जैनधर्म अनादिकाल से प्रवाहमान है किन्तु वर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से अनेक विकृतियाँ देखी जा रही हैं। तीर्थङ्कर महावीर के निर्वाण के बाद दिगम्बर जैन परम्परा अनेक भेद-प्रभेदों में फैल गई है उन्हीं भेद-प्रभेदों का वर्णन इस अध्याय में है।
1. तीर्थङ्कर महावीर का सामान्य परिचय बताइए?
इस भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के छः कालों में वृद्धि एवं ह्रास के अनुसार परिवर्तन होता है । प्रत्येक दु:षमा-सुषमा काल में धर्मतीर्थ के प्रवर्तक चौबीस - चौबीस तीर्थङ्कर होते हैं। वर्तमान पञ्चमकाल में अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर स्वामी का शासनकाल चल रहा है। तीर्थङ्कर महावीर ने 30 वर्ष की आयु में दिगम्बरीय दीक्षा धारण की, 12 वर्ष की कठोर साधना के बाद केवलज्ञान प्राप्त किया। केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद 30 वर्ष तक समवसरण की विभूति से सहित इस भारत की वसुन्धरा पर जिनधर्म का प्रचार करते हुए अन्त में पावापुर के उद्यान से मोक्ष प्राप्त किया।
2. अनुबद्ध केवली कितने हुए ?
तीन हुए। तीर्थङ्कर महावीर कार्तिक कृष्ण अमावस्या को प्रातःकाल निर्वाण हुआ । एवं उसी दिन सायंकाल में तीर्थङ्कर महावीर के प्रमुख गणधर गौतम स्वामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ वे 12 वर्ष तक इस वसुन्धरा पर रहकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इनके बाद सुधर्मास्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ वे भी 12 वर्ष तक रहकर निर्वाण को प्राप्त हुए इनके बाद जम्बूस्वामी को केवलज्ञान हुआ वे 38 वर्ष तक इस भूमि पर रहकर निर्वाण को प्राप्त हुए।
3. श्रुतकेवली परम्परा बताइए ?
अनुबद्ध केवली के बाद क्रमश: विष्णुकुमार, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन एवं भद्रबाहु ये पाँच श्रुत केवली हुए। इन पाँचों का कुल समय लगभग 100 वर्ष रहा इन्हें पूर्ण श्रुतज्ञान था। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद आचार्य अर्हद्बली के समय से साधुओं में संघभेद एवं गणभेद प्रारम्भ हो गए।
4.श्वेताम्बर मत कब से प्रारम्भ हुआ एवं अर्धफालक संघ की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ?
श्वेताम्बर मत का प्रारम्भ तो जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद ही प्रारम्भ हो गया किन्तु अर्धफालक संघ की उत्पत्ति का वर्णन निम्नाङ्कित है।
एक दिन आचार्य श्री भद्रबाहु एक श्रावक के यहाँ आहार करने के लिए गए तभी वहाँ दो माह का बालक झूले में झूल रहा था, कहने लगा जाओ - जाओ ऐसे शब्द सुनकर भद्रबाहु स्वामी ने कहा कब तक के लिए? बालक कहता 12 वर्ष के लिए। महाराज ने जाओ - जाओ शब्द सुनकर अन्तराय मानकर वापस वन की ओर आ गए तथा निमित्त ज्ञान से भी जान लिया इस उत्तर भारत (उज्जयिनी ) में 12 वर्ष तक अकाल पड़ेगा। भद्रबाहु स्वामी ने समस्त मुनि संघ (24,000) को एकत्रित कर कहा हे मुनियों ! इस उत्तर भारत में 12 वर्ष का भीषण अकाल पड़ने वाला है । यहाँ संयम की रक्षा करना बहुत कठिन है । अत: सभी मुनियों को दक्षिण भारत के लिए विहार करना है।
यह चर्चा मुनिसंघ से श्रावकों के बीच में आ गई । श्रावक भी चिन्तित हुए और आचार्य भद्रबाहु से निवेदन करने आ गए कि हे मुनीश्वर ! हमारे गोदाम धान्यों से भरे हैं। 12 वर्ष क्या 100 वर्ष तक का धान्य है । आचार्य परमेष्ठी ने श्रावकों की मीठी-मीठी बातें सुन ली किन्तु कुछ भी नहीं कहा।
