इस तरह स्थितिबन्ध को कहकर अब अनुभवबन्ध को कहते हैं-
विपाकोऽनुभवः ॥२१॥
अर्थ - विशिष्ट अथवा नाना प्रकार के पाक यानि उदय को विपाक कहते हैं और विपाक को ही अनुभव कहते हैं।
English - Fruition is the ripening or maturing of karmas.
विशेषार्थ - छठे अध्याय में बतलाया है कि कषाय की तीव्रता या मन्दता के होने से कर्म के आस्रव में विशेषता होती है। और उसकी विशेषता से कर्म के उदय में अन्तर पड़ता है। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से भी कर्म के फल देने में विविधता होती है। अतः कर्म जो अनेक प्रकार का फल देता है, उस फल देने का नाम ही अनुभव या अनुभाग है। शुभ परिणामों की अधिकता होने से शुभ प्रकृतियों में अधिक रस पड़ता है और अशुभ प्रकृतियों में मन्द रस पड़ता है। तथा अशुभ परिणामों की अधिकता होने से अशुभ प्रकृतियों में अधिक रस पड़ता है और शुभ प्रकृतियों में मन्द रस पड़ता है। इस तरह परिणामों की विचित्रता से अनुभाग बन्ध में भी अन्तर पड़ता है।
कर्मों का यह अनुभाग दो रूप से होता है-एक स्वमुख से और दूसरे परमुख से। आठों मूल कर्मों का अनुभाग स्वमुख से ही होता है। अर्थात् प्रत्येक कर्म अपने रूप में ही अपना फल देता है, एक उत्तरकर्म दूसरे उत्तरकर्म रूप होकर एक जाति की हैं, वे आपस में अदल-बदल कर भी फल देती हैं। जैसे असातावेदनीय सातावेदनीय रूप से भी फल दे सकता है। मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण रूप से उदय में आ सकता है। इसको परमुख से फल देना कहते हैं। परन्तु कुछ उत्तर प्रकृतियाँ भी ऐसी हैं जो स्वमुख से ही अपना फल देती है। जैसे, दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय रूप से फल नहीं देता और न चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय रूप से फल देता है। इसी तरह चारों आयु भी अपने रूप ही फल देती हैं, परस्पर में अदल-बदल कर फल नहीं देती। अर्थात् किसी ने नरकायु का बन्ध किया हो और उसका फल मनुष्यायु या तिर्यञ्चायु के रूप में मिले, यह सम्भव नहीं है। उसे नरक में ही जाना होगा।