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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. पाता सदैव तप संयम से प्रशंसा, ओ धर्म मंगलमयी जिसमें अहिंसा। जो भी उसे विनय से उर में बिठाते, सानंद देव तक भी उनको पुजाते ॥८२॥ है वस्तु का धरम तो उसका स्वभाव, सच्ची क्षमादि दशलक्षण धर्म-नाव। ज्ञानादि रत्नत्रय धर्म, सुखी बनाता, है विश्व धर्म त्रस थावर प्राणि त्राता ॥८३॥ प्यारी क्षमा, मृदुलता, ऋजुता सचाई, औ शौच्य संयम धरो, तप से भलाई। त्यागो परिग्रह,अकिंचन गीत गा लो, लो!ब्रह्मचर्य सर में डुबकी लगा लो ॥८४॥ हो जाय घोर उपसर्ग नरों सुरों से, या खेचरों पशुगणों जन-दानवों से। उद्दीप्त हो न उठती यदि क्रोध ज्वाला, मानो उसे तुम क्षमामृत पेय प्याला ॥८५॥ प्रत्येक काल सब को करता क्षमा मैं, सारे क्षमा मुझ करें नित माँगता मैं। मैत्री रहे जगत के प्रति नित्य मेरी, हो वैर-भाव किससे जब हैं न वैरी ॥८६॥ मैंने प्रमाद वश दुःख तुम्हें दिया हो, किंवा कभी यदि अनादर भी किया हो। ना शल्य मान मन में रखता मुधा मैं, हूँ माँगता विनय से तुमसे क्षमा मैं ॥८७॥ हूँ श्रेष्ठ जाति कुल में श्रुत में यशस्वी, ज्ञानी सुशील अति सुंदर हूँ तपस्वी। ऐसा नहीं श्रमण हो, मन मान लाते, निर्भीत वे परम मार्दव धर्म पाते ॥८८॥ देता न दोष पर को, गुण ढूँढ लेता, निन्दा करे स्वयं की मन अक्ष जेता। मानी वही नियम से गुणधाम ज्ञानी, कोई कभी गुण बिना बनता न मानी ॥८९॥ सर्वोच्च गोत्र हमने बहुबार पाया, पा नीच गोत्र, दुख जीवन है बिताया। मैं उच्च की इसलिए करता न इच्छा, स्थाई नहीं क्षणिक चंचल उच्च-नीचा ॥९०॥ आचार में वचन में व विचार में भी, जो धारता कुटिलता नहिं स्वप्न में भी। योगी वही सहज आर्जव धर्म पाता, ज्ञानी कदापि निज दोष नहीं छिपाता ॥९१॥ मिश्री मिले वचन वे रुचते सभी को, संताप हो श्रवण से न कभी किसी को। कल्याण हो स्व-पर का मुनि बोलता है, हो सत्य धर्म उसका दृग खोलता है ॥९२॥ हो चोर चौर्य करता विषयाभिलाषी, पाता त्रिकाल दुख हाय असत्य-भाषी। देखो जभी दुखित ही वह है दिखाता, सत्यावलम्बन सदीव सुखी बनाता ॥९३॥ साधर्मि के वचन आज नहीं सुहाते, हैं पथ्य रूप, फलतः कटु दीख पाते। पीते अतीव कड़वी लगती दवाई, नीरोगता फल मिले मति मुस्कुराई ॥९४॥ विश्वास पात्र जननी-सम सत्यवादी, हो पूजनीय गुरु सादृश अप्रमादी। वे विश्व को स्वजन भाँति सदा सुहाते, वंदें उन्हें सतत मैं शिर को झुकाते ॥९५॥ ज्ञानादि मौलिक सभी गुण वे अनेकों, है सत्य में निहित संयम शील देखो। आवास ज्यों जलधि है जलजीवियों का, त्यों सत्यधर्म जग में सब सद्गुणों का ॥९६॥ ज्यों ज्यों विकास धन का क्रमशः बढ़ेगा, त्यों त्यों प्रलोभ बढ़ता बढ़ता बढ़ेगा। संपन्न कार्य कण से जब जो कि पूरा, होता वही न मन से रहता अधूरा ॥९७॥ पा सैकड़ों कनक निर्मित पर्वतों को, होगी न तृप्ति फिर भी तुम लोभियों को। आकाश है वह अनंत अनंत आशा, आशा मिटे, सहज हो परितः प्रकाशा ॥९८॥ त्यों मोह से जनम,तामस लोभ का हो, या लोभ से दुरित कारण मोह का हो। ज्यों वृक्ष ओ! उपजता उस बीज से है, या बीज जो उपजता इस वृक्ष से है ॥९९॥ संतोष धार, समता जल से विरागी, धोते प्रलोभ मल को बुध संत त्यागी। लिप्सा नहीं अशन में रखते कदापि, हो शौच्य-धर्म उनका, तज पाप पापी ॥१००॥ जो पालना समिति, इन्द्रिय जीतना है, है योग-रोध करना, व्रत धारना है। सारी कषाय तजना मन मारना है, भाई वही सकल संयम साधना है ॥१०१॥ फोड़ा कषाय घट को, मन को मरोड़ा, है योगि ने विषय को विष मान छोड़ा। स्वाध्याय ध्यान बल से निज को निहारा, पाया नितांत उसने तप धर्म प्यारा॥१०२॥ वैराग्य धार भवभोग शरीर से ओ! देखा स्व को यदि सुदूर विमोह से हो। तो त्याग धर्म समझो उनने लिया है, संदेश यों जगत को प्रभु ने दिया है ॥१०३॥ भोगोपभोग मिलने पर भी कदापि, जो भोगता न उनको बनता न पापी। त्यागी वही नियम से जग में कहाता, भोगी न भोग तजता, भव योग पाता ॥१०४॥ जो अंतरंग बहिरंग निसंग नंगा, होता दुखी नहिं सुखी बस नित्य चंगा। भाई! वही वर अकिंचन धर्म पाता, पाता स्वकीय सुखको, अघ को खपाता ॥१०५॥ हूँ शुद्ध पूर्ण दृग-बोधमयी सुधा से, मैं एक हूँ पृथक हूँ सबसे सदा से। मेरा न और कुछ है नित मैं अरूपी, मेरी नहीं जड़मयी यह देह रूपी ॥१०६॥ मैं हूँ सुखी रह रहा सुख से अकेला, मेरा न और कुछ है गुरु भी न चेला। उद्दीप्त हो यदि जले मिथिला यहाँरे, बोले ‘नमी' कि उससे मम हानि क्यारे॥१०७॥ निस्सार जान जिनने व्यवहार सारा, छोड़ा, रखा न कुछ भी कुल पुत्र दारा। ऐसा कहें सतत वे सब सन्त सच्चे, कोई पदार्थ जग में न बुरे न अच्छे ॥१०८॥ ज्यों पद्म जो जलज हो जल से निराला, ओ ना गले नहिं सड़े रहता निहाला। त्यों भोग में न रचता पचता नहीं है, है वन्द्य ब्राह्मण यहाँ जग में वही है ॥१०९॥ ना मोह भाव जिसमें दुख को मिटाया, तृष्णा-विहीन मुनि, मोहन को नशाया। तृष्णा विनष्ट उससे यति जो न लोभी, हो लोभ नष्ट उससे बिन संग जो भी ॥११०॥ जो देह नेह तजता निज ध्यान-धारी, है ब्रह्मचर्य उसकी वह वृत्ति सारी। है जीव ही परम ब्रह्म सदा कहाता, हूँ बार-बार उसको शिर मैं नवाता ॥१११॥ चंद्रानना, मृगदृगी, मृदुहासवाली, लीलावती, ललित ये ललना निराली। देखो इन्हें, पर कभी न बनो विकारी, मानो तभी कि हम हैं सब ब्रह्मचारी ॥११२॥ संसर्ग पा अनल का झट लाख जैसा, स्त्री संग से पिघलता अनगार वैसा। योगी रहे इसलिए उनसे सुदूर, एकांत में, विपिन में, निज में जरूर ॥११३॥ कामेन्द्रि का दमन रे! जिसने किया है, कोई नहीं अब उसे कठिनाइयाँ हैं। जो धैर्य से अमित सागर पार पाता, क्या शीघ्र से न सरिता वह तैर जाता? ॥११४॥ नारी रहो, नर रहो जब शीलधारी, स्त्री से बचे नर, बचे नर से सुनारी। स्त्री आग है, पुरुष है नवनीत भाई, उद्दीप्त एक, पिघले, मिलते बुराई ॥११५॥ होती सुशोभित तथापि सुनारि जाति, फैली दिगंत तक है जिन-शील-ख्याति। ये हैं पवित्र धरती पर देवताएँ, पूजें इन्हें नित सुरासुर अप्सराएँ ॥११६॥ कामाग्नि से जल रहा त्रयलोक सारा, देखो जहाँ विषय की लपटें अपारा। वे धन्य हैं यदपि पूर्ण युवा बने हैं, सत्शील से लस रहे, निज में रमे हैं ॥११७॥ जो एक, एक कर रात व्यतीत होती, आती न लौट, जनता रह जाय रोती। मोही अधर्म-रत है, उसकी निशाएँ, जाती वृथा सुखद हैं उलटी दिशाएँ ॥११८॥ ले द्रव्य को वणिक तीन चले कमाने, जाके बसे शहर में खुलतीं दुकानें। है विज्ञ एक उनमें धन को बढ़ाता, है एक मूल धन लेकर लौट आता ॥११९॥ ओ मूढ़, मूल धन को जिसने आँवाया, सारा गया वितथ हाय! किया कराया। ऐसा हि कार्य अबलौं हमने किया है, सद्धर्मपा उचित कार्य कहाँ किया है? ॥१२०॥ आत्मा स्वरूप रत आतम को जनाता, शुद्धात्म रूप निज साक्षिक धर्म भाता। आत्मा उसी तरह से उसको निभावे, शीघ्रातिशीघ्र जिससे सुख पास आवे ॥१२१॥
  2. क्षमा, अनुराग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/kshama-anuraag/
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