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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 10 - प्रमुख जैनाचार्य

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    Vidyasagar.Guru

    अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी के दुःषमा- सुषमा काल में तीर्थङ्कर होते हैं। उन्हीं तीर्थङ्करों की वाणी को परम्परा से आचार्यों ने लिपिबद्ध किया है। उन्हीं में से कुछ प्रमुख आचार्यों का वर्णन इस अध्याय में है ।


    मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी ।
    मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥


    कुन्दकुन्दाचार्य दिगम्बर जैनों के प्रातः स्मरणीय विद्वानों में से हैं । प्रत्येक मङ्गल कार्य के प्रारम्भ में आपका नाम भगवान् महावीर एवं गौतम स्वामी के साथ बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ लिया जाता है। जैनाचार्यों में यह गौरवपद स्थान आपको ही प्राप्त है। और आप इस गौरव के सर्वथा योग्य हैं।


    वे आध्यात्मिक साहित्य के मूलाधार समझे जाते हैं । वास्तव में दिगम्बर जैनधर्म को प्रकाश में लाने और उसका महत्व प्रदर्शित करने में आचार्य कुन्दकुन्द ने जो प्रयत्न किया है वह स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। जैनधर्म और जैनागम का मस्तक ऊँचा रखने में दक्षिण भारत अग्रगण्य रहा है । महाविद्वान् आचार्यों को जन्म देकर यह प्रान्त प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।


    शिलालेखों के अनुसार आपका जन्म कोणुकुन्दे प्रचलित नाम कोण्डकुन्दी ( कुन्दकुन्दपुरम् ) तहसील गुण्टूर है जो आन्ध्रप्रदेश के अनन्तपुर जिले के कौण्डकुन्दपुर अपरनाम कुरुमरई माना जाता है। आपका जन्म माघ शुक्ल पञ्चमी ईसा पूर्व में 108 में हुआ था । इन्होंने 11 वर्ष की अल्पायु में ही मुनि दीक्षा ली तथा 33 वर्ष तक मुनिपद पर रहकर ज्ञान और चारित्र की सतत् साधना की। 44 वर्ष की आयु (ईसा पूर्व 64 ) चतुर्विध संघ ने इन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। 51 वर्ष 10 माह और 15 दिन तक उन्होंने आचार्य पद को सुशोभित किया। इस तरह उन्होंने कुल 95 वर्ष 10 माह 15 दिन की दीर्घायु पायी और ईसापूर्व 12 में समाधिमरण पूर्वक देह का त्यागकर स्वर्गारोहण किया।


    1. कुन्दकुन्द आचार्य के अनेक नाम बताइए?
    नन्दिसंघ से सम्बद्ध विजयनगर के 1386 ईस्वी के एक शिलालेख में तथा नन्दिसंघ पट्टावली में इस तरह नामों का उल्लेख है-

    आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः ।
    एलाचार्यो गृद्धपिच्छ इति तन्नाम पञ्चधा ।।


    कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, महामुनि, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ प्रमुख नाम हैं । आचार्य देवसेन ने अपने ग्रन्थ 'दर्शनसार' में 'पद्मनन्दी' नाम से उनका उल्लेख किया है ।


    2. आचार्य कुन्दकुन्द के विदेह क्षेत्र जाने का कोई आगम प्रमाण है?
    विदेह गमन की घटना का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य देवसेन ने दर्शनसार में किया है-

    जइ पउमणदिणाहो सीमंधरसामिदिव्यणाणेण ।
    विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।।43।।


    अर्थ-पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) स्वामी ने सीमन्धर स्वामी से दिव्यज्ञान प्राप्तकर अन्य मुनियों को प्रबोधित किया। यदि वे प्रबोधन कार्य न करते तो श्रमण सुमार्ग किस तरह प्राप्त करते ?


