अब क्रमानुसार तो केवलज्ञान का लक्षण कहना चाहिए, किन्तु केवलज्ञान का स्वरूप आगे दसवें अध्याय में कहेंगे। अतः ज्ञानों का विषय बतलाते हुए प्रथम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय बतलाते हैं-
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व-पर्यायेषु ॥२६॥
अर्थ - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय का नियम द्रव्यों की कुछ पर्यायों में हैं। अर्थात् ये दोनों ज्ञान द्रव्यों की कुछ पर्यायों को जानते हैं, सब पर्यायों को नहीं जानते।
English - The range of sensory knowledge and scriptural knowledge extends to all the six substances but not to all their modes.
विशेषार्थ - इस सूत्र में ‘विषय' शब्द नहीं है, अतः ‘विशुद्धि क्षेत्र आदि सूत्र से ‘विषय' शब्द ले लेना चाहिए। तथा ‘द्रव्येषु' शब्द बहुवचन का रूप हैं इसलिए जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी द्रव्यों का ग्रहण करना चाहिए। इन द्रव्यों में से एक-एक द्रव्य की अनन्त पर्यायें होती हैं। उनमें से कुछ पर्यायों को ही मति, श्रुत ज्ञान जानते हैं।
शंका - धर्म, अधर्म आदि द्रव्य तो अमूर्तिक हैं। वे मतिज्ञान के विषय नहीं हो सकते । अतः सब द्रव्यों को मतिज्ञान जानता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है ?
समाधान - यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि मन की सहायता से होने वाला मतिज्ञान अमूर्तिक द्रव्यों में भी प्रवृत्ति कर सकता है और मनपूर्वक अवग्रह आदि ज्ञान होने पर पीछे श्रुतज्ञान भी अपने योग्य पर्यायों को जान लेता है। अतः कोई दोष नहीं है।