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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 11 - जैन विद्वान्

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    Vidyasagar.Guru

    जिनशासन की प्रभावना करने वाले तीर्थङ्कर इनके बाद केवली, श्रुतकेवली तथा कालान्तर में आचार्य, उपाध्याय, साधुओं ने अपनी आत्म साधना के साथ-साथ जन कल्याण के लिए उपदेश दिया, ग्रन्थों का लेखन किया और इनके बाद में अनेक विद्वान् हुए जिन्होंने भी यथाशक्ति जैनधर्म का पालन और जिनशासन की प्रभावना के लिए उपदेश दिए तथा अनेक ग्रन्थों का लेखन गद्य शैली, काव्य शैली में किया । जिनमें प्रमुख विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वर्णन इस अध्याय में किया जा रहा है।


    1. महाकवि धनञ्जय एवं उनके द्वारा रचित साहित्य का परिचय बताइए ?
    ईसा की आठवीं शताब्दी में द्विसन्धान महाकाव्य रचयिता धनञ्जय कवि का जन्म हुआ इनकी माता का नाम श्रीदेवी एवं पिता का नाम वसुदेव तथा गुरु का नाम दशरथ माना गया है।
    जिस समय आपके इकलौते पुत्र को सर्प ने डस लिया था उस समय आप जिन पूजा में तल्लीन थे । घर से समाचार आने पर भी आप जिन पूजा में लीन रहें । तभी धर्मपत्नी ने मूच्छित पुत्र को लाकर पति के सामने पटक दिया और कहा तुम्हारी पूजा में शक्ति हो तो बेटे को बचा लो। पूजा करने के पश्चात् जिनभक्ति के प्रभावस्वरूप तत्काल विषापहार स्तोत्र की रचना प्रारम्भ की। रचना पूर्ण होते-होते पुत्र के शरीर का विष उतर गया और बालक खड़ा हो गया। चारों ओर जैनधर्म की जय जयकार गूँज उठी । तथा धर्म की अभूतपूर्व प्रभावना हुई । आपने द्विसन्धान महाकाव्य, विषापहार एवं धनञ्जय नाममाला ग्रन्थ संस्कृत भाषा में रचे।

    1. द्विसन्धान महाकाव्य - सन्धान शैली का यह सर्वप्रथम महाकाव्य है । यह महाकाव्य 18 सर्गों में विभक्त है । इसका दूसरा नाम राघवपाण्डवीय भी है। प्रत्येक श्लोकों के दो-दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थ से राम चरित्र निकलता है और दूसरे अर्थ से कृष्ण चरित्र।
    2. विषापहार स्तोत्र - तीर्थङ्कर वृषभदेव की स्तुति प्रधान यह रचना है । यह स्तुति गम्भीर, प्रौढ़ एवं अध्यात्म से पूर्ण अनूठी रचना है । भक्तिपूर्ण 39 इन्द्रवज्रा छन्दों में लिखी गई स्तुति है । इस स्तुति पर विक्रम की 16वीं शताब्दी में लिखी पार्श्वनाथ पुत्र नागचन्द्र की संस्कृत टीका एवं अन्य संस्कृत टीकाएँ भी पाई जाती है । अनेक हिन्दी पद्यानुवाद भी उपलब्ध हैं ।
    3. धनञ्जय नाममाला - यह छात्रोपयोगी 200 पद्यों का शब्दकोश है । इसका अन्य नाम धनञ्जय निघण्टु भी है। इस लघु कोश में बड़े ही कौशल से संस्कृत भाषा के आवश्यक पर्यायवाची शब्दों का चयन कर गागर में सागर भरने की कहावत चरितार्थ की है। इस कोश में कुल 1700 शब्दों के अर्थ दिए हैं । शब्द से शब्दान्तर बनाने की प्रक्रिया भी अद्वितीय है । यथा पृथ्वी के आगे धर शब्द या उसके अन्य पर्यायवाची शब्द जोड़ देने पर पर्वत के नाम, पति शब्द या पति के समानार्थ स्वामिन् आदि जोड़ देने पर राजा के नाम एवं रुह शब्द जोड़ देने से वृक्ष के नाम हो जाते हैं । इस नाममाला के साथ 46 श्लोक प्रमाण एक अनेकार्थ नाममाला भी सम्मिलित है । इसमें एक शब्द से अनेक अर्थों का कथन किया है।

