जैनधर्म में अनेक पर्व आते हैं, जिनमें कुछ शाश्वत् पर्व एवं नैमित्तिक पर्व हैं । रक्षाबन्धन नैमित्तिक पर्व के रूप में है । इस पर्व की घटना को सुनकर दिगम्बर मुनियों पर श्रद्धा रखने वालों की विशेष श्रद्धा हो जाती है । इस अध्याय में इसी का वर्णन है ।
1. रक्षाबन्धन पर्व कब मनाते हैं ?
प्रतिवर्ष श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को मनाते हैं।
2. यह पर्व क्यों मनाते हैं ?
आज के दिन विष्णुकुमार मुनि ने आचार्य अकम्पन सहित 700 मुनियों पर घोर उपसर्ग दूर किया इसलिये यह पर्व मनाया जाता है । इसका पूर्ण विवरण इस प्रकार है ।
किसी समय उज्जयिनी नगर में श्री धर्मा नामक प्रसिद्ध राजा रहता था । उसकी श्रीमती नाम की पटरानी थी । राजा श्रीधर्मा के बलि, वृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद । ये चार मन्त्री थे। उसी समय श्रुत के पारगामी 700 मुनियों से सहित महामुनि अकम्पनाचार्य आकर उज्जयिनी के बाहर उपवन में विराजमान हुए। उन महामुनि की वन्दना के लिए नगरवासी लोग सागर की तरह उमड़ पड़े। महल पर खड़े हुए राजा ने नगरवासियों को देख मन्त्रियों से पूछा कि ये लोग कहाँ जा रहे हैं? तब बलि ने उत्तर दिया राजन् । ये लोग अज्ञानी दिगम्बर मुनियों की वन्दना के लिए जा रहे हैं । तदन्तर राजा श्रीधर्मा ने भी वहाँ जाने की इच्छा प्रकट की । यद्यपि मन्त्रियों ने राजा को बहुत रोका तथापि वे जबरदस्ती चल ही पड़े । जैसे किसी प्रदेश में प्रधानमन्त्री आ रहे हो तो उस प्रदेश के मुख्यमन्त्री को भी आना ही पड़ेगा चाहे वह किसी भी समूह (पार्टी) का क्यों न हो उसी प्रकार मन्त्रियों को भी विवश हो राजा के साथ जाना पड़ा। उस समय गुरु की आज्ञा से मुनि संघ मौन लेकर बैठ गया। राजा ने सभी मुनियों को प्रणाम किया किन्तु अपने प्रणाम के उत्तर में ध्यानस्थ मुनियों से आशीर्वाद न पाकर राजा के मन में क्षोभ उत्पन्न हुआ। साथ के उन चार मन्त्रियों ने राजा का मनोभाव जानकर कहा कि ये लोग ज्ञानी मुनीश्वर नहीं, ढोंगी हैं तथा वृषभ तुल्य हैं । उसी समय भाग्यवश उन मुनिश्वरों के संघ के एक मुनि जिनका नाम श्रुतसागर था। सामने से आते हुए दिखलाई दिए । उन मन्त्रियों ने मिलकर उन मुनिराज का उपहास करते हुए कहा- वह एक युवा वृषभ है । इस आक्षेप को मुनि ने भी सुना । उत्तर- प्रति उत्तर में बात बढ़ गई । तथा शास्त्रार्थ छिड़ गया । जिन मन्त्रियों को अपनी विद्वता का अभिमान था, वे मुनिश्वर से सहज ही परास्त होकर अत्यन्त लज्जित हुए। इधर मुनि श्रुतसागर जब अपने संघ में वापस आए, तब समस्त घटना आचार्य अकम्पन को सुनाई । सुन कर गुरुवर ने कहा- 'हे वत्स ! जिस स्थान पर उन लोगों से वाद -विवाद हुआ था, तुम रात्रि पर्यन्त उसी स्थान पर जाकर ध्यानस्थ रहो अन्यथा तुम्हारे कारण सम्पूर्ण संघ को विपत्ति में फँसना पड़ेगा। गुरु की आज्ञा मानकर श्रुतसागर मुनि उसी स्थान पर जाकर ध्यानस्थ हो गए ।
