अब संज्ञी जीव का स्वरूप बतलाते हैं-
संज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥
अर्थ - मन सहित जीवों को संज्ञी कहते हैं, तथा मन रहित जीव असंज्ञी कहलाते हैं। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चौ इन्द्रिय जीव तो सब असंज्ञी ही होते हैं। पञ्चेन्द्रियों में देव, नारकी और मनुष्य संज्ञी ही होते हैं, किन्तु तिर्यञ्च मन रहित भी होते हैं।
English - The five-sensed beings with the mind (capability to receive and judge the good and the bad) are called sangyi.
शंका - मन का काम हित और अहित की परीक्षा करके हित को ग्रहण करना और अहित को छोड़ देना है। इसी को संज्ञा कहते हैं। अतः जब संज्ञा और मन दोनों का एक ही अभिप्राय है तो ‘संज्ञी' और 'समनस्क' का मतलब भी एक ही है। फिर सूत्र में दोनों पद क्यों रखे ? केवल ‘संज्ञिनः' कहने से भी काम चल सकता है ?
समाधान - यह आपत्ति ठीक नहीं है; क्योंकि प्रथम तो ‘संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ हैं- संज्ञा नाम को भी कहते हैं। अतः जितने नामवाले पदार्थ हैं, वे सब संज्ञी कहलायेंगे। संज्ञा ज्ञान को भी कहते हैं और ज्ञान सभी जीवों में पाया जाता है। अतः सभी संज्ञी कहे जायेंगे। भोजन वगैरह की इच्छा का नाम भी संज्ञा है, जो सभी संसारी जीवों में पायी जाती हैं; अतः सभी संज्ञी हो जायेंगे। इसलिए जिसके मन है, उसी को संज्ञी कहना उचित है।
दूसरे, गर्भ अवस्था में, मूर्छित अवस्था में, सुप्त अवस्था में हित अहित का विचार नहीं होता, अतः उस अवस्था में संज्ञी जीव भी असंज्ञी कहे जायेंगे। किन्तु मन के होने से उस समय भी वे संज्ञी ही हैं। अतः संज्ञी और समनस्क दोनों पदों को रखना ही उचित है।
शंका - जिस समय जीव पूर्व शरीर को छोड़ कर नया शरीर धारण करने के लिए जाता है, उस समय उसके मन तो रहता नहीं है। फिर वह कैसे गमन करता है ?
इस शंका का समाधान करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-