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प्रवचन Reviews posted by रतन लाल
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आप कर्म व उनके फलों को भिन्न मानकर गौण करो, तभी आत्मा की अनुभूति होगी। मद के अभाव में अनुभूति होगी। वह दुखी रहेगा जो कर्मों की ओर दौड़ रहा है, उनके फलों को चाह रहा है।
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तिर्यञ्च की रक्षा से उतनी धर्म की भावना नहीं होती जितनी साधर्मी की सुरक्षा से। जहाँ गिराने का लक्ष्य है वहाँ कुछ भी नहीं कर सकते। गिराने व बचाने के लिए ज्यादा समय की जरूरत नहीं। जब साधर्मी से प्रेम होगा तो संकट में भी सुरक्षा होगी। जब मद है तो गिराने की दृष्टि होगी। अत: जाति कुल का मद नहीं करना। पहले पंचेन्द्रिय जाति की सुरक्षा न हो, मनुष्य जाति की रक्षा हो। मनुष्य से मद छोड़कर साथी बना लें। पुरुष ही मोक्ष प्राप्त करने में अग्रणी है।
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आज तक हमने पंचमगति को नहीं अपनाया। बल का मद किया, यह मद अध:पतन का प्रतीक है। अत: क्षणिक पौदूलिक पर्यायों को लेकर मद न करें, बल का सदुपयोग कर उपकार करो और जीवन को विकसित बनाओ।
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वास्तविक ऋद्धि तो वीतराग है, जिससे केवल ज्ञान प्राप्त हो सकता है, वह अनन्त है, अविनश्वर है। वीतराग की ऋद्धि को लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ेंगे तो अनादि का दुख छूट जाएगा और अविनश्वर सुख की प्राप्ति होगी। सांसारिक ऋद्धियों के लिए अनन्त समय बीत गया और केवलज्ञान की ऋद्धि के लिए अन्तर्मुहूर्त चाहिए। सम्यक दर्शन, ज्ञान, वीतरागता ही ऋद्धि है बाकी सब विषयों की वृद्धि हैं, उनसे केवलज्ञान नहीं होगा। अत: ऋद्धियों पर मद नहीं करना चाहिए। केवलज्ञान प्राप्त करने के साधनों को अपनावें और शक्ति का सदुपयोग करें।
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अन्दर जाने के लिए विकार रूपी रिबन को काटना पड़ेगा। बाहरी तप को लेकर यदि मद करेंगे तो तीन काल में भी अन्दर प्रवेश नहीं हो सकेगा, रहस्य समझ में नहीं आ सकेगा। अंतिम लक्ष्य अन्दर जाना होना चाहिए। बाहरी प्रक्रिया तो मात्र साधन है। अन्दर जाने पर निराकृत अवस्था प्राप्त हो जाएगी।
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शरीर को लेकर मद, अभिमान न करो तीर्थकर भगवान्, साधु परमेष्ठी कहते हैं कि मद आदि तेरा स्वभाव नहीं है। अत: उन्हें छोड़ो। आठों मदों को छोड़कर संसार नश्वरता के बारे में कर्म की विचित्रता के बारे में, अध्ययन करें और केवलज्ञान की प्राप्ति करें।
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अज्ञान दुख का मूल कारण है, विज्ञान सुख का कारण है। हेय को छोड़ना होगा और उपादेय को पाना होगा। सही रास्ते पर लग जायें तो समझो भेद विज्ञान हो गया। विषय-कषायों से मुख मोड़ो तभी आत्म-दर्शन होगा वरना तो दुख ही दुख है।
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महावीर ने जो राह बताई, वह हमें अक्षुण्ण मिल रही है। आप किसी भी स्थिति में रहे, कहीं भी रहें, यह भाव हो- कि सुखी रहे सब जीव जगत के कोई कभी न घबराये, बैर पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावें- ये भाव इतने उज्ज्वल हैं कि पैसे से प्रभावना की जरूरत नहीं। मात्र मन में महावीर को याद रखते हुए ये भाव धारण करेंगे तो आपको भी शांति मिलेगी।
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धन को गौण कर धर्म की बात करें। जब दूसरों पर संकट नहीं तब दुख का अनुभव नहीं होगा। आप जितने-जितने दुख को दूर करेंगे तभी समझो कि धर्म रूपी तीर्थ में प्रयास कर रहे हैं। मात्र धर्म की ओर दृष्टि रखकर कार्य करेंगे तो कर्म का क्षय होगा, धर्म के चिह्न मिलेंगे, अन्दर की शक्ति बाहर आएगी। आत्मा की ओर दृष्टिपात करो, तभी आनन्द की अनुभूति होगी।
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सामने भगवान् विराजमान हैं, जिनका आलम्बन लेना है। वह आत्मानुभूति कैसे हो सकती है? महान् दैदीप्यमान दीपक जल रहा है। पर दिखने में नहीं आ रहा है। उसके दिखे बिना अन्धकार छाया हुआ है। दूसरे से लाइट मांग रहे हैं, पर सर्च लाइट जो तेरे पास है, उसका बटन दबाना नहीं चाहता है।
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संत तो स्वयं मानस के पार आत्मस्थ जीवन जीते हैं उनके प्रति कुछ कहना, व लिखना अत्यन्त कठिन है।