किसी ने कहा है-
वादे वादे जायते तत्त्व बोधः, वादे वादे जायते बैर बोधः। वाद - विवाद करने से तत्त्व का ज्ञान भी होता है और कभी -कभी वाद-विवाद बैर का कारण भी बन जाता है । वही यहाँ पर हुआ चारों मन्त्री वाद विवाद से मुनि श्रुतसागर जी से पराजित हुए। वे मन्त्री उनका वध करने की दुर्भावना से आए। वहाँ पर एकाकी मुनि को देखा। अवसर समझ कर प्रहार के लिए चारों ने शस्त्राघात करना चाहा, किन्तु नगर देवता ने अपने दिव्य प्रभाव का उपयोग कर उनको उसी अवस्था में कीलित कर दिया। प्रात: काल यह समाचार चारों दिशाओं में फैल गया। राजा भी इस घटना को सुनकर वहाँ आए तथा अपने मन्त्रियों को इस दुष्कर्म में प्रवृत्त देखकर अत्यन्त कुद्ध हुआ । राजा ने उन मन्त्रियों का मुण्डन कराकर गधे पर बिठा कर अपने राज्य से निष्कासन का आदेश दिया। वे निष्कासित मन्त्री अपमान की ज्वाला में दग्ध होते हुए हस्तिनापुर के राजा पद्मरथ के निकट जा पहुँचे। उनके विनम्र व्यवहार से राजा पद्मरथ प्रसन्न हुआ। तथा सन्तुष्ठ होकर उन्हें अपने मन्त्री बना लिए ।
कुछ समय के बाद राजा पद्मरथ के राज्य पर एक शत्रु राजा सिंहबल ने आक्रमण किया, जिससे प्रजा अत्यन्त व्याकुल हो गई। तथा स्वयं राजा भी भयभीत हो गया । किन्तु इस नवागत मन्त्रियों में प्रमुख बलि ने ऐसा विलक्षण कूटनीतिक जाल फैलाया कि वह शत्रु राजा सरलता से बन्दी बना लिया गया। फलस्वरूप राजा पद्मरथ मन्त्री बलि पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा उससे इच्छित वर माँगने के लिए कहा। बलि बड़ा चतुर था इसलिए उसने प्रणाम कर उक्त वर को राजा पद्मरथ के हाथ में धरोहर रख दिया। अर्थात् अभी आवश्यकता नहीं है जब आवश्यकता होगी तब माँग लूँगा । तदन्तर बलि आदि मन्त्रियों का सन्तोष पूर्वक समय व्यतीत होने लगा ।
अथानन्तर किसी समय विहार करते हुए अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ हस्तिनापुर आए और वर्षायोग धारणकर नगर के बाहर विराजमान हो गए । मन्त्रियों को भी ज्ञात हो गया वही मुनिसंघ यहाँ पर विराजमान है । उन्होंने अपने पूर्व अपमान का बदला लेने का विचार कर राजा पद्मरथ के पास आकर कहा कि राजन् ! आपने मुझे जो वरदान दिया था उसके फलस्वरूप मुझे सात दिन का राज्य दिया जाए। 'ले तेरे लिए सात दिन का राज्य दिया।' यह कहकर राजा पद्मरथ अदृश्य के समान रहने लगा । बलि ने राज्य सिंहासन पर आरूढ़ होते ही उन अकम्पनाचार्य सहित सात सौ मुनियों पर उपसर्ग करवाया। उसने चारों ओर से मुनियों को घेरकर उनके समीप पत्तों का धुआँ कराया । तथा जूठन व कुल्हड़ आदि फिकवाए। दुर्गन्धित वस्तुएँ होम कर दारुण कष्ट पहुँचाने लगा । उपसर्ग समझकर मुनि संघ ने संक्षेप प्रत्याख्यान किया। अर्थात् जब तक