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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

सरिता जैन

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  1. आचार्य विद्या सागर महाराज जी के चरणों में त्रय बार नमोस्तु ' पर भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर ' का भावार्थ हे निज आत्मन! तू पर-भाव में रमण करना बंद कर और शीघ्र ही दिगंबरत्व की ओर कदम बढा। दिगम्बर होने का अर्थ प्रायः वस्त्र- त्याग को ही माना जाता है, पर यहाँ आचार्य श्री निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग करने की, शरीर के चोले से सदा के लिए मुक्त हो कर मोक्ष पद प्राप्त करने की भावना भाने की बात करते हैं ताकि आत्मा शाश्वत सुख को प्राप्त करके शीघ्र ही सिद्ध शिला पर निवास करे। सरलार्थ- बुद्धिमान लोग कहते हैं कि यह काया जड़ है अर्थात् पुद्गल है जो छेदन-छेदन-भेदन होने पर, गलने-गलने-सड़ने पर नष्ट होने वाली है। जब हमारी आत्मा पर-भाव को छोड़ कर निज स्वभाव में विचरण करती है तो हमें यह ज्ञान हो जाता है कि मरण तो केवल देह का होता है। मैं ( आत्मा) अजर, अमर, अविनाशी हूँ। मेरा मरण कभी नहीं हो सकता। नष्ट होने वाली तो देह ही है जो हमारी नहीं है। यह देह तो एक अम्बर ( वस्त्र ) के समान है जो समय पाकर एक न एक दिन नष्ट होने वाला है। अतः हे निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही अपनी आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा तथा मोक्ष - पद के शाश्वत सुख को प्राप्त करके शीघ्र ही सिद्ध शिला पर निवास कर। राग आदि भाव ही आत्मा का शरीर से बंध के कारण हैं अतः ये भाव हेय हैं अर्थात् त्यागने योग्य हैं। अब तो इन भावों से मुक्त हो कर शुद्ध आत्मा ही उपादेय है अर्थात् प्राप्त करने योग्य है। केवल यही जानने योग्य है कि ' यह शरीर मेरा नहीं है' । तभी हम शरीर के प्रति राग भाव को छोड़ सकेंगे। यदि हम ऐसा विचार करते हैं तो हम अपरिमित सुख को प्राप्त कर सकते हैं। दुःख ही कर्मो के आस्रव ( आने ) का मूल कारण है और संवर ( कर्मो के आस्रव को रोकना ) मोक्ष ( शिवपद ) को देने वाला है। अतः हे निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा। हे आत्मन् ! तू अब तक अज्ञानता के कारण ही ' पर ' को सुख देने वाला मानता आया है और इसी अज्ञानता वश तुझे भयंकर दुःख उठाने पड़े हैं। ऐसी ऊँचाई किस काम की, जहाँ से पतन आरम्भ हो जाए और ऐसे सुख को भी सुख नहीं कहा जा सकता जो दुःख, क्लेश, चिंता व संताप का कारण बन जाए। हे जियरा ! एक बार तो अपने भीतर झांक कर देख जहाँ सुख व शांति का भण्डार भरा हुआ है। अतः हे निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा। स्व-पर का ज्ञान न होने के कारण ही तूने इतना समय व्यर्थ गँवा दिया। हा ! अज्ञानी बन कर सारा समय बिता दिया। सुख तो मिल नहीं पाया बल्कि इसके विपरीत दुःख के बीज ही बोता रहा। ( आप जानते ही होंगे कि दुःख-सुख तो कर्मो के अधीन हैं पर हम दुःख में धैर्य नहीं रख पाते और अपने दुःखों में वृद्धि कर लेते हैं। जैसे यदि एक बीज को ज़मीन में बो दिया जाए तो कुछ समय बाद वह वृक्ष का रूप ले लेता है और उससे असंख्य बीज उत्पन्न हो जाते हैं।) आचार्य