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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 15 - ऐतिहासिक जैन महापुरुष

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    Vidyasagar.Guru

    जैनधर्म क्षत्रियों का धर्म है। इसे पालन करने वाले अनेक राजाओं, मन्त्रियों, सेनापतियों ने प्रजा का पालन किया, देश की रक्षा के लिए युद्ध किए और समय-समय पर राष्ट्र की रक्षा के लिए दान दिया । तथा जिनशासन की प्रभावना के लिए अनेक जिनबिम्ब, सन्तनिवास का निर्माण कराया, ग्रन्थों का प्रकाशन कराया। कुछ ऐसे ही ऐतिहासिक महापुरुषों के कार्यों का वर्णन इस अध्याय में किया है ।


    1. सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और मन्त्रीश्वर चाणक्य के बारे में बताइए ?
    बालक चाणक्य के मुँह में जन्म से ही दाँत थे। यह देख लोगों को आश्चर्य हुआ । एक दिन दिगम्बर मुनि चाणक्य के घर आए तब लोगों ने कहा महाराज ऐसा- ऐसा है। महाराज ने कहा यह बड़ा होने पर एक शक्तिशाली नरेश होगा । चाणक्य के पिता चणक राज्य वैभव को पाप और पाप का कारण समझते थे । अतएव चणक ने बालक के दाँत उखाड़ डाले। इस पर साधुओं ने भविष्यवाणी की कि वह बालक स्वयं तो राजा नहीं होगा किन्तु अन्य व्यक्ति के माध्यम से राज्य शक्ति का उपभोग करेगा।


    वय प्राप्त होने पर चाणक्य को चतुरानुयोग, दर्शन, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र ऐसे चौदह विद्यास्थानों का अध्ययन किया। चाणक्य का विवाह यशोमति कन्या से हुआ । धनहीनता से पीडित चाणक्य पाटलिपुत्र जा पहुँचा। राजसभा में पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित करके दान विभाग के अध्यक्ष का पद प्राप्त किया किन्तु कुरूपता, अभिमानी एवं उद्दण्ड स्वभाव के कारण युवराज चाणक्य से रुष्ट हो गया और उसने उसका अपमान किया । अपमान से क्षुब्ध और कुपित चाणक्य ने भरी सभा में यह प्रतिज्ञा की कि ' जिस प्रकार उग्रवायु का प्रचण्डवेग अनेक शाखा समूह सहित विशाल एवं उत्तुङ्ग वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकता है, उसी प्रकार हे नन्द ! मैं तेरा, तेरे पुत्रों, भृत्यों, मित्रादि का समस्त वैभव सहित समूल नाश करूँगाI


    परिव्राजक के भेष में घूमते-घूमते चाणक्य मयूरग्राम पहुँचा । वहाँ मुखिया के घर ठहरा। उसकी इकलौती बेटी गर्भवती थी। उसी समय उसे चन्द्रपान का विलक्षण दोहला उत्पन्न हुआ। जिसके कारण घर के लोग चिन्तित थे। चाणक्य ने कहा ठीक है मैं करवा सकता हूँ, किन्तु पुत्र होगा तो उस पर मेरा अधिकार होगा। उसकी शर्त स्वीकार की गई । चाणक्य ने एक थाली में जल अथवा दूध भरकर और उसमें आकाशगामी पूर्णचन्द्र को प्रतिबिम्ब करके गर्भिणी को इस चतुराई से पिला दिया कि उसे विश्वास हो गया कि उसने चन्द्रपान कर लिया और चाणक्य वहाँ से चला गया कुछ समय बाद बेटी ने एक सुन्दर स्वस्थ बालक को जन्म दिया उसका नाम चन्द्रगुप्त रखा और चाणक्य से की गई प्रतिज्ञा के अनुसार वह परिव्राजक का पुत्र कहलाने लगा । यह घटना ईसापूर्व 345 के आस-पास की है । विशाल साम्राज्य के स्वामीनन्द वंश को नष्ट करना हँसी खेल नहीं था। चाणक्य यह जानता था फिर भी धुन का पक्का था। अतएव धैर्य के साथ अपनी तैयारी में जुट गया अनेक वर्ष धातु विद्या की सिद्धि एवं स्वर्ण आदि धन एकत्रित करने में व्यतीत किए। आठ - दश वर्ष बाद पुन: वह मयूरग्राम में आ गया वह विश्राम कर रहा था बगीचे में। देखा बहुत से बच्चे खेल रहे हैं । उनमें एक राजा बना है, वह सब पर शासन कर रहा है। कुछ देर तो चाणक्य मुग्ध हुआ बालकों के उस कौतुक को देखता रहा । विशेष कर बाल राजा के अभिनय ने उसे अत्यधिक आकृष्ट किया । समीप जाकर देखा तब उस बालक में सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार चक्रवर्ती सम्राट के लक्षण दिख रहे थे और अधिक परीक्षा के लिए वह याचक बन राजा के पास गया राजा (बालक) ने कहा 'बोलो क्या चाहते हो' जो चाहो अभी मिलेगा चाणक्य ने कहा मैं गोदान चाहता हूँ । किन्तु मुझे भय है, तुम मेरी माँग पूरी न कर सकोगे। अन्य लोग इसका विरोध करेंगे बाल राजा तुरन्त बोला 'यह आप क्या कह रहे हैं' राजा के सामने कोई याचक बिना इच्छित दान के चला जाए। यह कैसे हो सकता है । पृथ्वी वीरों के भोग के लिए है। बालक के इस उत्तर से उसकी राज्योचित उदारता, अन्य सद्गुणों एवं व्यक्तित्व का चाणक्य पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसके साथियों से उसका परिचय प्राप्त करने का लोभ संवरण न कर सका। बालकों ने जब उसे बताया कि मुखिया का नाती है नाम चन्द्रगुप्त है और यह एक परिव्राजक का पुत्र कहलाता है । तब चाणक्य को बात समझते देर न लगी कि यह वही बालक है, जिसकी माता का दोहला मैंने युक्ति से शान्त किया था । वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बालक के अभिभावकों से मिलकर वचन का स्मरण करा कर बालक को अपने साथ ले वहाँ से पलायन कर गया। उसने प्रतिज्ञा की कि इस चन्द्रगुप्त को ही राजा बनाकर अपने स्वप्नों को साकार करेगा।