उपसर्ग दूर नहीं होगा तब तक के लिए चारों प्रकार के आहार एवं विहार का त्याग। उस समय विष्णुकुमार मुनि के अवधिज्ञानी गुरु मिथिला नगरी में थे । वे अवधिज्ञान से विचार कर तथा दया से युक्त हो कहने लगे कि हा ! आज अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर दारुण उपसर्ग हो रहा है। उस समय उनके पास पुष्पदन्त नामक क्षुल्लक बैठे थे । गुरु के मुख से उक्त दयार्द्र वचन सुन क्षुल्लक जी ने पूछा कि हे नाथ! वह उपसर्ग कहाँ हो रहा है? इसके उत्तर में गुरु ने कहा कि हस्तिनापुर में । क्षुल्लकजी ने पुन: कहा कि हे नाथ! यह उपसर्ग किससे दूर हो सकता है ? गुरु ने कहा कि जिसे विक्रिया ऋद्धि की सामर्थ्य प्राप्त है तथा जो इन्द्र को भी धौंस दिखाने में समर्थ है ऐसे मुनि विष्णुकुमार से यह उपसर्ग दूर हो सकता है। क्षुल्लक जी ने उसी समय जाकर विष्णुकुमार मुनि से यह समाचार कहा और उन्होंने विक्रिया ऋद्धि की परीक्षा की। उन्होंने परीक्षा के लिए अपना हाथ फैलाया तो वह पर्वत को भेदन कर बिना किसी रुकावट के दूर तक आगे बढ़ गया ।
तदन्तर विष्णुकुमार मुनि सीधे पद्मरथ से जाकर बोले । हे पद्मरथ ! तुमने राज्य पाते ही यह क्या - क्या कार्य प्रारम्भ कर रखा ? ऐसा कार्य तो रघुवंशियों में पृथ्वी पर कभी हुआ ही नहीं । यदि कोई दुष्टजन तपस्वीजनों पर उपसर्ग करता है तो राजा को उसे दूर करना चाहिए । फिर राजा से ही इस उपसर्ग की प्रवृत्ति क्यों हो रही है? हे राजन् ! जलती हुई अग्नि कितनी ही महान् क्यों न हो अन्त में जल के द्वारा शान्त कर दी जाती है। फिर यदि जल से अग्नि उठने लगे तो अन्य किस पदार्थ से उसकी शान्ति हो सकती है ? ऐश्वर्य का फल दुराचारियों का दमन करना है यदि ईश्वर / राजा इस क्रिया से शून्य है अर्थात् दुष्टों का दमन करने में समर्थ नहीं है तो फिर ऐसे ईश्वर / राजा को स्थाणु / ठूंठ भी कहा है अर्थात् वह नाम मात्र का ईश्वर है । इसलिए पशुतुल्य बलि को इस दुष्कार्य से शीघ्र ही दूर करो।
तदनन्तर राजा पद्मरथ ने कहा कि हे नाथ! मैंने बलि के लिए सात दिन का राज्य दे दिया है। इसलिए इस विषय में मेरा अधिकार नहीं है । हे मुनिराज ! आप स्वयं जाकर उस पर शासन करें । राजा पद्मरथ के कहने पर विष्णुकुमार मुनि बलि के पास गए। अरे! एक तपरूप कार्य में लीन रहने वाले उन मुनियों ने तेरा क्या अनिष्ट किया जिससे तूने उच्च होकर भी नीच की तरह उन पर यह उपसर्ग किया। अपने कर्मबन्ध से भीरु होने के कारण तपस्वी मन, वचन, काय से कभी दूसरे का अनिष्ट नहीं करते। इसलिए इस तरह शान्त मुनियों के विषय में तुम्हारी यह दुश्चेष्टा उचित नहीं है। यदि शान्ति चाहते हो तो शीघ्र ही उपसर्ग दूर करो । तदनन्तर बलि ने कहा कि यदि यह मेरे राज्य से चले जाते हैं, तो उपसर्ग दूर हो सकता है अन्यथा उपसर्ग ज्यों का त्यों बना रहेगा। इसके