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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

पहचान, निष्ठा, आचरण और उपलब्धि


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पहचान, निष्ठा, आचरण और उपलब्धि

बात सत्य की है। उस सत्य की जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। सत्य अकथ्य है पर अलभ्य नहीं। सच के बारे में कहा नहीं जा सकता पर अनुभव जरूर किया जा सकता है। भारतीय परम्परा में सत्य को परम सत्ता कहा है। सत्य की परमेश्वर कहा है। हमारे तीर्थकर भगवन्तों ने भी कहा है कि सत्य ही परमेश्वर है, सत्य ही भगवान है। हर व्यक्ति के भीतर वह सत्य है। उस सत्य के विषय में क्या कहा जाए। सत्य को पहचानने की जरूरत है। जो मनुष्य सत्य को पहचानता है वही सत्य को प्राप्त कर पाता है। सत्य को पहचानें, सत्य पर निष्ठावान बनें और फिर सत्य का आचरण करें। तब हम परम सत्य को उपलब्ध कर सकेंगे। आज मैं आपसे सत्य की कोई बात नहीं करूंगा क्योंकि उसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकेगा। जो कुछ भी बात है वह सत्याचरण की है। सत्य की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण सत्याचरण है। हमारे कदम सत्याचरण की ओर बढ़ने चाहिए। वस्तुत: जिसके हृदय में सत्य के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा होती है वही सत्याचरणी होता है। जो सत्याचरणी होता है वही अपने जीवन का वास्तविक अर्थ में कल्याण कर सकता है। जीवन में सत्य का आचरण सत्य की निष्ठा के बाद ही संभव है।

 

सोना नहीं सोने जैसी चमक

बंधुओं! आज की चार बातें हैं- नम्बर 1- सत्य की पहचान। नम्बर 2– सत्य की निष्ठा, सत्यनिष्ठा। नम्बर 3– सत्य आचरण और नम्बर 4- सत्य की उपलब्धि। सबसे पहले जीवन में सच क्या है इसे पहचानो। सच की पहचान क्या है? आपको पता है सच क्या है?

 

मैं आपसे सवाल करता हूँ- दो और दो कितने होते हैं? 2 और 2 चार ये सच है, और हाँ बाईस 22 ये भी सच है। 2 और 2 चार, 2 और 2, 22 और 2 और 2 जीरो। क्या हो गया? 2 माइनस 2 बराबर जीरो हुआ न? फिर सच क्या है? सच को पहचानना बहुत कठिन है। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि जो सामने दिखता है वह उसे ही सच मानता है। पर सन्त कहते है जो दिखता है वह सच नहीं वह तो सच का प्रतिबिम्ब मात्र है, असली सच तो अंदर है जो अदृश्य बना हुआ है। उसे पहचानो। तुम्हारी दृष्टि में सच क्या है? ये रूप-रंग, ये धन-वैभव, ये भोग-विलासता के साधन क्या यही सच है? यदि ये सच है, तुम्हें यही सच दिखता है तो समझना अभी तुमने सच को पहचाना नहीं। ये सब तो सपना है। सपने को सच मानने वाला अज्ञानी है। पर मुश्किल ये है कि जब तक मनुष्य नींद में रहता है तब तक उसे सपना ही सच दिखता है। नींद खुलने पर पता लगता है, अरे! ये तो सपना था, व्यर्थ का सपना था। नींद खुलने पर तुम्हें पता लगता है कि ये सपना था। सच तो अब जो सामने दिख रहा है; वह है। अभी तक मैं जिस दुनिया में था वह सब कुछ सपना था।

 

बंधुओ! एक सपना आप नींद में देखते हैं जो घण्टे-आधघण्टे का होता है और एक सपना वह है जो सारी जिंदगी देखते हैं। जीवन पर्यन्त चलने वाला सपना तब टूटेगा जब तुम्हारे भीतर की नींद खुलेगी। नींद टूटेगी, तुम्हारी अंतर-आत्मा जागेगी तब तुम्हें सच की पहचान होगी। जो दिख रहा है वह सच नहीं है। अच्छा बताओ बाप बड़ा कि बेटा? कौन बड़ा है? बाप; पहले बाप पैदा हुआ बाद में बेटा। बेटा होने के पहले वह आदमी बाप था क्या? बोलो गणेश जी! कौन बड़ा? बेटे ने बाप को जन्म दिया कि बाप ने बेटे को? सोच कर बोलना। बेटे ने बाप को जन्म दिया और बाप ने बेटे को जन्म दिया इसलिए जो कुछ भी समझना सापेक्ष ढंग से समझना। बेटा नहीं होता तो बाप नहीं होता और बाप नहीं होता तो बेटा नहीं होता; ये जीवन की सच्चाई है।

 

जीवन की सच्चाई को समझो। सच को जानने का मतलब है जीवन के यथार्थ को पहचानना। जब तक तुम्हारे अंतरंग में सत्य का ज्ञान नहीं होगा तब तक कल्याण नहीं हो सकता। सत्य क्या है इसको पहचानो। जो दिख रहा है वह सच नहीं। तुम कहते हो बाप बड़ा है झूठ, तुम कहते हो 2 और 2 चार झूठ, तुम्हें जो दिख रहा है सब झूठ। ये सारा संसार झूठ का पुलिन्दा है। सब झूठ है। महाराज! बात समझ में नहीं आ रही। अभी आ जाएगी। थोड़ी देर में आएगी। सच इतनी जल्दी समझ में आ जाए तो बात ही क्या है। अभी तक तो कल्याण हो गया होता। समझी जो दिख रहा है वह सच नहीं; जो देख रहा है वह सच है। कौन देख रहा है? आँखे। नहीं.आत्मा देख रहा है। बस उसे पहचान ली; सत्य का ज्ञान हो गया। सत्य का ज्ञान हो गया तो कल्याण हो गया।

