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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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आर्यिका पूर्णमति जी द्वारा रचित साहित्य 

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प्रभु भक्ति शतक

नाथ आपकी मूर्ति लख जब, मूर्तिमान को लखता हूँ। ऐसा लगता समवसरण में, प्रभु समीप ही रहता हूँ ॥ सर्व जगत से न्यारा भगवन्, द्वार आपका लगता है । अहो - अहो आत्मा से निःसृत, परमानंद बरसता है ॥1॥   नंत काल उपरांत आपने, शाश्वत सिद्ध देश पाया । उसी देश का पता जानने, आप शरण में हूँ आया ॥ ऐसा लगा कि शिवपथ की रुचि, मुझमें प्रथम बार जागी । राग भाव का राग छोड़ मैं, बन जाऊँ चिर वैरागी ॥ 2 ॥   अनंत अक्षय आत्म निधि पर, प्रभु आपकी नज़र पड़ी । धन्य-धन्य वह अद्भु

गुरु भक्ति शतक

कई वर्ष के बाद पुण्य से, गुरु का दर्शन प्राप्त हुआ। बिना कहे ही सुन ली मन की, कहने को क्या शेष रहा ॥ तनिक मिला सान्निध्य किंतु अब, खोल दिये हैं शाश्वत नैन । अब तक था बेचैन किंतु अब, मुझे दे दिया मन का चैन ॥ 1 ॥   आप नूर से हुई रोशनी, रोशन हर मन का कोना । यह खुशियाँ सौगात आपकी, मेरा मुझसे क्या होना ॥ जब गुरु ने निज नैन - स्नेह की, एक किरण से किया प्रकाश । पाने को अब रहा नहीं कुछ, जग से कुछ भी ना अभिलाष ॥ 2 ॥   खिले खुशी के लाखों उपवन, जब गुरु की म

आत्मबोध-शतक

आतम गुण के घातक चारों कर्म आपने घात दिए अनन्तचतुष्टय गुण के धारक दोष अठारह नाश किए शत इन्द्रों से पूज्य जिनेश्वर अरिहंतों को नमन करूँ आत्म बोध पाकर विभाव का नाश करूँ सब दोष हरु ॥1॥ कभी आपका दर्श किया ना ऐ सिद्धालय के वासी आगम से परिचय पाकर मैं हुआ शुद्ध पद अभिलाषी ज्ञान शरीरी विदेह जिनको वंदन करने मैं आया सिद्ध देश का पथिक बना मैं सिद्धों सा बनने आया ॥2॥ छत्तीस मूलगुणों के गहने निज आतम को पहनाए पाले पंचाचार स्वयं ही शिष्य गणों से पलवाए शिवरमणी को वरने वाले जिनवर के लघुनंदन
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