3. ललित ललिताङ्ग
और एक नव संसार मिला, संसार में नवमा संसार।
ललित मनोहर अंगों वाला एक पुण्यमूर्ति-सा दैदीप्यमान ललिताङ्ग देव अपने शरीर की प्रभा से सभी देव-देवियों के रूप को तिरस्कृत करता हुआ उपपाद शय्या से युवा हंस के समान उठ खड़ा हुआ और आश्चर्य में पड़ गया कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? यह मनोहर स्थान कौन-सा है, क्षण भर में अवधिज्ञान प्रकट हो गया सब वृत्तान्त दर्पण की भाँति ज्ञात हो गया। अहो! यह हमारे तप का फल है, कहीं मेरी जय जयकार हो रही है तो कहीं अप्सरायें अपने हास्य-विलास से मुझे बुला रही हैं, कोई नृत्यगान से मेरा मन लुभा रही हैं तो कोई अनेक मंगल सामग्री ला रही हैं। आइये देव! आइये पहले मंगल स्नान कीजिए फिर अपनी देव सेना को देखिए पश्चात् नाट्यशाला चलिए, अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना कीजिए, पूजन दर्शन कीजिए और जहाँ तहाँ मनोहर क्रीड़ा स्थलों पर इन देवियों के साथ चिरकाल तक रमण कीजिए। त्यागतपस्या का फल मिलता है पर पहले कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है, बाद में फल में अनासक्त होना पड़ता है, नहीं तो, जो मिला है उससे आगे नहीं बढ़ सकता।
यही तो रोना है कि थोड़ा-सा धर्म करके मरा और पुण्य का फल इतना मिला कि जो राग का संस्कार पिछले भव में कम हुआ इस भव में उससे भी अधिक राग-वैभव-विलासता। मुक्ति मिले तो-कैसे मिले ? सचमुच यह पुण्य भी कभी-कभी संसार का कारण बन जाता है, जब दृष्टि समीचीनता से रहित होती है। घबड़ाओ मत! पुरुष अपने विगत पुरुषार्थ से प्राप्त इतने से फल से संतुष्ट नहीं होता, समीचीन मार्ग की ओर बढ़ना है तो राग की आग को धीरे-धीरे बुझाना होगा। ललिताङ्ग की आयु कुछ पल्य की शेष रह गयी है कि उसके पुण्य से उसे फिर एक ऐसी देवी मिली जो अन्त समय तक उसकी पत्नी बनी रही। सभी से विशिष्ट वह स्वयंप्रभा भी आम की नयी कली-सी ललिताङ्ग को भ्रमर-सा सुख देती थी। परस्पर में आसक्ति भाव इतना बढ़ गया कि ललिताङ्ग की आयु एक बूंद गिरने सी चली गयी। कुछ समय बचा कि देव के विशाल वक्षःस्थल पर पड़ी माला म्लान हो गई, आभूषण कान्तिहीन हो गए, कल्पवृक्ष काँपने लगे। यह सब देखकर वह दु:खी हो गया उसके विषाद को दूर करने के लिए सामानिक जाति के देवों ने उसे समझाया।
धैर्य मिला, प्रतिबोध को प्राप्त हुआ, विगत में किया पुरुषार्थ सामने आया और तृण की अग्नि के समान वह राग प्रज्वलित होकर अब शान्त हो गया। पन्द्रह दिन तक लगातार लोक के जिन चैत्यालयों की पूजा करता रहा तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओं की पूजा करता हुआ वह आयु के अन्त में वहीं सावधान चित्त होकर बैठ गया। देखो! समीचीन पुरुषार्थ का संस्कार। पूर्व भव में समाधिमरण किया था, प्रायोपगमन संन्यास लिया था, जिसमें स्वकृत और परकृत दोनों प्रकार का उपचार नहीं होता वही सावधानी आज याद आई, वही तपस्या आज एकाग्रता लाई और चैत्यवृक्ष के नीचे बैठा हुआ वह निःशंक हो दोनों हाथ जोड़कर उच्चस्वर से नमस्कार मंत्र का उच्चारण करता हुआ अदृश्यता को प्राप्त हो गया। धन्य है वह देव जिसने अपने कल्याण की चिन्ता में देव पर्याय में भी पुरुषार्थ किया। इस जिनेन्द्र वन्दना से उपार्जित पुण्य का फल क्या मिलेगा? यह तो मालूम होगा पर अभी वह संयोग ललिताङ्ग को स्वयंप्रभा का वियोग हो जाने पर दुःख कारी हो गया। हालांकि देवियाँ तो बहुत सी थी पर स्वयंप्रभा में ललिताङ्ग का मन अधिक रमता था। स्वयंप्रभा भी अपनी राग काष्ठ से बढ़ी हुई, काम की कण्डे जैसी सुलगती अग्नि, मात्र ललिताङ्ग से ही शान्त करती थी। ललिताङ्गका वियोग, बिना वृक्ष के ग्रीष्म ऋतु के समान संताप देता था। चकवा के वियोग में चकवी की तरह वह खेद-खिन्न होती हुई सदा शोकाकुल हो, विरह की वेदना में गुमशुम सी बैठी रहती। उसकी इस व्यथा को देख एक देव ने उसका शोक दूरकर उसको धैर्य बंधाया। उस देवी की आयु छह मास शेष थी। वह भी अपने पति का अनुसरण करती हुई सदा जिन-पूजा में संलग्न रहती। तदनन्तर सौमनस-वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के जिनमन्दिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पञ्चपरमेष्ठियों का स्मरण करते हुए, समाधिपूर्वक प्राणत्याग कर स्वर्ग से च्युत हो गयी। मानो कोई तारा टूट कर विलीन हो गया गगन में।
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