 

सम्यग्दर्शन : यथार्थ की अनुभूति

इस सत्य के ज्ञान का नाम ही सम्यग्दर्शन है। अभी तुम्हें क्या सच लगता है? ईमानदारी से बोलो। जो तुमने जोड़ रखा है वह सच लगता है, तुम्हें पैसा सच दिखता है, पत्नी सच दिखती है, पुत्र सच दिखता है, परिवार सच दिखता है। यही सब सच दिखता है। पर परमात्मा का सच कभी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ा। पैसा, पत्नी, पुत्र, परिवार और पाप ये तुम्हें सच दिखते हैं जो संसार में लुभाने वाले और भ्रमाने वाले हैं। तुम्हारे भीतर के परमात्मा का तुम्हें बोध ही नहीं, भान ही नहीं। जो तुम्हें संसार से पार लगाने वाला है उसे तो पहचानी। असत्य को सत्य मानना अज्ञान है। ये सब सच इसलिए नहीं हैं क्योंकि कोई भी टिकाऊ नहीं है। सच वह है जो शाश्वत हो, सच वह है जो स्थिर हो, सच वह है जो स्थायी हो। तुम्हारे पास ऐसा क्या है जिसे स्थायी माना जा सके, बोलो है कुछ भी? कोई एक वस्तु बता दो जो तुम्हारे पास हो और तुम गारंटी पूर्वक कह सको कि ये मेरी अनन्यनिधि है, शाश्वत है, कभी भी न छूटने वाली है। है एक भी चीज? तुमने जो भी जोड़ा है वह सब भंगुर है। बस जो तुम हो वह स्थायी हो। पर मुश्किल ये है कि भंगुर के व्यामोह में रात-दिन पागल होते हो और शाश्वत की तुम्हे पहचान ही नहीं। जब तक अपने भीतर के शाश्वत तत्व को नहीं पहचान लेते तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं होगा। सत्य की बात करते हो, सत्य केवल बोलने तक सीमित नहीं है। जिस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा कि मेरे जीवन का सत्य क्या है, असत्य का व्यामोह छूट जाएगा। असत्य का व्यामोह छूटते ही तुम्हारे आचार, विचार और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाएगा। जब आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन होगा तो तुम्हारे जीवन का आनंद ही कुछ और हो जाएगा।

 

सत्य को पहचानना पहली बात है। बस! मैं सत्य हूँ, मेरे भीतर का तत्व सत्य है, मेरा स्वरूप सत्य है। वह सत्य है और बाकी सब कुछ असत्य है। जो स्थायी है वह सत्य, जो मिट जाए वह असत्य है। जो साथ रहे वह सत्य, जो छूट जाए वह असत्य है। जिसका स्वरूप निखरे वह सत्य, जिसका स्वरूप बिगड़े वह असत्य है। तुम क्या हो? सोचो! क्या तुम्हारा शरीर स्थायी है? तुमने जिसको सत्य मान रखा ये रूप असत्य है, स्वरूप सत्य है। स्वरूप को पहचानो। सत्य का ज्ञान होना, सत्य को पहचानना बड़ा कठिन है।

 

मनुष्य के साथ एक बड़ी विडम्बना है उसे सारी दुनिया का ज्ञान है लेकिन खुद की पहचान नहीं। खुद की पहचान नहीं, खुद का ज्ञान नहीं, खुद से काफी दूर है। ये आँखें सारी दुनिया का दर्शन कराती हैं पर विडम्बना कुछ ऐसी है कि खुद को नहीं देख पातीं। देखो! हम लोग जो कुछ भी देखते हैं किस के बल पर देखते हैं? आँख के बल पर देखते हैं लेकिन हमारी आँखें खुद को नहीं देख पातीं। सारी दुनिया को देखने वाली आँखें खुद को देखने मे असमर्थ हैं। मनुष्य के पास सारी दुनिया की खबर है पर खुद की खबर नहीं। कुतुबमीनार में कितनी सीढ़ियाँ है ये उसे पता है पर मेरे घर में कितनी सीढ़ियाँ है शायद उसका पता नहीं। यही तो तुम्हारी अज्ञानता का उदाहरण है। सारी दुनिया में क्या है तुम्हें पता है पर तुम्हारे भीतर क्या है तुम्हें इसका पता नहीं। उसका पता करना ही सत्य की पहचान करना है। अपने भीतर के परम सत्य को पहचानो, अपने आप को जानो। मैं कौन हूँ और मेरा क्या है इसे पहचानोगे तभी अपने जीवन का कल्याण कर पाओगे।

 

पहली बात सत्य का ज्ञान बहुत मुश्किल से होता है। आदमी की स्थिति सत्य के प्रति कैसी होती है। दो जुड़वाँ भाई थे। दोनों बिल्कुल एक जैसे दिखते। रूप, रंग, हाईट, हैल्थ सब कुछ एक जैसा। बोली भी एक जैसी। एक शरारती था और दूसरा सीधा था। मुश्किल ये कि शरारती लड़का उपद्रव करके भाग जाता और सीधे वाले की पिटाई हो जाती। ऊधम करता ऊधमी और पीटा जाता सीधा। अब रोज का क्रम बन गया। बेचारा परेशान रहता। बिना कुसूर उसकी पिटाई होती। एक दिन वह बहुत खुश दिख रहा था। बोला क्या बात है भाई। आज बहुत खुश हो। बोला आज हिसाब चुकता हो गया। पूछा क्या हिसाब चुकता हो गया? बोला आज तक मेरा भाई ऊधम करता था और पिटता मैं था। इसमें खुश होने की क्या बात? वह ऊधम करे और तुम्हें पीटा जाए तो इसमें खुश होने की बात क्या है? बोला भाई आज बात ऐसी हुई कि मरा मैं और दफना उसे दिया गया।