    चन्द्रगुप्त को अस्त्र-शस्त्रों के संचालन, युद्ध विद्या, राजनीति तथा अन्य उपयोगी ज्ञान विज्ञान एवं शास्त्रों की समुचित शिक्षा दी। धन का अभाव भी न था और धीरे-धीरे बहुत से साहसी युवक जुटा लिए।


    ईसा पूर्व 321 के लगभग चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने एक छोटे से सैन्य दल के साथ छद्मवेश में नन्दों की राजधानी पाटलिपुत्र में प्रवेश किया और दुर्ग पर आक्रमण कर दिया चाणक्य के कूट कौशल के बावजूद भी नन्दों की असीम सैन्यशक्ति के सम्मुख ये बुरी तरह पराजित हुए और जैसे तैसे प्राण बचाकर भागे । एक दिन रात्रि में उन्होंने एक वृद्धा की डाँट सुनी कि हे पुत्र ! तू भी चाणक्य के समान अधीर एवं मूर्ख है, जो गर्म-गर्म खीर खाने बैठा और एकदम उसके बीच मैं हाथ डाल दिया। हाथ न जलेगा तो क्या होगा । चाणक्य को समझ आयी कि सीधे राजधानी पर हमला बोलकर मैंने गलती की। फिर उन्होंने साम्राज्य के समीपवर्ती प्रदेशों पर अधिकार करना प्रारम्भ कर दिया। एक के पश्चात् एक ग्राम, नगर दुर्ग और गढ़ छल बल कौशल से जैसे भी बना वे हस्तगत करके चले । विविध प्रदेशों एवं स्थानों को सुसंगठित एवं व्यवस्थित करते हुये तथा अपनी शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए अन्ततः वे राजधानी पाटलिपुत्र तक जा पहुँचे।


    चन्द्रगुप्त के पराक्रम, रणकौशल एवं सैन्य संचालन पटुता, चाणक्य की कूटनीति एवं सदैव सजग गृद्ध दृष्टि तथा पर्वत की युद्ध प्रियता तीनों का संयोग था । नन्द भी वीरता के साथ लड़े किन्तु एक-एक करके सभी नन्दकुमार लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए । अन्ततः वृद्ध महाराज महापद्म नन्द ने हताश होकर हथियार डाल दिए और आत्मसमर्पण कर दिया । वृद्ध नन्द ने चाणक्य को धर्म की दुहाई देकर याचना की कि मुझे सपरिवार सुरक्षित अन्यत्र स्थान चले जाने दिया जाए। चाणक्य की अभीष्ट सिद्धि हो चुकी थी, उसकी भीषण प्रतिज्ञा को लगभग 25 वर्ष लग गए। अतएव उसने नन्दराजा को सपरिवार जाने की अनुमति तथा यह भी कह दिया कि जिस रथ में वह जाए उसमें जितना धन वह अपने साथ ले जा सके वह भी ले जाए और इसी बीच नन्द सुता दुरधरा (अपर नाम सुप्रभा) ने चन्द्रगुप्त को देखा और दोनों की भावना समझ राजानन्द और चाणक्य ने दोनों का विवाह कर दिया । मन्त्रीश्वर चाणक्य के सहयोग से सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने साम्राज्य का विस्तार एवं सुसंगठन किया और उसके प्रशासन की सुचारु व्यवस्था की। ईसा पूर्व 317 में पाटलिपुत्र में नन्दवंश का पतन और मौर्यवंश की स्थापना हुई।