श्री विद्या सागर जी हमें यह बोध दे रहे हैं कि अपने ज्ञान चक्षुओं को खोल कर देखो। मनुष्य जन्म के रूप में तुम्हें अनमोल समय प्राप्त हुआ है। अपनी आत्मा में स्थिर हो जाओ और ज्ञानामृत का पान करो और ' पर ' को अपना मान कर अपने जीवन में विष न घोलो। शुभ-अशुभ भावों को त्याग कर शुद्ध उपयोग में लीन हो जाओ। वही तीनों लोकों में सुन्दर है और शाश्वत सुख को देने वाला है। अतः हे निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा तथा मोक्ष पद के शाश्वत सुख को प्राप्त कर के सिद्ध शिला पर वास कर। द्वारा- सरिता जैन, 523, सैक्टर 13, हिसार (हरियाणा)
  2. aacharya shri vidhya sagar ji dwara rachit 'par bhav tyag tu ban.......' New Microsoft Office Word Document.docx
  3. आचार्य विद्या सागर जी महाराज द्वारा रचित गीत का भावार्थ आचार्य श्री कहते हैं कि हे निज आत्मन् ! अभी तक पर को अपना मान कर अनन्त काल से जन्म - मरण के दुःख उठाता आया हूँ, लेकिन अब मैं निज में ही वास करूंगा और शाश्वत सुख प्राप्त करूंगा। सरलार्थ - जितेन्द्र भगवान ने जिस मार्ग पर चलकर अरिहंत पद को प्राप्त किया है, मैं भी उनके द्वारा बताए गए मोक्ष मार्ग पर चल कर उस अरिहंत पद को प्राप्त करूंगा जो कभी न मिटने वाला, असीम, अतुलनीय है और इंद्रियों के सुख से रहित अतीन्द्रिय सुख को देने वाला है। मैं निज (आत्मा) को धर्म के दस लक्षणों से सुशोभित करके विनयपूर्वक, सहजता से उनका पालन करूंगा।अब मैं अपनी आत्मा को मंदिर के समान पवित्र बना कर उसमें ही वास करूंगा। पांचों इंद्रियों के विषयों के भोग विष के समान मेरा घात करू रहे हैं। उनको त्याग कर मैं समता रस का पान करूंगा। न दुःख आने पर दुःख का अनुभव करूंगा और न सुख में सुख का अनुभव करूंगा। दोनों परिस्थितियों में सम भाव रखूंगा। फिर मैं व्यर्थ में जन्म, मरण और वृद्धावस्था से उत्पन्न दुखों को क्यों सहन करूंगा। अब तो मुझे अनन्त सुख का मार्ग मिल गया है। अतः अब मैं निजी में ही वास करूंगा। यह माया ( धन- दौलत, छल- कपट ) वेश्या के समान है जो बाहर से आकर्षक लगती है और भीतर से दुःख देने वाली होती है। अब तो मैं शिव- रमणी के साथ बिना किसी अन्य का संग लिए चिरकाल तक आनंद सहित रहूंगा अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त करूंगा। मै स्वयं को भूलकर पर कोई अपना मानता रहा, उसी में सुख मान कर फूला रहा और सुख- दुःख के झूले में झूलता रहा। पर अब मैं यह भूल कदापि नहीं करूंगा। अब तो मैं स्वयं में ही निरंजन, पवित्र स्वरूप का दर्शन करूंगा। अब मैं निज में ही वास करूंगा। अब मैं हर समय अपने शुद्ध आत्म- स्वरूप को ही प्रणाम करूंगा। मैं तो अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन व अनन्त वीर्य ( शक्ति ) का भण्डार हूँ। इस संपत्ति के कारण साहूकार हूँ। फिर मैं इन्द्रियों का सेवक क्यों बनूं ? मैं तो अरिहंत ( जिसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है ) बन कर अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करूंगा और निज मन के मंदिर में ही वास करूंगा। द्वारा- सरिता जैन, मकान नंबर- 523, सैक्टर- 13, हिसार ( हरियाणा )
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