श्रावकों की दाल जब बड़े महाराज के पास नहीं गली तब वे श्रावक अन्य छोटे-छोटे महाराजों के पास गए। जिनमें स्थूलभद्र, स्थूलाचार्य, रामल्य आदि मुनि श्रावकों की बातों में आ गए और 12,000 मुनियों का संघ वहीं रुक गया तथा 12,000 मुनियों का संघ भद्रबाहु जी के साथ दक्षिण भारत कि ओर विहार कर गया।
जो 12,000 मुनियों का संघ यहाँ उज्जयिनी के आस पास था। कुछ समय के बाद धीरे-धीरे अकाल का प्रभाव दिखने लगा। एक दिन एक मुनिजन आहार करके वन की ओर जा रहे थे तब एक भूखे आदमी ने महाराज के पेट को चीरकर उसमें स्थित भोजन को खा गया । पेट चिरने से महाराज का मरण हो गया। इस संकट को देख श्रावकों ने मुनियों से निवेदन किया हे स्वामि ! यह काल अत्यन्त भीषण है अतः आपसे निवेदन है कि आप लोग वन को छोड़कर नगर में आ जाए जिससे हम लोग अपनी नजरों से आपको देखते रहेंगे। जिससे इस प्रकार की घटनाएँ नहीं घटेगी।
श्रावकों की प्रार्थना साधुओं ने स्वीकारी । श्रावक लोग भी उसी समय समस्त संघ को नगर में ले आए दुर्भिक्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा । जिन्हें भोजन नहीं मिल रहा था ऐसे भूखे आदमी भी महाराजों के पीछे-पीछे जाने लगे और कहते हमें भी भोजन दो । तब श्रावकों ने अपने दरवाजे बन्द कर लिए । मुनि अलाभ समझकर वापस आ जाते।
अब श्रावकों ने मुनियों से निवेदन किया हे मुनिराजों ! यह सारी पृथ्वी दीनों से पूर्ण हो रही है। और उन्हीं के भय से कोई क्षण मात्र के लिए भी घर के दरवाजे नहीं खोलते। क्योंकि दीन लोग भोजन माँगने लगते हैं । इसी कारण हम लोग रात्रि में ही भोजन बनाने लगे हैं । अत: आप लोगों से निवेदन है कि आप लोग रात्रि के समय ही हम लोगों के घरों से पात्रों में आहार ले जाए और दिन होने पर वहीं पर आहार कर लीजिए।
मुनियों ने ऐसी ही आहार चर्या प्रारम्भ की। रात्रि में अपने पात्रों में आहार लाने लगे एवं दिन में स्वयं आहार करने लगे। रात्रि में कुत्ते आदि भौंकते तो लाठी भी हाथ में आ गई। रात्रि में दिगम्बरत्व रूप देख यशोभद्र सेठ की गर्भवती सेठानी उसका गर्भपात हो गया । श्रावकों ने पुनः साधुओं से विनती की हे साधुओं! आपका दिगम्बरत्व रूप देख महिलाएँ रात्रि में डरने लगी अतः आप लोग रात्रि में जब आहार अपने पात्रों में लेने श्रावकों के घर आए तो नग्नता छिपाने के लिए एक वस्त्र धारण करके आए जिससे आधा शरीर अर्थात् नीचे का भाग न दिखे तथा वसतिका में जाकर वह वस्त्र अलग कर दे। उन्होंने ने इसे भी स्वीकार कर रात्रि में वस्त्र लपेट कर अपने पात्रों में आहार लाने लगे।
धीरे-धीरे दुर्भिक्ष समाप्त हुआ तब विशाखाचार्य उत्तर भारत में संघ सहित आए। (आचार्य भद्रबाहु दक्षिण भारत जाते समय श्रवणबेलगोला में रुके वहीं उनके शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने समाधि कराई) उत्तर भारत में विराजमान साधुओं का वर्तमान रूप एवं चर्या देखकर विशाखाचार्य संघ ने प्रति नमोऽस्तु नहीं की। और कहा यह कौन - सा भेष अपना लिया । उन्होंने अपनी घटना सुनाई तभी विशाखाचार्य ने उन मुनियों को समझाया। कुछ समझ गए और प्रायश्चित्त लेकर सही दिगम्बरत्व रूप में आ गए। किन्तु कुछ हठ के वशीभूत अब कैसे कठिन चर्या को स्वीकारें ऐसा विचार कर उसी मार्ग का अनुकरण करने लगे, वे अर्धफालक कहलाए। यही अर्धफालक संघ आगे जाकर श्वेताम्बर संघ में विलीन हो गया।
विशेष:- श्वेताम्बर मत की विशेष जानकारी के लिए डॉ. रतनचन्द्र जैन भोपाल द्वारा रचित जैन परम्परा और यापनीय संघ खण्ड एक पढ़ना चाहिए।
5. दिगम्बर मान्यताएँ एवं श्वेताम्बर मान्यताएँ के प्रमुख अन्तर बताइए ?