    3. आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित ग्रन्थों के नाम बताइए ?
    पञ्चास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहुड, बारस अणुवेक्खा, भक्ति संग्रह जैसे महान् ग्रन्थों की रचना की है।


    4. आचार्य कुन्द कुन्द के गुरु का नाम बताइए ?
    गुरु का नाम मिलता नहीं है किन्तु आपने आचार्य भद्रबाहु को गमक गुरु कहा है । (बो.पा., 62)

    गमक - शास्त्र के शब्द और उसके अनुरूप अर्थ को जो जानते हैं वे गमक कहलाते हैं ।


    5. आपका नाम वक्रग्रीवाचार्य कैसे पड़ा ?
    अध्ययन,लेखन में इतने व्यस्त हो गए कि उन्हें अपने शरीर का ध्यान नहीं रहा । अथक परिश्रम करते हुए उन्हें समय का भी कुछ ध्यान नहीं रहा । गर्दन झुकाए हुए वे अपने अध्ययन में व्यस्त रहे कि उनकी गर्दन टेडी पड़ गई और लोक उन्हें वक्रग्रीवाचार्य के नाम से पुकारने लगे। जब उन्हें अपनी इस अवस्था का ज्ञान हुआ तब अपनी योग साधना द्वारा उन्होंने अपनी गर्दन पुनः ठीक कर ली।

     

    आचार्य गुणधर


    वर्द्धमान जिनेन्द्र के निर्वाण चले जाने के पश्चात् 683 वर्षों के व्यतीत हो जाने पर इस भरत क्षेत्र में सब आचार्य सभी अङ्गों और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए।


    उसके पश्चात् अङ्ग और पूर्वी का एकदेश ही आचार्य परपम्रा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। पुनः पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु सम्बन्धी तीसरे कषाय प्राभृतरूपी महासमुद्र के पार को प्राप्त श्री गुणधर भट्टारक ने जिनका हृदय प्रवचन के वात्सल्य से भरा हुआ था । सोलह हजार पद प्रमाण इस पेज्ज दोस पाहुड़ (पेज = राग, दोस= द्वेष) का ग्रन्थ विच्छेद के भय से केवल 180 गाथाओं के द्वारा उपसंहार किया। (ज.ध., 16/79)

     

    अनन्तर गुरु परम्परा से प्राप्त उन गाथाओं का आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने अभ्यास करके उन्हें यतिवृषभ आचार्य को पढ़ाया उन्हें पढ़कर यतिवृषभ आचार्य ने उन पर चूर्णिसूत्र लिखे। इस प्रकार कषाय प्राभृत पर जो कुछ लिखा गया वह परम्परा से वीरसेन स्वामी को प्राप्त हुआ । वीरसेन स्वामीसे उसका अभ्यास करके उस पर जयधवला नाम की विस्तृत टीका लिखी। (ज.ध.वि., 16/4)


    चूर्णिसूत्र क्या हैं ?
    अल्प शब्दों में महान् अर्थ धारावाही विवेचन करने वाले पद चूर्णी कहलाते हैं ।
    समय-आपका समय ईसा की प्रथम शताब्दी है ।

     

    उमास्वामी

    तत्त्वार्थ सूत्र - कर्त्तारं गृद्ध पिच्छोप- लक्षितम् ।
    वन्दे गणीन्द्र संजात - मुमास्वामी - मुनीश्वरम् ।।


    तत्त्वार्थ सूत्र से जैन समाज आबाल वृद्ध परिचित है । प्रत्येक धार्मिक जैन मात्र उसे कण्ठस्थ करके अथवा श्रवण करके अपने को सौभाग्यशाली समझता है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समाजों में थोड़े से पाठ भेद के साथ वह समान रूप से आदरणीय माना जाता है, यह विशेषता तत्त्वार्थ सूत्र को ही प्राप्त है।