 

'मरा मैं और दफनाया उसे गया' क्या ये सत्य है? ये लोगों के भीतर की गहन सुषुप्ति की अभिव्यक्ति है। तुम्हें अपने जीवन में सच का कुछ ज्ञान नहीं। सच को पहचानो और अपने हृदय में अवधारित करो कि दुनिया में जितनी भी चीजें हैं, भोग-विलास के साधन हैं, मकान हैं, दुकान हैं, कार है, बंगला है, फैक्ट्री है, गाड़ी है, सवारी है, सब असत्य हैं। ये रूप भी असत्य, ये रंग भी असत्य, ये भोग भी असत्य, ये विलासता के साधन भी असत्य हैं। कुछ भी सत्य नहीं, सब छूटने वाले हैं। टिकाऊ नहीं हैं, नष्ट हो जाने वाले हैं। यदि सत्य कुछ है तो मेरे भीतर का परम तत्व है।

 

एगो मे सास्सदो आदा णाणदसणलक्खणो।

सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।

मैं एक, शुद्ध, ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला शाश्वत आत्म तत्व हूँ इसके अलावा सब अशाश्वत हैं, भंगुर हैं। संयोग से मेरे साथ जुड़े हैं पर मेरे नहीं हैं जैसे आसमान के चाँद का प्रतिबिम्ब किसी सरोवर पर पड़े और उसको देखकर कोई बालक ये सोच बैठे कि आह! वाह! क्या अद्भुत घटना घटी है, आसमान का चाँद धरती पर उतर आया है। चलो मैं इस चाँद को पकड़ लैं। ऐसे बालक को आप क्या कहोगे? क्या बालक उस चाँद को कभी पकड़ सकता है? कभीनहीं पकड़ सकता। संभव ही नहीं है। कोई लाख कोशिश करे पर चाँद को पकड़ पाना नामुमकिन है। वस्तुत: जब चाँद है ही नहीं तो पकड़ोगे कहाँ से। वह तो प्रतिबिम्ब है। कोई भी समझदार व्यक्ति चाँद को पकड़ने की कोशिश नहीं करता क्योंकि सबको पता है चाँद आसमान में ही है, ये तो प्रतिबिम्ब है।

 

बंधुओं! सरोवर में उभरने वाले चाँद को पकड़ने के प्रति तो तुम कभी उत्कठित नहीं होते पर सच्चाई ये है कि जो कुछ भी तुमने पकड़ रखा है वह सब चाँद का प्रतिबिम्ब ही है। चाँद की तरफ तुम्हारी दृष्टि ही नहीं। चाँद के प्रतिबिम्ब को पकड़ने के लिए तुम पागल हो उठे हो। सावधान हो जाओ। वह केवल रिफ्लेक्शन है जो तुम्हे सत्य दिख रहा है, वह सत्य नहीं। असत्य को सत्य मानने वाले की दशा को अभिव्यक्त करती ये पंक्तियाँ बड़ी सार्थक हैं

 

नाम तो उसके कई हैं,

पर मैं उसे प्यार से

आदमी कहता हूँ।

आजकल उसकी दिनचर्या

कुछ इस प्रकार है,

वह सुबह से सोने तक,

गंगा की बहती धार में

खूटे गाढ़ता है,

कभी-कभी बाएँ हाथ से

खूटे को पकड़ कर,

दाएँ हाथ से उस पर

मुंगरी से ठोकता है,

कि खूटा नीचे उतर आता है,

और वह सोचता है

कि चलो एक तो ठुका,

अब वह आगे बढ़े कि तभी देखता है

उसका खूटा कुछ दूर उचक कर बहा जा रहा है

उसकी ये चाह है

कि इस अनंत प्रवाह में उसके खूटे थमें ,

और वह अपना तम्बू,

उनके सहारे तान कर

आराम से उसमें सोए

सोए कि सोया ही रहे.

बात समझ में आई कि नहीं? गंगा की बहती धार में खूंटा गाड़ने का कोई कितना भी प्रयास करे खूटा गड़ नहीं सकता। संसार के इस असत्य स्वरूप में तुम कुछ भी स्थायी बनाने का प्रयास करो स्थायी ही नहीं सकता, ये जीवन की सच्चाई है। 

 

दवा हाँथ में पर विश्वास नहीं फल का

दूसरी बात सत्य की निष्ठा। सत्य का ज्ञान होना मात्र पर्याप्त नहीं है जब तक कि तुम्हारे हृदय में उसके प्रति निष्ठा न हो। दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें जीवन के सत्य का ज्ञान तथाकथित रूप से है। उनसे बोलो आत्मा परमात्मा की बड़ी गहरी चर्चा कर लेगें, बहुत अच्छा उपदेश दे देंगे, शास्त्रों का ज्ञान है, कई शास्त्रों को पढ़ लिया लेकिन आचरण शून्य है। निष्ठा ही नहीं है। ज्ञान है, वह जानकारी है। निष्ठा मतलब इसी में मेरा कल्याण है ऐसा श्रद्धान होना चाहिए। तुम्हारे हृदय में सत्य के प्रति निष्ठा है? ईमानदारी से बोलना सत्य के प्रति निष्ठा है कि असत्य के प्रति निष्ठा है। भरोसा किस पर है? टटोलो अपने मन की। टटोलकर देखो। तुम पर जब कुछ भी मुसीबत आती है तो तुम्हारा सबसे पहला भरोसा अपने पैसे पर होता है, अपने परिवार जन पर होता है, अपनी प्रतिष्ठा और ताकत पर होता है या अपने परमात्मा और अपनी आत्मा पर होता है।

