आगे बतलाते हैं कि मतिज्ञान किससे उत्पन्न होता है-
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्॥१४॥
अर्थ - वह मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों की और अनिन्द्रिय यानि मन की सहायता से होता है।
English - That is caused by the senses and the mind.
विशेषार्थ - इन्द्र अर्थात् आत्मा। आत्मा के चिह्न विशेष को इन्द्रिय कहते हैं। आशय यह है कि जानने की शक्ति तो आत्मा में स्वभाव से ही है, किन्तु ज्ञानावरण कर्म का उदय रहते हुए वह बिना बाह्य सहायता के स्वयं नहीं जान सकता। अतः जिन अपने चिह्नों के द्वारा वह पदार्थों को जानता है, उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। अथवा, आत्मा तो सूक्ष्म है, दिखायी नहीं देता। अतः जिन चिह्नों से आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है, उन्हें इन्द्रिय कहते हैं; क्योंकि इन्द्रियों की प्रवृत्ति से ही आत्मा के अस्तित्व का पता लगता है। अथवा, इन्द्र यानि नामकर्म। उसके द्वारा जो रची जाय उसे इन्द्रिय कहते है |
शंका - जो इन्द्रिय नहीं, उसे अनिन्द्रिय कहते हैं। तब मन को अनिन्द्रिय क्यों कहा ? क्योंकि वह भी तो इन्द्र अर्थात् आत्मा का चिह्न है, उसके द्वारा भी आत्मा जानता है ?
समाधान - यहाँ अनिन्द्रिय का मतलब ‘इन्द्रिय नहीं' ऐसा मत लेना, किन्तु ‘किंचित् इन्द्रिय’ लेना। अर्थात्, मन किंचित् इन्द्रिय है, पूरी तरह से इन्द्रिय नहीं है। क्योंकि इन्द्रियों का तो स्थान भी निश्चित है और विषय भी निश्चित है। जैसे - चक्षु शरीर के अमुक भाग में ही पायी जाती है। तथा वह रूप को ही जानती है। किन्तु मन का न तो कोई निश्चित स्थान ही है और न कोई निश्चित विषय ही है; क्योंकि जैन सिद्धान्त में ऐसा बतलाया है कि आत्मा के जिस प्रदेश में ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी स्थान के अंगुल के असंख्यातवें भाग आत्मप्रदेश उसी समय मनरूप हो जाते हैं तथा मन की प्रवृत्ति भी सर्वत्र देखी जाती है, इसलिए उसे अनिन्द्रिय कहा है। मन को अन्तःकरण भी कहते हैं, क्योंकि एक तो वह आँख वगैरह की तरह बाहर में दिखायी नहीं देता। दूसरे, मन का प्रधान काम गुण-दोष का विचार तथा स्मरण आदि है। उसमें वह इन्द्रियों की सहायता नहीं लेता। अतः उसे अन्त:करण भी कहते हैं।