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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

Sneh Jain

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  1. fगुरुवर आचार्य श्री को नमन। गुरुवर ने इसमें हमको बताया है कि सर्वप्रथम हमारा लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए। तब ही हमारे द्वारा उठाये गए कदम का प्रारंभ सही होगा। इसलिए सर्व प्रथम हमारे जीवन का प्रथम लक्ष्य अरिहंत पद धारण का होना चाहिए। तभी विनीत पूर्वक दस धर्म मे हमारी प्रवर्ति प्रारम्भ होगी। उसके बाद ही विषमताओ से हटकर सम भाव रुचिकर लगेगा।
  2. फूल खिला है किन्तु खुशबू नहीं है , इसका सीधा सा मतलब है कि फूल नकली है| यदि फूल असली हो और खुशबू न हो यह संभव ही नहीं है| इसी प्रकार जब तक आत्मा में श्रद्धा नहीं है तो आत्मा के प्रकाश का अनुभव भी संभव नहीं है |
  3. युगवेत्ता-युगप्रवर्तक आचार्य विद्यासागर आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर के बाद अनेक जैनाचार्य हुए। उसी परम्परा में 20वीं-21वीं शताब्दी में एक जाज्वल्य नक्षत्र के रूप में सिद्धांतागम के पारगामी तथा अपराजेय साधक दिगम्बराचार्य विद्यासागर हुए। 10 अक्टूबर 1946 शरदपूर्णिमा के दिन सदलगा (कर्नाटक) में श्रीमल्लप्पा अष्टगे की पत्नी श्रीमती श्रीमन्ती मल्लप्पा अष्टगे के गर्भ से आचार्य विद्यासागर का जन्म हुआ। दीक्षा से पूर्व इनके बचपन का नाम विद्याधर अष्टगे था। इनकी मातृभाषा कन्नड थी। 9 वर्ष की उम्र में विद्याधर अष्टगे में जैनाचार्य शांतिसागर जी के कथात्मक प्रवचनों से वैराग्य का बीजारोपण हुआ और इनकी अध्यात्म में निरन्तर रूचि बढ़ती गयी। 12 वर्ष की उम्र में आचार्य श्री देशभूषणजी के सानिध्य में इनका मूंजी बंधन संस्कार हुआ। मुनिश्री महाबलजी ने इनकी तीक्ष्ण बुद्धि से प्रभावित होकर इनको तत्वार्थ सूत्र और सहस्रनाम कण्ठस्थ करने की प्रेरणा दी। इन्होंने नवमी कक्षा तक मराठी भाषा के माध्यम से अध्ययन किया। 20 वर्ष की उम्र में घर और परिवार का त्याग कर ये मुक्ति मार्ग का अनुसंधान करने के लिए निकल पड़े। तभी राजस्थान प्रान्त जयपुर पहुँचकर आचार्य देशभूषणजी महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया। सन् 1967 मई माह में ज्ञान पिपासु पुरुषार्थी युवा विद्याधर अष्टगे मदनगंज किशनगढ में ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण ज्ञानसागर आचार्य से मिले। गुरु के प्रति भक्ति समर्पण से ये अल्प समय में ही गुरु ज्ञानसागर आचार्य से दीक्षा ग्रहण कर विद्यासागर दिगम्बर मुनि होकर तपस्या रत हो गये। तब से आज तक उनका शयन स्थल धरती व काष्ठ फलक है। ज्ञान, ध्यान, तप व आराधना के उद्देश्य से वे दिन में मात्र एक बार नमक, हरी सब्जी, मीठा तथा फल व मेवे से रहित सात्विक भोजन (आहार) ग्रहण करते हैं। जीव दया पालन के लिए संयम उपकरण के रूप में कोमल मयूर पिच्छी तथा शुचिता के लिए नारियल के कमण्डल का उपयोग करते हंै। इसके अतिरिक्त वे किंचित भी परिग्रह नहीं रखते हैं। प्रत्येक दो माह में दाढी-मूँछ व सिर के केशों को हाथों से उखाड़कर अलग करते हैं। अस्नानव्रत के संकल्पी होने के बावजूद वे