उत्तर में विष्णुकुमार मुनि ने कहा कि ये सब आत्मध्यान में हैं अत: यहाँ से एक कदम भी नहीं जा सकते। ये अपने शरीर का त्याग भले ही कर देंगे पर उपसर्ग से डरकर भाग नहीं सकते । अन्त में विष्णुकुमार मुनि ने कहा हे बलि ! तुम उन मुनियों के ठहरने के लिए मुझे तीन कदम भूमि देना स्वीकृत करो। अपने आपको अत्यन्त कठोर मत करो। मैंने कभी किसी से याचना नहीं की । फिर भी इन मुनियों के ठहरने के निमित्त तुम से तीन कदम भूमि की याचना करता हूँ । अत: मेरी बात स्वीकृत करो । विष्णुकुमार मुनि की बात स्वीकृत करते हुए बलि ने कहा कि यदि ये उस सीमा के बाहर एक कदम का भी उल्लंघन करेंगे तो दण्डनीय होंगे। इसमें मेरा अपराध नहीं होगा। क्योंकि लोक में मनुष्य तभी आपत्ति युक्त होता है। जब वह अपने वचन से च्युत हो जाता है । अपने वचन का पालन करने वाला मनुष्य लोक में कभी आपत्तियुक्त नहीं होता।
तदनन्तर विष्णुकुमार मुनि ने कहा - ' अरे पापी । देख, मैं तीन कदम भूमि को नापता हूँ । यह कहते हुये उन्होंने अपने शरीर को इतना बड़ा बना लिया कि वह ज्योतिषपटल को छूने लगा। उन्होंने एक कदम मेरु पर रखा दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर और तीसरा अवकाश न मिलने से आकाश में घूमता रहा । उस समय विष्णुकुमार मुनि के प्रभाव से तीनों लोकों में क्षोभ मच गया । किम्पुरुष आदि देव क्या है ? क्या है ? यह शब्द करने लगे ।
गन्धर्व देव भी अपनी-अपनी देवियों के साथ उन मुनिराज के समीप मनोहर गीत गाने लगे । और कहने लगे हे मुने! मन के क्षोभ को दूर करो, आज आपके तप के प्रभाव से आज तीनों लोक चल विचल हो उठे हैं। इस प्रकार मधुर गीतों के साथ वीणा बजाने वाले देवों, धीर-वीर विद्याधरों तथा सिद्धान्त शास्त्र की गाथाओं को गाने वाले एवं चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने जब उन्हें शान्त किया तब वे धीरे-धीरे अपनी विक्रिया को संकोच कर उस तरह स्वभावस्थ हो गए - जिस तरह की उत्पात के शान्त होने पर सूर्य स्वभावस्थ हो जाता है। अपने मूल स्वभाव में आ जाता है। उस समय देवों ने शीघ्र ही मुनियों का उपसर्ग दूर कर दुष्ट बलि को बाँध लिया और उसे दण्डित कर देश से दूर कर दिया । इस प्रकार उपसर्ग दूर करने से जिनशासन के प्रति वत्सलता प्रकट करते हुए विष्णुकुमार मुनि ने सीधे गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त द्वारा विक्रिया शल्य छोड़ी। विष्णुकुमार मुनि ने घोर तपश्चरण कर तथा घातिया कर्म का क्षयकर केवली हुए और विहार कर अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए। (पा.पु., 7/54 - 73 एवं ह . पु., 20/19-63)
विशेष -
- उपसर्ग के कारण सभी मुनियों के गले धुएँ से रुँध गए थे । उपसर्ग दूर होने के बाद सभी महाराज आहार के लिए निकले श्रावकों ने दूध - सिमई का आहार दिया जिससे सबके गले ठीक हो जाए।
