकेट

पुराना पोस्ट आफिस गली गुना (म.प्र.) 473001

2 Comments


Recommended Comments

परम पूज्य मुनि श्री के चरणो में कोटि कोटि नमन कोटि कोटि वंदन

मुझे बहुत अच्छा लग रहा है की हमें  श्री आदिनाथ भगवान के बारे में जानने को मिलेगा

Edited by मोनिका जैन टड़ा
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