 

यथार्थ के ज्ञान के बाद यथार्थ के प्रति निष्ठा नहीं हुई तो सब व्यर्थ है। क्या तुम्हें ये पक्का विश्वास है कि मेरे आत्मा के अलावा संसार का एक परमाणु भी मेरा नहीं है। भरोसा शब्दों में नहीं हृदय में होना चाहिए। हृदय से आवाज निकलनी चाहिए कि संसार में जो कुछ है, एक संयोग है। ये परद्रव्य हैं, मेरा आत्म द्रव्य मेरा अपना है इसके अलावा एक परमाणु भी मेरा नहीं है। ये जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे सब मोह के प्रपंच हैं। जितने भी भोग-विलास के साधन हैं वे आत्मा के विनाश के कारण हैं। ये राग रंग जीवन का पतन कराने वाले हैं। बोलो क्या ऐसी निष्ठा है तुम्हारी? जिसकी झूठ पर निष्ठा हो वह झूठा है। अब तुम सच्चे हो कि झूठे स्वयं निर्णय करो। आज के सच्चे कैसे होते हैं; मैं बताता हूँ।

 

एक लड़की के परिजन लड़का देखने के लिए गए। लड़के के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। लड़के के जीवन की बहुत सारी अच्छाईयाँ बता दी गई। अच्छाईयाँ बताने के बाद जब सब प्रभावित हो गए तो उन्होंने कहा- भाई! इनमें एक और विशेष गुण है। बोले क्या? बोले झूठ बोलने की आदत है। तुम कह रहे हो कि हम सच्चे हैं पर सच्चे अर्थों में यह भी झूठ है क्योंकि सच पर तुम्हारी निष्ठा अभी टिकी ही नहीं है। सत्यनिष्ठा की कसौटी है। सत्य पर निष्ठा होगी तो तुम फिर असत्य का आचरण नहीं कर सकते। निष्ठा सत्य में है तो आचरण असत्य क्यों है इस पर विचार करो। यदि सत्य पर निष्ठा है तो सत्य का आचरण होना चाहिए। सत्याचरण मतलब मन, वाणी और व्यवहार में सत्य की प्रतिष्ठा। मन, वाणी और व्यवहार में जब तक सत्य की प्रतिष्ठा न हो या जाए, जब तक व्यक्ति के अंत:करण में सत्य के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा न हो तब तक वह व्यक्ति सत्याचरणी नहीं कहला सकता।

 

मन में होय सो वचन उचरिये

बंधुओं! अपने मन में, अपनी वाणी में और अपने व्यवहार में सत्य की प्रतिष्ठित करने की कोशिश करें। असत्य के प्रति हमारा चित्त क्यों भागता है? केवल इस वजह से कि हमें सत्य की महिमा का भान नहीं है। झूठ का आश्रय मनुष्य क्यों लेता है इसलिए कि उसे सत्य की शक्ति का भान नहीं है। तुम्हें जिस दिन सत्य की शक्ति का भान हो जाएगा, सत्य की महिमा का ज्ञान हो जाएगा उसी दिन तुम्हारे जीवन से असत्य दूर हो जाएगा। तुम्हें अभी भौतिक पदार्थ ही उपादेय दिखते हैं। झूठ, फरेब, भोगविलास, पाप, पाखण्ड, अनाचार, राग, द्वेष ये सारे विकार हैं जो अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। इन सबसे रहित जो भीतर की शुद्ध परिणति है उधर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है। जिस दिन तुम्हें ये लगने लगेगा कि ये सब हेय हैं, ये सब अकल्याणकारी हैं, ये सब जीवन की राह में रोडे हैं, अवरोध उत्पन्न करने वाले हैं तो तुम्हारा चित्त उधर नहीं जाएगा। तुम उनके बारे में सोचोगे तक नहीं। इनसे तात्कालिक लाभ भले मिल जाए लेकिन दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होते। दीर्घकालिक नुकसान भोगना पड़ता है। ऐसा कार्य मुझे नहीं करना।

 

मन के स्तर पर सत्य है, भवना के स्तर पर सत्य है। कहते हैं जिस व्यक्ति के मन में सत्य नहीं तो वह अपने जीवन में चाहे कितना धर्म-कर्म करे, सब व्यर्थ हैं। जिसके हृदय में सत्य का वास है उसका सारे संसार पर निवास है। कुरल काव्य में लिखा है- जिस मनुष्य के हृदय में सत्य रूपी प्रहरी का शासन होता है वह सारी जनता के हृदय पर शासन करने में समर्थ होता है। मन में सत्य हो तो सब पर तुम्हारा असर होगा। मन में सत्य का मतलब मन में विकार न हो, दुर्भावना न हो, ईष्य न हो, छल-प्रपंच न हो, निश्छलता हो। क्या आप इस बात को गारंटी के साथ कह सकते हो कि अपने मन के स्तर पर मैं कभी किसी के साथ छल भरा व्यवहार नहीं करूंगा? यदि सत्य के प्रति निष्ठा होगी तो तुम कभी ऐसा असत्य व्यवहार कर ही नहीं सकते। एक बात बताऊँ। यदि मन में सत्य हो तो हमारे वचनो से बोला गया सत्य सच होता है और तभी हमारा व्यवहार सच कहलाता है। आजकल उल्टा होता है। लोग वाणी में बड़ी मिठास रखते हैं, व्यवहार में विनम्रता और मन में कड़वाहट घोले रहते हैं। ये सब सत्य नहीं असत्य है। मन में भी मिठास होनी चाहिए। वाणी में मिठास हो, व्यवहार में मिठास हो और यदि मन में मिठास नहीं तो सब व्यर्थ है।

