अब आगे यह बतलाते हैं कि कौन कौन जीव पूरी आयु भोग कर ही मरण करते है-
औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥५३॥
अर्थ - औपपादिक अर्थात् देव नारकी, चरमोत्तम-देह अर्थात् उसी भव से मोक्ष जाने वाले और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिया जीव पूरी आयु भोगकर ही शरीर छोड़ते हैं, विष, शस्त्र वगैरह से इनकी आयु नहीं छिदती। इसके सिवा शेष जीवों की आयु का कोई नियम नहीं है।
English - The lifetime of living beings born in special beds, those with absolute superior bodies and those with innumerable years, cannot be cut short.
विशेषार्थ - कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यचों की भुज्यमान आयु की उदीरणा होती है। उदीरणा के होने से आयु की स्थिति जल्दी पूरी हो कर अकाल में ही मरण हो जाता है। जैसे आम वगैरह को पाल देकर समय से पहले ही पका लिया जाता है। एक उदाहरण के द्वारा इसे स्पष्ट किया जाता है किसी जीव ने मनुष्यायु का बन्ध किया और उसकी स्थिति सौ वर्ष की बाँधी। सो आयु-कर्म का जितना प्रदेश बन्ध किया, सौ वर्ष के जितने समय होते हैं, उतने समयों में उन कर्म परमाणुओं की निषेक रचना तत्काल हो गयी। जब वह मर कर मनुष्य पर्याय में उत्पन्न हुआ तो प्रति समय आयु कर्म का एक एक निषेक उदय में आ कर खिरने लगा। यदि इसी तरह क्रम से एक एक समय में एक एक आयु का निषेक उदय में आता रहता तो सौ वर्ष में जा कर पूरे निषेक खिरते और इस तरह वह जीव पूरे सौ वर्ष तक मनुष्य पर्याय में रह कर मरण करता। किन्तु बावन वर्ष की उम्र तक तो एक-एक समय में एक-एक निषेक की निर्जरा होती रही। बाद में पापकर्म का उदय आ जाने से किसी ने उसे जहर दे दिया अथवा उसने स्वयं जहर खा लिया, या कोई भयानक रोग हो गया, अथवा किसी ने मार डाला तो अड़तालीस वर्षों में उदय आने वाले निषेकों की अन्तर्मुहूर्त में उदीरणा हो जाती है। यह अकाल मरण कहलाता है। किन्तु यदि किसी ने बावन वर्ष की ही आयु बाँधी हो और वह बावन वर्ष की आयु पूरी करके मरे तो वह अकाल मरण नहीं है।
शंका - जैसे कर्मभूमि के मनुष्यों और तिर्यञ्चों की आयु घट जाती है वैसे ही आयु बढ़ भी सकती है या नहीं ?
समाधान - जो आयु हम भोग रहे हैं, वह बढ़ नहीं सकती, क्योंकि उस आयु का बन्ध पूर्व जन्म में हो चुका है। अतः उसमें अब बढ़ने की गुंजाइश नहीं है, हाँ, घट जरूर सकती है।
॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