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मिथ्यात्व रूपी विकार, दृष्टि से निकलना चाहिए तभी दृष्टि समीचीन बनेगी, और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशम से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी।
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पानी एक ही है, किन्तु जो जैसा बनना चाहता है उसकी वैसी ही सहायता कर देता है। इसी प्रकार नग्न रूप वीतरागता को पुष्ट करता है किन्तु यदि कोई उससे राग का पाठ ग्रहण करना चाहें, तो ग्रहण करें, इसमें उस नग्न रूप का क्या दोष? ये तो दृष्टि का खेल है।
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अपने विनय गुण का विकास करो। विनय गुण से असाध्य कार्य भी सहज साध्य बन जाते हैं। यह विनय गुण ग्राह्य है, उपास्य है, आराध्य है।
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सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिए, वे व्रत नियम बड़े मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण करके उनका निर्दोष पालन करते रहें, तो कोई कारण नहीं कि सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न न हों।
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हम अमूर्त हैं, हमें छुआ नहीं जा सकता, हमें चखा नहीं जा सकता, हमें खूंघा नहीं जा सकता, किन्तु फिर भी हम मूर्त बने हुए हैं क्योंकि हमारा ज्ञान मूर्त में संजोया हुआ है। अपने उस अमूर्त स्वरूप की उपलब्धि, ज्ञान की धारा को अन्दर आत्मा की ओर मोड़ने पर ही सम्भव है।
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संवेगधारी व्यक्ति अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता है। चाहे वह कहीं भी रहे, किन्तु संवेग से रहित व्यक्ति स्वर्ग सुखों के बीच भी दुख का अनुभव करता है और दुखी ही रहता है |
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त्याग में कोई शर्त नहीं होनी चाहिए। किन्तु हमेशा से आप लोगों का त्याग शर्त युक्त रहा है। दान के समय भी आपका ध्यान आदान में लगा रहता है। यदि कोई व्यक्ति सौ रुपये के सवा सौ रुपये प्राप्त करने के लिये त्याग करता है तो वह कोई त्याग नहीं माना जायेगा। यह दान नहीं है, आदान है।
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इच्छाएँ प्रत्येक के पास हैं किन्तु इच्छा का निरोध केवल तप द्वारा ही संभव है। यदि इच्छाओं का निरोध नहीं हुआ, तो ऐसा तप भी तप नहीं कहा जायेगा।‘तपसा निर्जरा च' अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है। यदि तप करने से आकुलता हो और निर्जरा न हो तो वह तप भी तप नहीं है।
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समाधि ध्रुव है, वहाँ न आधि है, न व्याधि है और न ही कोई उपाधि है। मानसिक विकार का नाम आधि है। शारीरिक विकार व्याधि है। बुद्धि के विकार को उपाधि कहते हैं। समाधि मन, शरीर और बुद्धि से परे हैं। समाधि में न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है और न विषाद। जन्म और मृत्यु शरीर के हैं। हम विकल्पों में फँस कर जन्म-मृत्यु का दुख उठाते हैं। अपने अन्दर प्रवाहित होने वाली अक्षुण्ण चैतन्य-धारा का हमें कोई ध्यान ही नहीं। अपनी वैकालिक सत्ता को पहिचान पाना सरल नहीं है। समाधि तभी होगी जब हमें अपनी सत्ता की शाश्वतता का भान हो जायेगा।
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वास्तव में, दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। दूसरे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे अपने अंतरंग में उतरना, यही सबसे बड़ी सेवा है। वास्तविक सुख स्वावलम्बन में है।
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जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ।' यही है सच्ची अहत् भक्ति की भूमिका।
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मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा साधु का पद है। आचार्य अपने पद पर रहकर मात्र उपदेश और आदेश देते हैं, किन्तु साधना पूरी करने के लिये साधु पद को अंगीकार करते हैं। मोक्षमार्ग का भार साधु ही वहन करता है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों में और चार शरण पदों में आचार्य पद को पृथक् ग्रहण न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है।
प्रवचन सुरभि 72 - पूजा का मद
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In विद्या वाणी
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मानाभिभूत मुनि आतम को न जाने,
तो वीतराग प्रभु को वह क्या पिछाने ?
जो ख्याति लाभ निज पूजन चाहता है,
ओ! पाप का वहन ही करता वृथा है।