दिगम्बर मान्यताएँ | श्वेताम्बर मान्यताएँ |
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1. केवली कवलाहार (आहार) नहीं करते हैं। |
1. केवली कवलाहार (आहार) करते हैं I |
2. केवली को नीहार (मल, मूत्र) नहीं होता। | 2. केवली को नीहार होता है। |
3. वस्त्र सहित मुक्ति नहीं। | 3. वस्त्र सहित मुक्ति होती है। |
4. द्रव्य स्त्री (महिला) मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकती। | 4. द्रव्य स्त्री मुक्ति प्राप्त कर सकती। |
5. श्रावकों को केवलज्ञान असम्भव । | 5. श्रावकों को केवलज्ञान सम्भव। |
6. दिगम्बर प्रतिमा ही पूज्य है। | 6. वस्त्राभूषण से सुसज्जित प्रतिमा पूज्य है। |
7. स्त्री तीर्थङ्कर नहीं हो सकती । | 7. तीर्थङ्कर मल्लिनाथ को स्त्री मानना। |
8. गर्भ परिवर्तन नहीं हो सकता। | 8. तीर्थङ्करमहावीर का गर्भ परिवर्तन मानना। |
9. तीर्थङ्कर महावीर बाल ब्रह्मचारी थे। | 9. तीर्थङ्कर महावीर का विवाह एवं पुत्री का होना। |
10. मुनि दिन में एक बार ही कर पात्र में आहार लेते हैं। | 10. मुनि दिन में अनेक बार पात्र (बर्त्तन) में आहार-पानी लेते हैं। |
11. मुनि पूर्ण रूप से दिगम्बर रहते हैं। | 11. मुनि वस्त्रों से सहित होते हैं। |
12. अङ्गज्ञान का लोप हुआ। | 12. ग्यारह अङ्ग की मौजूदगी। |
6. नन्दिसंघ आदि नामकरण किस प्रकार हुआ ?
दक्षिण भारत से वापस आने के बाद दिगम्बर मुनियों का संघ अर्हद्बली आचार्य के नेतृत्व में रहा। पञ्चवर्षीय युग प्रतिक्रमण के अवसर पर उन्होंने दक्षिण देशस्थ महिमानगर (वर्तमान महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक मेहमान गढ़ है वही महिमानगर का अनुमान है ) जिला सतारा में यति सम्मेलन की योजना बनाई। जिसमें 100-100 योजन तक के सभी यति आकर सम्मिलित हुए। उस समय आचार्य अर्हद्बली ने पूछा सभी यति आ गए । तब यतियों ने कहा हम सब अपने-अपने संघ के साथ आ गए। तब अर्हद्बली को लगा कि काल के प्रभाव से वीतरागियों में भी अपने-अपने संघ तथा शिष्यों के प्रति कुछ-कुछ पक्षपात जागृत हो चुका है । यह पक्षपात आगे जाकर संघ की क्षति का कारण न बन जाए। इस उद्देश्य से उन्होंने अखण्ड दिगम्बर संघ को नन्दिसंघ आदि अनेक अवान्तर संघों में विभाजित कर दिया।
कथित घटना के अनुसारआचार्य अर्हद्बली ने परीक्षा लेने के लिए अपने चार शिष्यों को विकट स्थानों में वर्षायोग धारण करने का आदेश दिया । तदनुसार नन्दिवृक्ष के नीचे वर्षायोग धारण करने का आदेश दिया । तदनुसार नन्दिवृक्ष के नीचे वर्षायोग धारण करने वाले माघनन्दि का नन्दिसंघ कहलाया । तृण तल के नीचे वर्षायोग धारण करने से श्री जिनसेन का नाम वृषभ पड़ा और उनका संघ वृषभ संघ कहलाया। सिंह की गुफा में वर्षायोग धारण करने वाले का सिंह संघ और देवदत्ता नगरनारी के नगर में वर्षायोग धारण करने वाले साधुओं का संघ देवसंघ कहलाया । (जै.सि .को., 1/488)
आगे अनेक संघ भेद, जैनाभास आदि होते रहे।
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