जैसे इन व्रतों को दृढ़ करने के लिए ये भावनाएँ कहीं हैं, वैसे ही इन व्रतों के विरोधी जो हिंसा आदि हैं, उनसे विमुख करने के लिए भी भावनाएँ कहते हैं-
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥
अर्थ - हिंसा आदि पाँच पाप इस लोक और परलोक में विनाशकारी। तथा निन्दनीय हैं, ऐसी भावना करनी चाहिए।
English - The consequences of violence, falsehood, stealing, unchastity, and attachment are calamity and reproach in this world and in the next birth.
विशेषार्थ - अर्थात् हिंसा के विषय में विचारना चाहिए कि जो हिंसा करता है, लोग सदा उसके बैरी रहते हैं। इस लोक में उसे फाँसी वगैरह होती है और मर कर भी वह नरक आदि में जन्म लेता है। अतः हिंसा से बचना ही श्रेष्ठ है। इसी तरह झूठ बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता। इसी लोक में पहले राजा उसकी जीभ कटा लेता था। तथा उसके झूठ बोलने से जिन लोगों को कष्ट पहुँचता है, वे भी उसके दुश्मन हो जाते हैं और उसे भरसक कष्ट देते हैं। तथा मर कर वह अशुभगति में जन्म लेता है, अतः झूठ बोलने से बचना ही उत्तम है। इसी तरह चोर का सब तिरस्कार करते हैं। इसी लोक में उसे राजा की ओर से कठोर दण्ड मिलता है तथा मर कर भी अशुभगति में जाता है। अतः चोरी से बचना ही उत्तम है। तथा व्यभिचारी मनुष्य का चित्त सदा भ्रान्त रहता है। जैसे जंगली हाथी जाली हथिनी के धोखे में पड़कर पकड़ा जाता है, वैसे ही व्यभिचारी भी जब पकड़ा जाता है तो उसकी पूरी दुर्गति लोग कर डालते हैं। पुराने जमाने में तो ऐसे आदमी का लिंग ही काट डाला जाता था। आज कल भी उसे कठोर दण्ड मिलता है। मर कर भी वह दुर्गति में जाता है, अतः व्यभिचार से बचना ही हितकर है। तथा जैसे कोई पक्षी मांस का टुकड़ा लिये हो तो अन्य पक्षी उसके पीछे पड़ जाते हैं, वैसे ही परिग्रही मनुष्य के पीछे चोर लगे रहते हैं। उसे धन के कमाने, जोड़ने और उसकी रखवाली करने में भी कम कष्ट नहीं उठाना पड़ता। फिर भी उसकी तृष्णा कभी शान्त नहीं होती, तृष्णा के वशीभूत होकर उसे न्याय अन्याय का ध्यान नहीं रहता। इसी से मरकर वह दुर्गति में जाता है। यहाँ भी ‘लोभी लोभी कहकर लोग उसकी निन्दा करते हैं। अतः परिग्रह से बचना ही श्रेष्ठ है। इस तरह हिंसा आदि पापों की बुराई भी सोचते रहना चाहिए।