तीर्थङ्करों से सम्बन्धित अनेक पर्व हैं, अपने-अपने गुरुओं की अपेक्षा भी अनेक पर्व है । किन्तु माँ जिनवाणी से सम्बन्धित एक ही नैमित्तिक पर्व है । उसी का वर्णन इस अध्याय में है ।
1. श्रुतपञ्चमी पर्व कब मनाते हैं ?
प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी को मनाते हैं ।
2. यह पर्व क्यों मनाते हैं ?
यह पर्व मनाने की एक लम्बी कथा है, जिसे श्रुतावतार कथा भी कहते हैं, वह इस प्रकार से है। तीर्थङ्कर महावीर के निर्वाण के बाद तीन अनुबद्ध केवली हुए ।
- गौतमस्वामी 12 वर्ष केवलज्ञान के साथ ।
- सुधर्मास्वामी 12 वर्ष केवलज्ञान के साथ ।
- जम्बूस्वामी 38 वर्ष, केवलज्ञान के साथ ।
कुल 62 वर्ष (ति. प., 4/1488-1490)
इनके बाद 5 श्रुतकेवली हुए-
1. नन्दी, 2 . नन्दिमित्र, 3. अपराजित, 4 गोवर्धन, 5. भद्रबाहु । इन पाँचों श्रुतकेवलियों का सम्पूर्ण काल 100 वर्ष रहा। (ति प., 4/1495-1496)
इनके बाद ग्यारह आचार्य ग्यारह अङ्ग एवं दस पूर्वधारी हुए-
1. विशाख, 2. प्रोष्ठिल, 3. क्षत्रिय, 4. जय, 5. नाग, 6. सिद्धार्थ, 7. धृतिषेण, 8. विजय, 9. बुद्धिल, 10. गङ्गदेव,11. सुधर्म । इन सबका काल कुल 183 वर्ष रहा है । ( ति.प.,4/1497-1498)
इनके बाद पाँच आचार्य ग्यारह अङ्ग के धारी हुए -
1. नक्षत्र, 2 . जयपाल, 3. पाण्डु, 4 . ध्रुवसेन, 5 कंस । इनका कुल काल 220 वर्ष रहा है 1 (ति.प., 4/1500-1501)
इनके बाद चार आचार्य आचाराङ्गधारी हुए-
1. सुभद्र, 2. यशोभद्र, 3. यशोबाहु, 4. लोहार्य ।
उक्त चारों आचार्य आचाराङ्ग के अतिरिक्त शेष ग्यारह अङ्गों और चौदह पूर्वों के एक देश धारक थे। इनका कुल काल 118 वर्ष रहा है।
गौतम गणधर से लोहार्य आचार्य तक का कुल काल-62+100+183+220+118= 683 वर्ष। तीर्थङ्कर महावीर के निर्वाण के बाद श्रुतज्ञान क्रमशः घटता गया और 683 वर्षों के बाद समस्त अङ्गों और पूर्वो का एक देश ज्ञान आचार्य धरसेन को प्राप्त हुआ । आचार्य धरसेन काठियावाड़ स्थित गिरनार पर्वत (ऊर्जयन्त) की चन्द्रागुफा में साधना करते थे । अपनी अल्प आयु जानकर चिन्ता हुई कि यह श्रुतज्ञान कहीं लोप न हो जाए । अतः श्रुत की रक्षा के लिए उन्होनें महिमानगरी (जिला सतारा वर्तमान महाराष्ट्र) में उस महायति सम्मेलन को जहाँ आचार्य की श्री अर्हत् बलि ने पञ्चवर्षीय युग प्रतिक्रमण के अवसर पर एकत्रित किया था। पत्र भेजा कि मुझे तीर्थङ्कर महावीर से आगत 'महाकर्म प्रकृति' का ज्ञान आचार्य परम्परा से प्राप्त है उसका अवच्छेद न हो जाए इस आशंका से आप दो युवा तथा योग्य साधु को भेजिए जिससे मैं यह ज्ञान उन्हें दे सकूँ। तब मुनिसंघ ने पत्र को पढ़कर दो मुनियों नरवाहन और सुबुद्धि को जिनका ज्ञान का क्षयोपशम श्रेष्ठ था भेज दिया ।
दोनों मुनिराज ने गिरनार की ओर विहार किया । गिरनार पहुँचने की पूर्व रात्रि में आचार्य श्री धरसेन ने स्वप्न में दो श्वेत वृषभ देखें उस स्वप्न से उन्होंने जान लिया कि श्रुत को धारण करने वाले दो मुनि आ रहे हैं तब उनके मुख से अनायास ही 'जयउसुयदेवदा' ऐसे वचन निकल पड़े।
दूसरे दिन प्रात: दोनों मुनियों ने आकर भक्तिपूर्वक आचार्य परमेष्ठी को नमस्कार कर आने का कारण बताया। आचार्य धरसेन ने दो दिन तक उनकी परीक्षा करने के बाद दोनों मुनियों को अलग-अलग मन्त्र सिद्ध करने के लिए दो - दो उपवास के साथ दिए। एक महाराज को एक अक्षर न्यून वाला मन्त्र दिया, दूसरे महाराज को एक अक्षर अधिक वाला मन्त्र दिया। दोनों महाराज विद्या सिद्ध करने लगे । जब विद्या सिद्ध हो गई तब वहाँ पर उनके सामने दो देवियाँ प्रकट हुई । उनमें से एक देवी की एक ही आँख थी । दूसरी देवी का एक दाँत बाहर निकला था । देव - देवियाँ तो सुन्दर होते हैं । देवियों का यह रूप देखते ही समझ गए कि मन्त्र में कोई गड़बड़ी है । मन्त्र शास्त्र के जानकर थे । मन्त्रों के बारे में जाना कि एक मन्त्र में एक अक्षर न्यून था, जिससे एक आँख वाली देवी दिखी। दूसरे महाराज के मन्त्र में एक अक्षर ज्यादा था जिससे एक देवी का एक दाँत बाहर निकला था । मन्त्रों को ठीक कर पुनः मन्त्र सिद्ध करने लगे। जिसके फलस्वरूप देवियाँ अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हुई तथा बोली हे नाथ ! आज्ञा दीजिए हम आपका कौन-सा कार्य करें तब मुनियों ने कहा हे देवियों ! हमारा कुछ भी प्रयोजन नहीं है। हमने तो केवल गुरुदेव की आज्ञा से ही विद्या मन्त्र की आराधना की है।