साधना व तपस्या से तन-मन-वचन से सदा पवित्र व सुगन्धित रहते हैं। मुनिदीक्षा के 4 वर्ष बाद ही 22 नवम्बर 1972 नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान में ज्ञानसागर आचार्य ने मुनि विद्यासागर को आचार्य पद प्रदान किया और वे आचार्य विद्यासागर बन गये। आचार्य विद्यासागर के मन-वचन व तन की पवित्रता व कोमलता के कारण आचार्यश्री के दर्शन करते समय उनसे नजर हटाने व उनके पास से हटने का किसी का भी मन नहीं करता है। इनके दिव्य तेजोमय आभामण्डल के प्रभाव से आज 120 दिगम्बर मुनि, 172 आर्यिकाएँ, 64 क्षुल्लक साधक, 3 क्षुल्लिका साघ्वियाँ तथा 56 एलक साधक की दीक्षा लेकर मानव जन्म की सार्थक साधना कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त इनके निर्देशन में लगभग 500 बालब्रह्मचारी भाई-बहन साधना के क्रमिक सोपानों पर साधना साध रहें हैं। आचार्य विद्यासागरजी के अनेक दिव्य व तेजोमय सत्कार्य समाज में प्रतिफलित हुए हैं जो इनके नवोन्मेष प्रतिभा के परिचायक हैं। साहित्य के क्षेत्र में आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी में महाकाव्य ‘मूकमाटी’ का सर्जन किया। साहित्य जगत मूकमाटी महाकाव्य को नये युग का महाकाव्य के रूप में समादृत करता है। महती उपयोगितय के कारण इस मूकमाटी महाकाव्य के 3 अंग्रेजी, 2 मराठी, 1 कन्नड़, 1 बंगला, 1 गुजराती तथा 1 तमिल रूपान्तरण हो चुका है। आपने नीति-धर्म-दर्शन-अध्यात्म विषयों पर संस्कृत भाषा में 6 शतकों और हिन्दी भाषा में 12 शतकों का सृजन किया है, जो पृथक-पृथक तथा संयुक्त रूप से प्रकाशित हुए हैं। आपके शताधिक अमृत प्रवचनों के 50 संग्रह ग्रंथ भी पाठकों के लिए उपलब्ध हैं। हिन्दी भाषा में लघु कविताओं के 4 संग्रह ग्रंथ -नर्मदा का नरम कंकर, तोता क्यों रोता, चेतना के गहराव में, डूबोमत लगाओ डुबकी आपकी काव्य सुषमा को विस्तारित करती हैं। जापानी छन्द की छायानुसार 500 हाईकू (क्षणिकाओं) का सृजन आपकी अद्भुत प्रतिभा का परिचायक है। कन्नड, बंगला, अंग्रेजी, प्राकृत भाषा में भी आपने रचनाएँ की हैं। हिंसा का ताण्डव देख आचार्यश्री का दयालु दिल सिसक उठा जब उन्होंने कृषि प्रधान अहिंसक देश में गौवंश आदि पशुधन को नष्ट कर माँस का निर्यात किया जाना देखा। तब उन्होंने शंखनाद किया कि ‘गोदाम नहीं, गौधाम चाहिए, भारत अमर बने, अहिंसा नाम चाहिए। घी-दूध-मावा निर्यात करो, राष्ट्र की पहचान बने ऐसा काम चाहिए। जो हिंसा का विधान करे वह सच्चा संविधान नहीं। जो गौवंश काट माँस निर्यात करे, वह सच्ची सरकार नहीं। इसी के फलस्वरूप भारत के 5 राज्यों में 72 गौशालाएँ संचालित हुई, जिनमें आजतक 1 लाख से अधिक गौवंश को कटने से बचाया गया। प्रदूषण के युग में बीमारियों का अम्बार तथा व्यावसायिक चिकित्सा के विकृत स्वरूप के कारण गरीब व मध्यम वर्ग की चिकित्सा के लिए आचार्यश्री की प्रेरणा से सागर (म.