 

महापुरुषों के जीवन चरित्र को पलटकर देखें। महाभारत का एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। महाभारत का युद्ध शुरु हुए कई दिन हो गए। एक दिन दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास पहुँचा और बोलाअबलाएँ विधवा हुई, अब क्या होगा? कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे मैं अजेय हो जाऊँ द्रोणाचार्य ने कहा इसका उपाय अगर कोई बता सकता है तो केवल युधिष्ठिर। युधिष्ठिर के पास इसका उपाय है। दुर्योधन ने कहा युधिष्ठर मुझे अजेय होने का उपाय क्यों बताएगा? वह तो हमारा शत्रु है। बोले नहीं. तुम युधिष्ठिर को नहीं जानते। युधिष्ठिर के लिए शत्रु तुम केवल युद्ध के मैदान में हो, बाद में आज भी तुम उसके भाई हो। जाओ, तुम युधिष्ठिर से मिलो। वह युधिष्ठिर से मिलने के लिए गया। युद्ध विराम की घड़ी में जब युधिष्ठिर से मिला और कहा- युद्ध प्रारंभ हुए बहुत दिन बीत गए, मुझे बड़ी चिंता है कि कल क्या होगा। युधिष्ठिर बोला- कल युद्ध में तुम मारे जाओगे और युद्ध का अंत हो जाएगा। और क्या होगा। नहीं. नहीं. ये तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे मैं अजेय बन जाऊँ) कहते हैं युधिष्ठिर ने कहा- उपाय है और तुम्हारे घर पर ही है। उसके लिए तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। उपाय है मेरे घर पर है उसके लिए मुझे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं, क्या उपाय है? बोले तुम्हारी माँ शीलवती रही है, उसने आज तक कभी किसी पुरुष को अपनी आँखों से देखा नहीं। आँखों पर पट्टी बंधी है। अगर एक बार तुम्हारी माँ अपनी तेजोमय दृष्टि से तुम्हें नीचे से ऊपर तक देख लेगी तो तुम्हारा सारा शरीर वज़मय हो जाएगा पर इसके लिए तुम्हें अनावरित होकर माँ के पास जाना होगा।

दुर्योधन बहुत खुश हुआ। बहुत अच्छा उपाय बता दिया। वह घर से रात के अंधेरे में निर्वस्त्र होकर निकला। रास्ते में श्रीकृष्ण मिल गए। उन्होंने दुर्योधन से पूछा- कहाँ जा रहे हो? दुर्योधन ने सारी कहानी सुना दी। श्रीकृष्ण ने सोचा- ये तो गड़बड़ हो गई। दुर्योधन अगर अजेय बन गया तो मामला ही गड़बड़ हो जाएगा, कुछ करना चाहिए। उन्होंने दुर्योधन से कहा- दुर्योधन! माँ के पास जा रहे हो, थोडी तो शर्म करो। इस तरह पूर्णतः नग्न होकर जाना अच्छा होगा। क्या? कम से कम अपने गुप्तांग को तो आच्छादित कर लो। दुर्योधन को लगा कि बात तो बिल्कुल सही है। कहते हैं तुरंत दुर्योधन ने कले के पते से अपना गुप्तांग ढका और माँ के पास गया। माँ से कहा- माँ! तूने आज तक मुझे नहीं देखा, मेरी भावना है कि एक बार मुझे आँखें खोलकर देख ले अन्यथा तू जिंदगी में कभी नहीं देख पाएगी। तू क्या मुझे कोई भी नहीं देख पाएगा। दुर्योधन के ऐसा कहने पर गान्धारी ने अपनी आँख की पट्टी पहली बार उतारी और ऊपर से नीचे तक दुर्योधन को देखा। उसका सम्पूर्ण शरीर वज़मय हो गया। बस गुप्तांग वाला भाग जो केले के पते से ढका था वह बच गया और भीम ने वहीं गदा का प्रहार किया जिससे दुर्योधन की मृत्यु हुई।

 

ये कथा जैन पाण्डव पुराण की नहीं महाभारत की है। मैं कथा के विस्तार पर नहीं जाना चाहता। कथा का अपना-अपना अर्थ है लेकिन मैं केवल एक बात बताना चाहता हूँ कि भावना का सत्य क्या होता है। जो शत्रु के साथ भी मित्रवत् व्यवहार करे वह भावना का सत्य है। मन में ऐसी पवित्रता हो तो सत्य हृदय में आए। वाणी का सत्य ही सबसे ज्यादा प्रचलित है। सच बोलने का मतलब सत्य नहीं है, सत्य अभिप्राय का मतलब सत्य है। कई बार लोग सच बोलते हैं पर अभिप्राय गलत होता है, वह असत्य है और कई जगह झूठ बोला जाता है पर आशय सही होता है तो वह सत्य है।