- श्रावक ने आपस में एक दूसरे को रक्षा सूत्र (राखी) बाँधे तथा मुनि रक्षा का संकल्प किया ।
- विक्रिया ऋद्धि छठवें गुणस्थान तक होती है । अतः विष्णुकुमार मुनि ने मुनि भेष में ही विक्रिया की है । उन्होंने दिगम्बर भेष छोड़ा है। ऐसा न हरिवंश पुराण में लिखा और न ही पाण्डव पुराण में । पाण्डव पुराण में उन्होंने वामन (छोटा) का रूप धारण किया था । हरिवंश पुराण के अनुसार वे अपने सही रूप से गए थे ।
- आज के दिन लोकव्यवहार में बहिन भाई को राखी बाँधती है जिससे वह भाई संकट के समय बहिन की रक्षा करे । किन्तु आज माता-पिता को अपने बेटे और बेटियों को राखी बाँधना चाहिए जिससे वे अपने की रक्षा करे। क्योंकि आज के कुछ बालक-बालिका अपने मन से न जाने किस-किस से विवाह सम्बन्ध कर लेते हैं । जिससे कुल, समाज एवं धर्म की हानि हो रही है।
- विष्णुकुमार मुनि ने एक पैर यदि सुमेरु पर्वत पर और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर तब एक ओर का स्थान खाली रहा क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत गोल है । अतः ऐसा होना चाहिए एक पैर मानुषोत्तर के इस ओर (अर्थात् दक्षिण दिशा में और वह पैर पूर्व - पश्चिम तक फैल गया) तथा दूसरा पैर मानुषोत्तर के उस ओर (अर्थात् उत्तर दिशा में और वह पैर पूर्व-पश्चिम तक फैल गया अर्थात् पूरा मनुष्य क्षेत्र घेर लिया) किन्तु ऐसा किसी भी ग्रन्थ में लिखा नहीं है ।
अतः यह विषय विद्वानों के लिए चिन्तनीय है।
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मिथ्यादृष्टि भी समवसरण में जाते हैं-
देवाणं सम्मत्तप्पत्तिकारणाणि काणि चे?
जिणबिंबद्धि महिमा दंसण- जाइस्मरण - महिद्धिंदादिदंसण जिणपाय मूलधम्म सवणादीणिं ।
(ध.पु., 3/157)
अर्थ- देवों में सम्यग्दर्शन उत्पत्ति के करण कितने हैं? जिनबिम्ब सम्बन्धी अतिशय के माहात्म्य का दर्शन, जातिस्मरण का होना, महर्द्धिक इन्द्रिादिक का दर्शन और जिनदेव के पादमूल में धर्म का श्रवण आदि । देवों में सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारण हैं ।
विशेष-जिनदेव के पादमूल में धर्मश्रवण से सम्यक्त्वोपपत्ति हो रही है। अत: इसी से सिद्ध है, कि वहाँ मिथ्यादृष्टि भी जाते हैं ।
अभव्य भी समवसरण में जाते हैं ।
तन्निशम्यास्तिका सर्वे तथेति प्रतिपेदिरे ।
अभव्या दूर भव्याश्च मिथ्यात्वोदय दूषिता ॥ (उ.पु., 171-178)
अर्थ- जो भव्य थे उन्होंने जैसा भगवान् ने कहा वैसा श्रद्धान कर लिया और जो अभव्य अथवा दूरभव्य थे वे मिथ्यात्व के उदय से दूषित होने के कारण संसार बढ़ाने वाली मिथ्यात्व वासना नहीं छोड़ सके । इसीप्रकार महाकवि पुष्पदन्त महापुराण में कहा है कि जिननाथ के द्वारा अभव्य जीव भी चाहे (सम्बोधित किए जाते) हैं। वे एक नहीं अनेक देखें जाते हैं। (1/11/30/264-265)