दोनों मुनियों ने मन्त्र सिद्ध की घटना गुरुदेव को सुनाई । गुरुदेव ने शिष्यों की योग्यता जानकर शुभ मुहूर्त में विद्या अध्ययन प्रारम्भ किया । वह अध्ययन आषाढ़ शुक्ल एकादशी को सम्पन्न हुआ। एक मुनिराज के दाँतों की विषमता को दूर कर उनके दाँत कुन्दपुष्प के समान सुन्दर हो गए उनका नाम पुष्पदन्त पड़ा तथा दूसरे मुनि की भी भूतजाति के देवों ने वाद्य यन्त्रों से पूजा की जिससे उनका नाम भूतबलि पड़ा ।
आचार्य धरसेन स्वामी ने अपनी आयु अल्प जानकर दोनों शिष्यों को वहाँ से विहार के आदेश दे दिए। दोनों मुनिराज विचार कर रहे थे कि वर्षायोग की स्थापना में मात्र दो दिन शेष हैं। अब तो गुरुजी के पास वर्षायोग करने का सौभाग्य प्राप्त होगा । किन्तु गुरु आज्ञा होते ही दोनों मुनिराजों का वहाँ से विहार हो गया। तथा आचार्य धरसेन स्वामी स्वयं सल्लेखना की साधना में लीन हो गए। उनकी कुछ समय में इंगिनी मरण समाधि हो गई ।
दोनों महाराज वहाँ से विहार करते-करते अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षायोग किया। इसके बाद आचार्य पुष्पदन्त ने वनवास देश (वर्तमान वनवासी ग्राम जिला शिमोगा कर्नाटक ) और भूतबलि द्रविड़ देश को विहार कर गए । यहाँ तक श्रुत लिपिबद्ध नहीं था । आचार्य पुष्पदन्त ने कर्मप्रकृति प्राभृत को छः खण्डों में उपसंहार करना चाहते थे । अत: उन्होंने बीस प्ररूपणाओं का 100 सूत्रों में वर्णन कर शिष्य जिनपालित मुनि के द्वारा आचार्य भूतबलि के पास भेज दिया ।
आचार्य पुष्पदन्त का अभिप्राय षट्खण्डागम रचने का है। अतः आचार्य भूतबलि ने 6000 श्लोक प्रमाण छः खण्डों की रचना की जो इस प्रकार हैं- 1. जीवस्थान, 2. क्षुद्रकबन्ध, 3. बन्धस्वामित्व, 4. वेदना खण्ड, 5. वर्गणा खण्ड, 6. महाबन्ध |
आचार्य भूतबलि ने इन षट्खण्डागम सूत्रों को ग्रन्थ में लिपिबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी के दिन चतुर्विध संघ के सान्निध्य में श्रुत की पूजा की तब से यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमी के नाम से प्रसिद्ध हो गई। इससे प्रतिवर्ष श्रुतपञ्चमी मनाते हैं इस दिन जिनवाणी की विशेष रूप से पूजन करते हैं आचार्य भूतबलि ने अपने अधूरे कार्य को पूर्ण हुआ देखकर चतुर्विध संघ के मध्य जिनवाणी की पूजा कर प्रसन्न हुए। इसलिए श्रुतपञ्चमी मनाते हैं ।
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- तीर्थराज सम्मेदशिखरजी में गणेशप्रसादजी वर्णी के साथ क्या अतिशय हुआ ?
मई के महीने में वर्णी जी और एक आदमी तीर्थराज की यात्रा को निकले। दोनों ने पहली वन्दना अच्छी तरह की । और विचार किया एक परिक्रमा भी करनी है। ये दो आदमी एवं एक और साथ में हो गया । ज्येष्ठ का महीना मध्याह्न का समय, मार्ग का परिश्रम, नीरस भोजन का प्रभाव आदि कारणों से प्यास बढ़ने लगी । वर्णीजी कहते प्रभो ! यदि इस समय मेरी अपमृत्यु हो गई तो कलंक किसे लगेगा? आखिर लोग समुदाय यही तो कहेगा कि शिखरजी की परिक्रमा में तीन आदमी पानी के बिना प्राण विहीन हो गए।
हम तीनों लगभग 300 मीटर चले होंगे कि सामने पानी से लबालब भरा हुआ एक कुण्ड दिखाई पड़ा (वहाँ कुण्ड था नहीं, देवों ने किया) देखकर हर्ष पारावार न रहा, मानों अन्धे को नेत्र मिल गए हो। अच्छे से पानी पिया और शाम के भोजन के बाद ही मधुवन पहुँचे। (मेरी जीवन गाथा, पृ. 54 56 )