 

सत्यं ब्रुयात्, प्रियं ब्रुयात्

सत्यं प्रियं हितं चाहुः सुनृतं सुनृतव्रताः।

तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत्॥

सत्य के व्रतियों ने उसे ही सत्य कहा है जिसमें सत्यता के साथ प्रियता और हित हो। जो अप्रिय और अहितकारी है वह सत्य होकर भी असत्य है। प्रिय और हितकारी होने पर असत्य भी सत्य है।

 

बंधुओं! अपने मुख में मिठास रखो। मर्मघाती, ककश, कठोर और पापपूर्ण वचनों को अपने मुख से कभी मत निकालो। ये वाणी का असत्य है, इसे रोक, इस पर अंकुश रखें क्योंकि आप इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि शब्द का घाव शस्त्र के घाव से भी गहरा होता है। शस्त्र के आघात से उत्पन्न घाव तो कुछ दिनों में भर सकता है लेकिन शब्द के आघात से होने वाला घाव सारी जिंदगी रिसता रहता है, टीस मारता रहता है। अपने मुख से कभी किसी के दिल में घाव मत करो।

 

वाणी ऐसी बोलिए मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे आपहुँ शीतल होय।

वाचिक संयम, वाणीगत संयम। शब्द को बोलने से पहले तोलना। 'अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे आप जो बोलते हैं उसे आत्मसात करें। ऐसे शब्द अपने मुख से कभी उच्चारित मत करें। ये वाणी का संयम है।

 

एक राजा था। उसकी एक ऑख थी। उसे अपना चित्र बनवाने की सनक चढ़ी। चित्र बनवाएँ कैसे? अपना चित्र बनवाने के क्रम में उसने तीन चित्रकारों को बुलवाया और कहा मेरा खूबसूरत चित्र बनना चाहिए। तीन चित्रकारों में पहले चित्रकार ने राजा जैसा था वैसा चित्र बना दिया। राजा ने चित्र देखा तो काणा चेहरा देखकर कुपित हो गया। बोला- ये कोई चित्र बनाया। चित्रकार को जेल में डाल दिया। दूसरे चित्रकार के चित्र को देखा तो उसने सोचा राजा काना है तो ये ठीक नहीं होगा। उसने उसकी दोनों आँखें बना दीं। 

 

राजा ने कहा ये चाटुकार है इसको भी हटाओ। पहला था स्पष्टवादी वह जेल चला गया। दूसरा चाटुकार निकला इसलिए वह भी काम का नहीं। तीसरे चित्रकार से बोला अपना चित्र दिखाओ। चित्रकार ने अपना चित्र दिखाया। उसने बहुत होशयारी से काम किया। उसने शिकारी मुद्रा में राजा का चित्र बनाया। एक तीर काणी आँख के पास लगा कर तान दिया। एक हाथ तीर पर और एक हाथ कमान पर इसप्रकार निशाना साधते हुए चित्र बनाया। राजा चित्र देखकर प्रमुदित हो गया। अपने गले का हार उसके गले में डाल दिया। बोला- तुम हो व्यवहार कुशल। अवसर के अनुरूप बात करने वाले।

 

बंधुओं! पहला चित्र सत्य था पर प्रिय नहीं। दूसरा चित्र प्रिय था पर सत्य नहीं। पर तीसरा चित्र सत्य भी था और प्रिय भी था। बस जीवन व्यवहार में ऐसी सत्यता और प्रियता को प्रतिष्ठित करना चाहिए। वाणी का सत्य यानि कमिटमेंट का धनी। प्रामाणिकता जिसके वचनों की कीमत ही वह वाणी के सत्य का धारक होता है। आजकल लोगों के कमिटमेंट का कोई अता-पता नहीं। पल-पल। में व्यक्ति की जिह्वा के अर्थ बदल जाते हैं, भाषा बदल जाती है। अपनी कही बात से कब पलट जाए कोई पता नहीं। जैसे नेताओं के बयान रोज बदलते हैं वैसे ही लोगों के भी बदल जाते हैं। मनुष्य के जीवन में प्रामाणिकता होनी चाहिए। जो मैंने कह दिया सो कह दिया। अपने वचन को कभी काटो मत। यदि तुम वाणी के स्तर पर सत्य प्रतिष्ठापित करना चाहते ही तो जिस किसी को भी वचन मत देना। बहुत सारे लड़कियाँ और लड़के कहते हैं कि हमने अगले को कमिटमेंट कर दिया। भावुकता में किए गए कमिटमेंट बेकार होते हैं। ऐसे कमिटमेंट कभी मत करना। हर किसी के सामने अपनी प्रतिबद्धता जाहिर मत करना। हर किसी को वचन मत देना नहीं तो ठगे जाओगे। योग्य व्यक्तियों को वचन दो। या तो वचन दो ही नहीं और यदि वचन दे दिया तो उसको दृढ़ता से निभाओ तब तुम्हारे जीवन में वाणी का सत्य प्रतिष्ठित हो सकेगा।

 

