आचार्य श्री कहेते है जरूरत से ज्यादा धन संचय, यश-कीर्ति की चाह हमें गर्त में ले जाती है |
जरूरत से ज्यादा धन संचय, यश-कीर्ति की चाह हमें गर्त में ले जाती है : आचार्यश्री
व्यक्ति का संपूर्ण जीवन धन संपदा के संचय में ही निकल जाता है। वह कितना भी धन संचय कर ले उसको तृप्ति नहीं होती।...
व्यक्ति का संपूर्ण जीवन धन संपदा के संचय में ही निकल जाता है। वह कितना भी धन संचय कर ले उसको तृप्ति नहीं होती। परिगृह के बिना संसारी प्राणी बिन जल के मछली की तरह तड़पता है। मछली तो प्राणवायु नहीं मिलने से तड़पती है परंतु यह जीव हवा, जल, वायु सबकुछ मिलने के बाद भी बैचेन रहता है।
हमें जितनी जरूरत हो उतना ही संचय करना चाहिए। जरूरत से ज्यादा धन संचय, यश कीर्ति की चाह भी हमें गर्त में ले जाती है। जरूरत से ज्यादा धन संचय चिंता का कारण तो बनता ही है इसके साथ अासक्ति का भाव रखना भी बहुत दुखदायी हो जाया करता है। यह बात नवीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए अाचार्यश्री विद्यसागर महाराज ने कही। उन्होंने कहा कि व्यक्ति यदि धन संचय करता भी है तो उसका एक भाग परोपकार के कार्यों, सुपात्र को दान आदि देकर सदुपयोग करते रहना चाहिए।
उन्हाेंने कहा कि धन संचय से रौद्र ध्यान अधिक होता है, धर्म ध्यान नहीं हो पाता। इसलिए हमें रौद्र ध्यान से बचने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए। व्यक्ति को मांगने से कुछ नहीं मिलता। जब तक हमारे कर्मों का उदय न हो तब तक कुछ हासिल भी नहीं होता। हम जैसा सोचें या जो चाहें वह सबकुछ मिल जाए यह भी संभव नहीं। व्यक्ति को हमेशा परहित की बात ही सोचना चाहिए। ऐसा विचार करने से किसी का हित हो या न हो स्वयं का हित संवर्धन स्वमेव ही हो जाया करता है। उन्हाेंने कहा कि मन के विचारों को गहराने दो, अनुभूति के सरोवर में उतरने दो, कहने की उतावली मत करो, कहना सरल है सहना कठिन है कहने के बाद कुछ बचता नहीं और सहने के बाद कहने को कुछ रहता नहीं। सहने से आत्मा की निकटता बढ़ती है, कहने से वचनों का आलम्बन लेने से स्वयं से दूरियां बढ़ती है पर की निकटता रहती है फलतः जीवंतता समाप्त होती जाती है, औपचारिकताएं आ जाती हैं यह कोई जीवन नहीं और न ही जीवन का आनंद।
उन्हाेंने कहा कि यदि भीतरी जीवन का आनंद पाना है तो कहो नहीं, आते हुए कर्मों की परिणति को शांत भाव से, साक्षी भाव से सहो अर्थात प्रतिकार मत करो। प्रतिकार करने से द्वेष भाव उत्पन्न होगा फिर दोषों से द्वेष रखना भी तो दोषों का वर्द्धन करना ही है, प्रकारान्तर से राग का पोषण करना ही तो है। जिन-जिन ने कर्मोंदय शांत भाव से सहे वे संसार में नहीं रहे। कर्मों की तीव्र धार के क्षणों में भी वे ज्ञानधार में पूर्ण सजगता से बहते रहे-बहते रहे, आखिर वे किनारा पा गए। चाहे पाण्डव हो या गजकुमार मुनि हों, सुकौशल स्वामी हों या देश भूषण-कुलभूषण स्वामी हों कर्मों के तीव्र प्रहार के समय वे अपने आपे में रहे निजगृह से बाहर निकले ही नहीं, स्वरूप गुप्त हो गए, त्रिगुप्ति के सुरक्षित दुर्ग में गुप्त हो गए, फलतः विजयी हो गए। प्रवचन के पूर्व ब्रह्मचारी द्वय एवं दान-दाताओं ने आचार्यश्री विद्यासागर महाराज की पूजन संपन्न की।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now