प्र.) में ‘भाग्यादय तीर्थ धर्मार्थ चिकित्सालय’ की स्थापना तथा सुशासन-प्रशासन के लिए पिसनहारी मढ़ियाजी जबलपुर व दिल्ली में ‘प्रशासनिक प्रशिक्षण केन्द्र’ की स्थापना हुई। आचार्यश्री की प्रेरणा से ही आधुनिक व संस्कारित शिक्षा के तीन आदर्श विद्यालय जबलपुर, डोंगरगढ़, रामटेक में तथा जयपुर, आगरा, हैदराबाद, इन्दौर व जबलपुर में छात्रावास भी स्थापित किये गये। गरीब व विधवाओं की दुःखी स्थिति देख करुणाशील आचार्य की प्रेरणा से जबलपुर में लघु उद्योग ‘पूरी मैत्री’ संचालित किया गया। विदेशी कम्पनियों के मकडजाल को कम करने के लिए गाँधीजी के द्वारा सुझाये गये स्वदेशी ‘हथकरघा’ की प्रेरणा दी , जिससे अनेक स्थानों पर ‘‘हथकरघा’ उद्योग प्रारम्भ हुए। राष्ट्रीयता व मानवता की स्थापना के लिए पग-पग पर आपकी वाणी सम्प्रेषित करती रहती है कि - 1 भारत में भारतीय शिक्षा पद्धति लागू हो । 2 अंग्रेजी नहीं भारतीय भाषा में व्यवहार हो। 3 छात्र- छात्राओं की शिक्षा पृथक-पृथक हो। 4 विदेशी गुलामी का प्रतीक ‘इण्डिया’ नहीं, हमें गौरव का प्रतीक ‘भारत’ नाम देश का चाहिए। 5 नौकरी नहीं व्यवसाय करो। 6 स्वराज्य को सम्वद्धित करो। 7 बैंकों के भ्रमजाल से बचो और बचाओ। 8 खेतीबाड़ी सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय है। 9 हथकरघा स्वावलम्बी बनने का सोपान है। 10 भारत की मर्यादा साड़ी है। 11 गौशालाएँ जीवित कारखाना है। 12 माँस निर्यात देश पर कलंक है। 13 शत-प्रतिशत मतदान हो। 14 भारतीय प्रतिभाओं का निर्यात रोका जाए। आदि-आदि। ऐसे युगवेत्ता-युगप्रवर्तक आचार्य विद्यासागर को हमारा शत शत नमन।
  4. परमपूज्य गुरुदेव आचार्य विद्यासागरजी महाराज के 50वें संयम दिवस पर अपने भावों की अभिव्यक्ति गुरुदेव की वंदना से प्रारंभ करती हूँ। पहिलउ जयकारउं विद्यासायर परम-मुणि। मुणि-वयणे जाहँ सिद्धन्त-झुणि। झुणि जाहँ अणिट्ठिय रत्तिदिणु। जिणु हियए ण फिट्टइ एक्कु खणु। खणु खणु वि जाहँ ण विचलइ मणु। मणु मग्गइ जाहँ मोक्ख-गमणु गमणु वि जहिं णउ जम्मणु मरणु।। मरणु वि कह होइ मुणिवरहँ। मुणिवर जे लग्गा जिणवरहँ। जिणवर जें लीय माण परहो। परु केव ढुक्कु जें परियणहो। परियणु मणे मण्णिउ जेहिं तिणु। तिण-समउ णाहिं लहु णरय-रिणु। रिणु केम होइ भव-भय-रहिय। भव-रहिय धम्म-संजम-सहिय। जे काय-वाय-मणे णिच्छिरिय जे काम-कोह-दुण्णय-तरिय। ते एक्क-मणेण हउं वंदउं गुरु विद्यासागर परमायरिय। सर्वप्रथम मैं गुरुदेव आचार्य विद्यासागरजी महाराज का जयकार करती हूँ जिन आचार्यश्री की सिद्धान्त-वाणी मुनियों के मुख में रहती है और जिनकी ध्वनि रात-दिन निस्सीम रहती है। जिनके हृदय से जिनेन्द्र भगवान एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते। एक क्षण के लिए भी जिनका मन विचलित नहीं होता मन भी ऐसा कि जो मोक्ष गमन की याचना करता है गमन भी ऐसा कि जिसमें जन्म और मरण नहीं है। मृत्यु भी ऐसे आचार्य की कहाँ होती है जो जिनवर की सेवा में लगे हुए हैं। जिनवर भी वे जो दूसरो का मान ले लेते हैं। जो परिजनों के पास भी पर के समान जाते हैं। जो स्वजनों को अपने में तृण के समान समझते हैं जिनके पास नरक का ऋण तिनके के बराबर भी नहीं है। जो संसार के भय से रहित हैं उन्हें भय हो भी कैसे सकता है वे भय से रहित और धर्म एवं संयम से सहित हैं। जो मन-वचन और काय से कपट रहित हैं काम और क्रोध के पाप से तर चुके हैं। ऐसे परमाचार्य विद्यासागर गुरुदेव को मैं एकमन से वंदना करती हूँ।
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