ज्ञान की आत्मीयता आचरण का संग

तीसरे नम्बर पर व्यवहार का सत्य। सत्याचरण की बात हो रही है। अपने जीवन व्यवहार में सत्य का आचरण करने का मतलब है छल, फरेब, धोखा, विश्वासघात, एवं चोरी के कार्य से अपने आप को बचाओ। अपने आप को इन सब चीजों से बचाओगे तब तुम्हारे व्यवहार के स्तर पर सत्य होगा। जो व्यक्ति थोड़ी-थोड़ी बातों में अपना ईमान बेच दे वह व्यवहार में सच्चा नहीं कहला सकता। जो थोड़ी-थोड़ी सी बातों में बेईमान बन जाए वह व्यवहार में सत्याचरणी नहीं है। वह सच्चे अर्थों में धर्मात्मा ही नहीं है। धर्मात्मा होने का मतलब है सत्य का आचरणी होना। सत्य का आचरणी वही हो सकता है जो जीवन की सच्चाई को जानते हुए असत्य आचरण से विमुख होता है। ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हें कभी अपमानित होना पड़े, ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हें लोक-निंदा का पात्र बनना पड़े, ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हारी प्रतिष्ठा धूमिल होती हो और ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हें या किसी और को किसी संकट में फसना पड़े। सत्य आचरणी अपने जीवन में सदैव इन बातों का ध्यान रखता है।

 

बंधुओं! मैंने देखा है, आजकल बड़े-बड़े लोग भी छोटी-छोटी सी बातों पर अपना ईमान बेच देते हैं। लेकिन सत्य के प्रति निष्ठावान रहने वाले साधारण व्यक्तियों में भी बड़े-बड़े सत्याचरण के उदाहरण प्रकट हो जाते हैं। एक व्यक्ति दिल्ली गया। फाइवस्टार होटल में ठहरा। सुबह उसने एक टैक्सी ली। सुबह से शाम तक कई लोगों से मिला, कई मीटिंग्स थीं, कई दफ्तरों में गया। दिन भर घूमने के बाद शाम को होटल वापस आया। रूम में आने के पन्द्रह मिनट बाद उसे ख्याल आया कि मैं अपना बैग तो गाड़ी में ही छोड़ आया। बैग में पूरे पाँच लाख रूपये थे। बैग गाड़ी में छोड़ आया अब क्या करे? टैक्सी का नम्बर पता नहीं, टैक्सी ड्राईवर का नाम पता मालूम नहीं। इधर टैक्सी ड्राईवर सुबह से शाम तक काफी घूमा था। उसने टैक्सी स्टैण्ड पर अपनी गाड़ी खड़ी की और थोड़ा सुस्ताने के लिहाज से जैसे ही गाड़ी के अंदर गया तो उसकी निगाह पीछे पड़े बैग पर पड़ी। उसने बैग खोला तो उसमें रूपये थे। उसने वापस बंद किया और तय कर लिया हो न हो ये सेठ जी का है क्योंकि उनके अलावा और कोई आज गाड़ी में बैठा ही नहीं। सेठ जी को खोजा जाए। सेठ जी को खोजने के लिए होटल पहुँचा तो पता चला सेठ जी नहीं है। सेठ जी तो टैक्सी ड्राईवर को खोजने के लिए गए हुए जी को खोज रहा है। दो घण्टे तक परेशान होकर सेठ जी वापस होटल आए। इधर भूल-भटक कर जब ड्राईवर वापस होटल आया तो उसकी नजर सेठ जी पर पड़ी। सेठ जी को देखा तो उनकी तरफ बैग बढ़ाते हुए कहा- लो सेठ साहब! सम्हालो अपनी धरोहर। खूब परेशान किया आपने। दो घण्टे से मैं आपको खोज रहा हूँ। सेठ जी को तो ऐसा लगा जैसे कोई सपना देख रहे हों। तत्परता से बैग को अपने हाथ में लेकर रूम में गया। रूम बंद किया और बैग खोलकर देखा तो रूपये पूरे थे। अपना पूरा पैसा सुरक्षित देखकर पाँच हजार रूपया ड्राईवर को इनाम देना चाहा तो उसने कहा- नहीं. मैं गरीब जरूर हूँ पर बेईमान नहीं हूँ। मैंने आपको सुबह से शाम तक अपनी टैक्सी में घुमाया, आपने उसका पूरा पैसा हमको दे दिया। मैं जिसका हकदार था, मैंने लिया। आपकी धरोहर मेरी गाड़ी में छूट गई थी। आपकी धरोहर आप तक पहुँचाना मेरा कर्तव्य था। मैंने आपका पैसा आपको दे दिया। पैसे ही लेने होते तो पूरे पैसे ही क्यों न रख लेता। आप मुझे कहाँ खोजते फिरते? लेकिन मैं हराम का खाना पसंद नहीं करता। सदैव मेहनत का खाता हूँ इसलिए मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं। आप ये पैसे रख लें। मैं बहुत खुश हूँ कि मैंने आपकी धरोहर आपको लौटा दी। नहीं तो मैं तो आज सो नहीं पाता। आप सम्हाली मैं चलता हूँ। सेठ जी उसका चेहरा देखते रह गए और मन ही मन कहने लगे कि जिस आदमी को हम गरीब मानकर हेय दृष्टि से देखते हैं उस व्यक्ति के भीतर तो हम जैसे सेठों से भी बड़ा पराक्रम और क्षमता है।

 

