जैनधर्म में दो प्रकार के पर्व मनाते हैं। एक शाश्वत पर्व दूसरा नैमित्तिक पर्व अष्टाह्निक, अष्टमी, चतुर्दशी पर्व शाश्वत् हैं शेष नैमित्तिक पर्व हैं । अक्षय तृतीया नैमित्तिक पर्व है, इसका वर्णन इस अध्याय में है ।
1. अक्षय तृतीया पर्व कब मनाते हैं ?
वैशाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व मनाया जाता है।
2. यह पर्व क्यों मनाते हैं ?
आज से बहुत वर्ष पूर्व छ: माह का उपवास लेकर राजा ऋषभदेव ने मुनि दीक्षा धारण की उसके बाद मुनि ऋषभदेव जब आहारचर्या के लिए निकले उस समय श्रावकों को यह ज्ञात नहीं था कि मुनि ऋषभदेव किसलिए निकले हैं। श्रावक बड़ी भक्ति से मुनि ऋषभदेव को नमस्कार करते हैं। अनेक श्रावक पूछते हैं कि राजन् ! आप क्यों भ्रमण कर रहे हैं । आपको क्या चाहिए ? मुनि तो मौन रहे श्रावकों ने बहुमूल्य रत्न देने चाहे किसी ने हाथी, घोड़ा, रथ आदि सवारियाँ देना चाहा, किसी ने सुन्दर - सुन्दर वस्त्र भेंट करना चाहा, कोई-कोई श्रावक 56 प्रकार के व्यञ्जनों की थाली सजा - सजाकर ले आए वह भी मुनिराज को देना चाह रहे । किसी श्रावक ने कहा महाराज इन सुन्दर - सुन्दर कन्याओं से विवाह कर लीजिए। उन्होंने कुछ भी ग्रहण नहीं किया। उन कन्याओं को स्वीकार नहीं किया तो वे कन्यायें कहने लगी अपनी ओर तो देखा भी नहीं। मुनि ऋषभदेव को इन सब की आवश्यकता नहीं थी । उन्हें तो नवधा भक्तिपूर्वक शुद्ध आहार की आवश्यकता थी । जो कोई भी श्रावक देना नहीं जानता था ।
नवधा भक्ति पूर्वक आहार न मिलने से वे प्रतिदिन आहार चर्या के लिए निकलते और विहार करते करते हस्तिनापुर पहुँचने के पूर्व रात्रि में राजा श्रेयांस ने सात शुभ स्वप्न देखे - 1. सुमेरु पर्वत, 2. शाखाओं के अग्रभाग पर लटकते हुए आभूषणों से सुशोभित कल्पवृक्ष, 3. गर्दन के बालों से जिसके कन्धे ऊँचे हो रहे हैं, ऐसा सिंह देखा, 4. किनारे को उखाड़ता हुआ बैल देखा, 5. सूर्य और चन्द्रमा देखें, 6. लहरों और रत्नों से सुशोभित समुद्र देखा, 7. अष्ट मङ्गल द्रव्यों को धारण कर सामने खड़ी हुई व्यन्तर देवों की मूर्तियाँ देखीं। (म.पु., 20/34-37)
प्रात:काल में उन्होंने ज्योतिषी को बुलाकर उन स्वप्नों का फल पूछा तो ज्योतिषी ने कहा कि सुमेरु पर्वत के देखने का फल जिसका सुमेरु पर जन्माभिषेक हुआ था, ऐसा जीव अवश्य ही आज आपके घर में आवेगा और ये अन्य स्वप्न भी उन्हीं के गुणों को सूचित करते हैं। (म. पु. 20 / 40-41 )
कुछ ही समय पश्चात् मुनि ऋषभदेव का भव्य आगमन हस्तिनापुर नगरी में हुआ। मुनि ऋषभदेव का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण आठवें भव का हो गया। जब मुनि ऋषभदेव राजा वज्रजंघ की रानी श्रीमती की पर्याय में थी तब दोनों ने चारण ऋद्धिधारी मुनियों को नवधा भक्तिपूर्वक आहार दान दिया था। इसी आहार के लिए मुनि 7 माह 9 दिन से घूम रहे हैं। यह जानकारी होते ही वे अपने राजमहल के द्वार पर खड़े होकर दिव्य मङ्गल वस्तुओं को हाथों में लेकर मुनि ऋषभदेव का पड़गाहन करने लगे । हे स्वामी ! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, अत्र, अत्र, अत्र, तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ यह कहकर मुनि ऋषमदेव की तीन प्रदक्षिणा देकर कहा हे स्वामि ! मम गृह प्रवेश कीजिए । गृह प्रवेश होने के बाद कहा हे स्वामि ! भोजन शाला में प्रवेश कीजिए भोजन शाला प्रवेश करने के बाद कहा- हे स्वामि ! उच्चासन ग्रहण कीजिए इसके पश्चात् मुनि श्री का पादप्रक्षालन कर चरणोदक अपने उत्तमाङ्ग पर लगाकर मुनिश्री की दिव्य अष्ट द्रव्यों से पूजन कर, नमस्कार कर बोला हे स्वामि ! मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार जल शुद्ध है, हे स्वामि ! आहार ग्रहण कीजिए । मुनि ऋषभदेव ने सिद्ध भक्ति करके खड़े होकर आहार प्रारम्भ किया तथा आहार में मात्र इक्षु रस ही लिया। मेरे चिन्तन के अनुसार उत्कृष्ट साधना करने वाले होते हैं, अत: वे एक ही वस्तु को आहार में लेते हैं । आहार होने के प्रभाव से पञ्चाश्चर्य हुए अर्थात् 1. रत्न दृष्टि 2. पुष्प वृष्टि, 3. दुन्दुभि बाजों का बजना, 4. शीतल सुगन्धित मन्द मन्द वायु का चलना, 5. जय-जय जयकार शब्द (अहो दानम्) होना ।
हस्तिनापुर में जब मुनि ऋषभदेव का प्रथम आहार हुआ तब भरत चक्रवर्ती आदि राजाओं ने भी राजा श्रेयांस का सम्मान किया। आहार दान के कारण ही ऋषभदेव के साथ राजा श्रेयांस को भी याद करते हैं। जिस दिन मुनि ऋषभदेव का प्रथम आहार हुआ था उस दिन वैशाख शुक्ल तृतीया थी । उस दिन राजा श्रेयांस के यहाँ भोजन शाला में भोजन अक्षीण (कभी न समाप्त होने वाला) हो गया था । तब से आज तक वह दिन प्रतिवर्ष पर्व के रूप में मनाया जाता है इसे आखा तीज या अक्ती भी कहते हैं । दान तीर्थ के प्रवर्तक राजा श्रेयांस कहलाए। एवं ऋषभदेव से भी पहले दाता श्रेयांस संयम की आराधना करके मोक्ष पधारे।
अक्षय तृतीया का अपना विशेष महत्व है । इस दिन दिया गया दान अक्षय निधि का कारण बनता है । इस दिन बिना मुहूर्त के अच्छे कार्य किए जाते हैं एवं दीक्षा भी श्रेष्ठ रहती है ।
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