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वतन की उड़ान: इतिहास से सीखेंगे, भविष्य संवारेंगे - ओपन बुक प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 1 : सूत्र 23

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    Vidyasagar.Guru

    अब मन:पर्यय ज्ञान का कथन करते हैं-

     

    ऋजुविपुलमती मन:पर्ययः॥२३॥

     

     

    अर्थ - मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति दूसरे के मन में सरल रूप में स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, उसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कहते हैं और दूसरे के मन में सरल अथवा जटिल रूप में स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, उसे विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कहते हैं।

     

    English -  Rjumati, and vipulamati are the two kinds of telepathy (manahpayaya).

     

    विशेषार्थ - देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, सभी के मन में स्थित विचार को मन:पर्यय ज्ञान जानता है, किन्तु वह विचार रूपी पदार्थ अथवा संसारी जीव के विषय में होना चाहिए। अमूर्तिक द्रव्यों और मुक्तात्माओं के विषय में जो चिन्तन किया गया होगा, उसे मन:पर्यय नहीं जान सकता। तथा उन्हीं जीवों के मन की बात जान सकता है, जो मनुष्य लोक की सीमा के अन्दर हों। इतना विशेष है कि मनुष्यलोक तो गोलाकार है, किन्तु मन:पर्यय ज्ञान का क्षेत्र गोलाकार न होकर पैंतालीस लाख योजन लम्बा चौड़ा चौकोर है। उसके दो भेदों में से ऋजुमति तो केवल उसी वस्तु को जान सकता है, जिसके बारे में स्पष्ट विचार किया गया हो अथवा मन, वचन और काय की चेष्टा के द्वारा जिसे स्पष्ट कर दिया गया हो, किन्तु विपुलमति मनःपर्यय चिन्तित, अचिन्तित और अर्ध-चिन्तित को भी जान लेता है।


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