उपलब्धि का आनन्द

बंधुओं! जिसके अंतरंग में सत्य के प्रति निष्ठा होती है उसके भीतर ऐसा ही पराक्रम प्रकट होता है। बंधुओं सत्य का ज्ञान, सत्य की निष्ठा और सत्य का आचरण तीन स्तर पर करना है- भावना के स्तर पर, वाणी के स्तर पर और व्यवहार के स्तर पर। जो कुछ भी हमारा धर्म आचरण है सब सत्य का आचरण है। जब सत्य का आचरण करोगे तभी सत्य की अनुभूति होगी। कुछ लोग असत्य का आचरण करके सत्य की अनुभूति करना चाहते हैं। असत्य का आचरण करके सत्य की अनुभूति आज तक किसी को हुई है क्या? न भूतो न भविष्यति। सत्य की अनुभूति केवल वही और वही कर सकते हैं जो सत्य का आचरण करते हों। इसलिए सत्य का आचरण करना शुरु कीजिए, धर्मनिष्ठ बनना शुरू कीजिए। लोग बड़ी-बड़ी बातें कर देते हैं लेकिन आचरण के क्षेत्र में प्राय: पिछड़ जाते हैं। आप कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लें, वह व्यर्थ है, आचरण के क्षेत्र में सम्हलने की कोशिश कीजिए। जब तक आचरण नहीं तब तक कल्याण नहीं। आत्मा के गीत गाने मात्र से आत्मा की अनुभूति नहीं होगी। आत्मा की अनुभूति तो उन्हें ही होती है जो अध्यात्म के सरोवर में डुबकी लगाते हैं।

 

बंधुओं! सत्य का अनुभव तभी होगा जब सत्य का आचरण होगा। एक व्यक्ति तैरना सीखना चाहता था। वह तैराक के साथ नदी पर गया। तैराक ने पानी में पाँव रखा और उस व्यक्ति से कहाआओ भाई! तुम भी पानी में आओ और सीखी। वह सकपकाने लगा, पानी में पाँव कैसे रखें? हिम्मत न हो सकी। तैराक द्वारा प्रेरित करने पर उसने हिम्मत की और पानी की ओर जाने लगा। पहला कदम रखते ही वह फिसल गया और किनारे पर ही गिर गया। उठा और पाँव पटकते हुए बोला- भगवान कसम जब तक मैं तैरना न सीख लें तब तक क्या मजाल कि मैं भूलकर भी पानी में पाँव रखें। उसका तैराक मित्र तब तक पानी में काफी आगे निकल चुका था। उसने कहा- क्या बोल रहे हो? बोले बस! अब, जब मैं तैरना सीख जाऊँगा तभी पानी में पाँव रखेंगा। उसने कहा ठीक है, समझ में आ गया। तुम रेत में तैरना सीखकर पानी में उतरोगे क्या?

 

दरा दरिया की तह तक तू पहुँच जाने की हिम्मत कर।

तो फिर से डूबने वाले, किनारा ही किनारा है।

बंधुओं! तैराक वही बन पाया है जिसने पानी में पाँव डाला है। पानी में पाँव डाले बिना न तो आज तक कोई तैर पाया है और न तैर पाएगा। जीवन की सच्चाई को समझिए और पानी में पाँव डालने के लिए तैयार हो जाइए। सत्य का आचरण कीजिएगा तभी सत्य की अनुभूति होगी। वही अनुभूति जीवन की परम अनुभूति है, वही अनुभूति जीवन की शाश्वत अनुभूति है, वही सार है बाकी सब असार है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं -

 

एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए।

बंधकहा एयते तेण विसंवादिनी होई।

उस एकत्व विभक्त जीवन के परम सत्य का अनुभव जिसने कर लिया फिर उसे किसी अनुभूति की जरूरत ही नहीं पड़ती। वह परम अनुभूति है, वह चरम अनुभूति है। उस अनुभूति का आनंद लेने का प्रयास करें तब आज के सत्य धर्म की आराधना सार्थक होगी।

 

बातें तो बहुत कर लेते हैं लेकिन रहते हैं जहाँ के तहाँ। कई बार तो इन बातों के चक्कर में बड़ी गड़बड़ हो जाती है। 100वीं मंजिल पर एक ऑफिस था। अॉफिस के सारे ऑफिसर आए, उसका डायरेक्टर भी आया। पर संयोगत: लिफ्ट खराब हो गई। दो लिफ्ट थीं दोनों की दोनों लिफ्ट खराब। अब क्या करें? डायरेक्टर ने कहाभाई। लिफ्ट ठीक होने में दो घण्टे से कम नहीं लगेंगे तब तक हमारा बहुत समय चला जाएगा। चलो एक काम करते हैं हम लोग ऊपर चलते हैं और कुछ कहानियाँ कहते-कहते चलेंगे। एक दूसरे को कहानी सुनाएँगे और 100 मंजिलें चढ़ जाएँगे। सभी ने कहानियाँ कहते-सुनते चढ़ना शुरु किया। साथ में चपरासी भी था। तीस-चालीस मंजिल चढ़ने के बाद चपरासी ने कहा मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ। अरे! तुम बीच में मत बोलो अभी तुम्हारी नहीं सुनेंगे। थोड़ा आगे बढ़े तो चपरासी फिर बोला- मेरी भी कुछ सुन ली। बोले तुम्हारी कुछ नहीं सुनेंगे अभी बीच में मत बोलो। चढ़ते-चढ़ते जब सौवीं मंजिल पर पहुँचे तो चपरासी फिर बोला- अब तो मेरी सुन ली। बोले क्या बोल रहे हो बोलो। सब लोग तो यहाँ आ गए पर चाबी तो नीचे ही पडी हुई है। बस यही हाल कई बार हो जाता है। बातें करते-करते जीवन बर्बाद हो जाता है। चाबी हाथ में होनी चाहिए। जब तक चाबी तुम्हारे पास नहीं होगी तब तक तुम अपने जीवन की गुत्थियों के ताले नहीं खोल पाओगे, तब तक अपने चिन्मयी वैभव का दर्शन नहीं कर पाओगे। जीवन को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।

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