     

    2. पण्डित आशाधर जी एवं उनके साहित्य का परिचय बताइए?
    आपका जन्म नागौर (राजस्थान) के पास सपादलक्ष ( सवालाख ) देश के माण्डल नगर में ईस्वी सन् 1173 में हुआ। बादशाह शहाबुद्दीन कृत अत्याचार के भय से आप देश छोड़कर ईस्वी सन् 1192 में मालवा देश की धारा नगरी में जा बसे । उस समय वहाँ के राजा विन्ध्यवर्मा के मन्त्री विल्हण थे । उन्होंने उनका बहुत सम्मान किया। बाद में उनके पुत्र सुभट वर्मा का राज्य होने पर आप वहाँ से छोड़कर 10 मील दूर लगच्छ ग्राम में चले गए। आपके पिता का नाम सल्लक्षण (सलखण) और माता का नाम श्रीरत्नी था । जाति बघेरवाल थी। धारा नगरी में पण्डित महावीर से आपने व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया । और उच्च कोटि के विद्वान् हो गए। तथा पण्डित आशाधर के नाम से प्रसिद्ध हुए । आपके अनेक शिष्य हुए- 1. पण्डित देवचन्द्र, 2 . वादीचन्द्र (जो बाद में मुनि हुए) 3. विशाल कीर्ति, 4. भट्टारक देवभद्र, 5. विनय भद्र, 6. मदन कीर्ति (उपाध्याय) 7. उदय जैन (मुनि)। आप अनेक विद्वान् एवं साधुओं से प्रशंसा के पात्र हुए हैं।

     

    साहित्य रचना- 1. क्रियाकलाप ( अमरकोश टीका व्याकरण) संस्कृत 2. व्याख्यालङ्कार टीका, 3 . प्रमेय रत्नाकार (संस्कृत), 4. वाग्भट्ट संहिता ( न्याय) संस्कृत 5. इष्टोपदेश टीका 6. सागार धर्मामृत (संस्कृत), 7. अनगार धर्मामृत (संस्कृत), ऐसी लगभग 20 कृतियाँ हैं जिनके नाम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, 1/280-281 से जानना।

     

    3. पण्डित बनारसी दास जी एवं उनके साहित्य का परिचय बताइए ?
    ईस्वी सन् 1587 में हिन्दी साहित्य के महाकवि बनारसीदासजी का जन्म जौनपुर में खरगसेन के घर हुआ । पुत्र का नाम विक्रमाजीत था, काशी के पण्डित ने उनका नाम बनारसीदास रखा। जिनका निवास स्थान आगरा था । आप तुलसीदास के समकालीन थे । ग्यारह वर्ष की अवस्था में पण्डित जी का विवाह हो गया। चौदह वर्ष की अवस्था में उन्होंने पण्डित देवीदास से विद्या अध्ययन किया तथा उनसे नाममाला, ज्योतिष शास्त्र, अलंकार आदि का अध्ययन किया । आगे चलकर अध्यात्म के प्रखर पण्डित मुनि भानुचन्द्र से भी अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया ।
    कवि जन्मना श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे| अध्यात्म ग्रन्थ समयसार एवं गोम्मटसार ग्रन्थ का अध्ययन कर दिगम्बर सम्प्रदायी हो गए। आपकी रचनाएँ नाममाला, समयसार नाटक, बनारसी विलास, अर्द्धकथानक, महाविवेकयुद्ध, नवरस पद्यावली, (यह शृंगार रसपूर्ण रचना थी जो बाद में विवेक जागृत होने पर उन्होंने यमुना नदी में विसर्जित कर दी।

    ***

    संसार की चार अवस्थाएँ

    संसार- चारों गतियों में स्थित चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना।
    असंसार- फिर जन्म नहीं लेना अर्थात् सिद्ध परमेष्ठी।
    नो संसार- चतुर्गति के भ्रमण का अभाव होने से तथा अभी मोक्ष की प्राप्ति का अभाव होने से सयोग केवली की अवस्था ईषत् संसार या नो संसार है।
    विलक्षण संसार- अभी मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं हुई है और सयोग केवली के समान आत्म प्रदेशों में परिस्पन्दन भी नहीं है अतः अयोग केवली की अवस्था इन तीनों से विलक्षण है| (त.वा.,9/7/3)


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