    चन्द्रगुप्त ने लगभग 19 वर्ष राज्य भोग करने के पश्चात् ईसापूर्व 298 में अपने पुत्र बिन्दुसार को राज्यभार सौंपकर और उसे गुरु चाणक्य के ही अभिभावकत्व में छोड़ दक्षिण की ओर प्रयाण कर गया। मार्ग में सौराष्ट्र के गिरिनगर की जिस गुफा में उसने कुछ दिन निवास किया। वह तभी से चन्द्रगुफा कहलाने लगी सम्भवत: वहीं उनने मुनि दीक्षा ली थी। वहाँ से चलकर यह राजर्षि श्रवणबेलगोला पहुँचा जहाँ आचार्य भद्रबाहुस्वामी की समाधि हुई थी। उसस्थान के एक पर्वत पर मुनिराज चन्द्रगुप्त ने तपस्या की और वहीं कुछ वर्ष पश्चात् सल्लेखना पूर्वक देह त्याग किया। उनकी स्मृति में ही वह पर्वत चन्द्रगिरि नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके चरण चिह्न वहीं बने है जो चन्द्रगुप्त वसति के नाम से प्रसिद्ध है।


    चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के अनुरोध पर सम्राट बिन्दुसार का पथप्रदर्शन कर दो, तीन वर्ष बाद ही वह भी मन्त्रित्व का भार अपने शिष्य राधागुप्त को सौंपकर मुनि दीक्षा लेकर तपश्चरण के लिए चले गए। (प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ डॉ. ज्योति प्रसाद )


    2. सम्राट अशोक के बारे में बताइए ?
    बिन्दुसार का पुत्र अशोक था । विद्वानों के विभिन्न मत हैं, वह बौद्ध था, जैन था । बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैनधर्म के अधिक निकट था क्योंकि उसका कुलधर्म जैन था वह एक नीतिपरायण प्रजापालक सम्राट था। वस्तुत: यह भी व्यवहार एवं प्रशासन में अपने पूर्वजों की धर्म निरपेक्ष नीति का ही अनुकर्ता था। उसने पशुवध का निवारण एवं माँसाहार का निषेध करने के लिए कड़े नियम बनाए थे। वर्ष के 56 दिनों में उसने प्राणिवध सर्वथा एवं सर्वत्र बन्द रखने की आज्ञा जारी की थी । ईसा पूर्व 234 या 232 के लगभग अशोक की मृत्यु हुई ।


    3. कलिंग चक्रवर्ती खारवेल के बारे में बताइए ?
    कलिंग चक्रवर्ती खारवेल का जन्म ईसापूर्व 174 में हुआ था। 15 वर्ष की अवस्था में उसे युवराज का पद प्राप्त हुआ और 24 वर्ष की आयु में राज्याभिषेक हुआ । अनेक देशों पर विजय प्राप्त की । राजा नन्द द्वारा जाई गयी कलिंग जिन (अग्रजिन या आदिजिन) प्रतिमा को वापस लाकर स्थापित की । महामुनि सम्मेलन करवाया। जैनसंघ ने खारवेल को 'महाविजयी' की पदवी के साथ ' खेमराजा' भिखुराजा और धर्मराजा की पदवी दी। इसके समय में जैनधर्म का बड़ा उत्कर्ष हुआ । सम्राट खारवेल का विश्वश्रुत शिलालेख उड़ीसा राज्य को पूरी जिले के भुवनेश्वर से तीन मील दूर स्थित खण्डगिरि पर्वत के उदय गिरि नामक उत्तरी भाग पर बने हुए हाथी गुफा नामक प्राचीन गुफा के मुख्य द्वार पर उत्कीर्ण है ।

     

    4. वीर मार्तण्ड चामुण्डाराय के बारे में बताइए ?
    गङ्ग नरेश जगदेकवीर धर्मावतार राचमल्ल का महासेनापति चामुण्डराय था । वह बड़ा वीर योद्धा, परम जिनेन्द्रभक्त, कन्नड़, संस्कृत और प्राकृत भाषा का विद्वान्, कवि एवं ग्रन्थकार सुदक्ष सैन्य संचालक एवं जैन सिद्धान्त का अच्छा ज्ञाता था । अपनी शूरवीरता साहस और पराक्रम के कारण उसने बड़ी ख्याति अर्जित की। युद्ध में रणकौशल के कारण समर धुरन्धर, वीर मार्तण्ड, रणरङ्ग सिंह, बैरिकुल काल दण्ड, भुज विक्रम समर केशरी आदि उनकी उपाधियाँ थी । धार्मिक नैतिक चरित्र के लिए सम्यक्त्व रत्नाकार, शौचाभरण, गुणारत्नभूषण, सत्य युधिष्ठिर देवराज आदि सार्थक उपाधियाँ प्राप्त थी । वह जिनेन्द्र भगवान् का स्वगुरु अजितसेनाचार्य का और अपनी स्नेहमयी जननी का परमभक्त था । चामुण्डराय पुराण और चारित्रसार जैसे विशाल एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रणेता भी था । गोम्मटसार की वीर मार्तण्डी टीका (कन्नड़)भी चामुण्डराय रचित मानी जाती है । चामुण्डराय का अपर नाम गोम्मट था । अतः : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने षट्खण्डागम का सार गोम्मट के लिए लिखा इससे उस ग्रन्थ का नाम गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गोम्मटसार जीवकाण्ड और त्रिलोकसार आदि की रचना भी की थी । इन्होंने चन्द्रगिरि पर्वत पर इन्द्रनील मणि की तीर्थङ्कर नेमिनाथ की एक हस्त प्रमाण प्रतिमा विराजमान करवाई थी एवं अपनी जननी काललदेवी की इच्छा पूरी करने के लिए ईस्वी सन् 978 में बाहुबली भगवान् की विश्व विख्यात 57 फुट उत्तुङ्ग खड्गासन प्रतिमा निर्मापित कर ईस्वी सन् 981 में प्राण प्रतिष्ठा करवाई थी, जो रूप, शिल्प और मूर्तिविज्ञान की अद्वितीय कलाकृति है । यह विश्व के आचार्यों में परिगणित है । इनकी धर्म पत्नी देवी धर्मपरायण महिला थी। इनका सुपुत्र जिनदेवन भी धर्मात्मा था। लगभग ईस्वी सन् 990 में इस महान् कर्मवीर एवं धर्मवीर चामुण्डाराय का स्वर्गवास हो गया।


    5. मेवाडोद्धारक भामाशाह के बारे में बताइए ?
    भारमल कावड़िया का पुत्र और वीर ताराचन्द का भाई भामाशाह राणा उदयसिंह के समय से ही राज्य का दीवान प्रधानमन्त्री था। हल्दीघाटी के युद्ध ईस्वी सन् 1576 में पराजित होकर स्वतन्त्रता प्रेमी और स्वाभिमानी राणाप्रताप जङ्गलों और पहाड़ों में भटकने लगे। वहाँ भी मुगलों ने उन्हें चैन न लेने दिया । अतएव सब ओर से निराश एवं हताश होकर उन्होंने स्वदेश का परित्याग करके अन्यत्र चले जाने का संकल्प किया। इस बीच स्वदेश भक्त एवं स्वाभिमान मन्त्रीवर भामाशाह चुप नहीं बैठा रहा । वह देशोद्धार के उपाय जुटा रहा था। ठीक जिस समय राणा भरे मन से मेवाड़ की सीमा से विदाई ले रहा था। वहाँ भामाशाह आ पहुँचा और मार्ग रोककर खड़ा हो गया, उन्होंने ढाढ़स बँधाया और देशोद्धार के प्रयत्न के लिए उत्साहित किया। राणा ने कहा न मेरे पास फूटी कौड़ी है, न सैनिक और न साथी ही, किस बूते पर यह प्रयत्न करूँ भामाशाह ने तुरन्त विपुल द्रव्य उनके चरणों में समर्पित कर दिया, इतना कि जिससे 25 हजार सैनिक12 वर्षों तक निर्वाह कर सके राणा ने भामाशाह को आलिंगन बद्ध कर लिया और दूने उत्साह से मुगलों को देश से बाहर करने में जुट गए। मेवाड़ी वीरों की रणभेरी के नाद मुगल सैनिकों के पैर उखड़ने लगे। और ईस्वी सन् 1586 तक दस वर्ष के भीतर चित्तौड़ और माण्डलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर राणा का पुनः अधिकार हो गया। भामाशाह का जन्म सोमवार, 28 जून ईस्वी सन् 1547 को हुआ था एवं निधन 27 जनवरी ईस्वी सन् 1600 में हुआ था। जीवाशाह, भामाशाह का सुयोग्य पुत्र था। एवं अक्षयराज भामाशाह का पौत्र था । ऐसे नवरत्न ने एक सच्चे जैन के उपयुक्त आचरण द्वारा स्वधर्म, स्वसमाज एवं स्वदेश को गौरवान्वित किया ।
    ( प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ - डॉ. ज्योतिप्रसाद, भारतीय ज्ञानपीठ )

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