    वास्तव में आचार्य प्रवर उमास्वामी, तत्त्वार्थ सूत्र की रचना द्वारा सम्पूर्ण जैन समाज को वह अमूल्य निधि प्रदान कर गए हैं जो संसार में कल्पान्त तक एक शुभ प्रकाश की किरणें फैलाती रहेगी।


    जीवन परिचय - दिगम्बर सम्प्रदाय में उमास्वामी को शिलालेखों तथा आचार्य की पट्टावलियों के आधार पर कुन्दकुन्दस्वामी का अन्वयी अधिवंशज सूचित किया है | श्रवणबेलगोल के शिलालेख में श्रुतकेवली देशीय प्रकट किया है ।


    उमास्वामी के पिता का नाम स्वाति और माता का नाम वास्ती कहा गया है। उनका जन्म न्यगोधिका नामक नगर में हुआ था जो उच्चनगर की शाखा का था । उनका गोत्र कौभीष्यणि था जो उन्हें उच्च कुलीन ब्राह्मण या क्षत्रिय होना प्रकट करता है। (सन्दर्भ जैनाचार्य पुस्तक लेखक विद्यारत्न पण्डित मूलचन्द्र दमोह, प्रकाशक मूलचन्द्र किसनदास कापडिया सूरत 25-3-1948)
    समय - विक्रम की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध एवं द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध ।
    विशेष- दीक्षागुरु आचार्य कुन्दकुन्द ।
    तत्त्वार्थ सूत्र रचने के निमित्त - तत्त्वार्थ सूत्र रचने के दो निमित्त मिलते हैं। एक यहाँ कहा जा रहा है - सौराष्ट्र देश के ऊर्जयन्तगिरि के समीप गिरि ग्राम में सिद्धय्य नामक एक प्रसिद्ध विद्वान् था जो शास्त्रों का ज्ञाता आसन्नभव्य और स्वहितार्थी था। द्विज कुल में उसका जन्म हुआ था । उसने एक समय " दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः” यह सूत्र एक पटिये पर लिख लिया उसे उसी तरह छोड़कर वह किसी कार्यवश बाहर चला गया । उसी समय उमास्वामी ने उसके यहाँ आकर आहार ग्रहण किया। उनकी दृष्टि पटिये पर अङ्कित किये हुए सूत्र पर पड़ी। उन्होंने उस सूत्र के साथ 'सम्यक्' शब्द जोड़ दिया ।


    सिद्धस्थ ने बाहर से आकर यह देखा और बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसने अपनी माता के सम्यक् शब्द लिखने वाले विद्वान् का परिचय पूछा माता ने बतलाया कि एक निर्ग्रन्थाचार्य ने लिखा है । सिद्धय्य महोदय उनकी खोज करते हुए श्री उमास्वामी के निकट पहुँचे और नतमस्तक होकर उनसे प्रश्न किया । भगवन् । आत्मा का हित क्या है ? मुनिराज ने उत्तर दिया मोक्ष है तब उसने मोक्ष का स्वरूप और उसे पाने का उपाय पूछा, जिसके उत्तर स्वरूप आचार्य महोदय ने तत्त्वार्थ सूत्र की रचना की जो तत्त्वार्थ सूत्र के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।


    विशेष- तत्त्वार्थ सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि आदि सोलह टीकाओं की जानकारी उपलब्ध है। (जै. सि.को., 2/356) इसके मङ्गलाचरण पर आप्तमीमांसा, अष्टशती, अष्टसहस्री टीकाएँ लिखी गई हैं।

     

    समन्तभद्र

    जिनशासन की गौरव पताका को नीलाकाश में फहराने वाले प्रचण्ड आत्म बलशाली स्वामी समन्तभद्राचार्य को कौन नहीं जानता उनका वह अपूर्व तेज, उनका महान् व्यक्तित्व आज भी भारत क्षेत्र में उनकी गौरव गरिमा को प्रदर्शित कर रहा है।


    जीवन परिचय- आपका जन्म उरगपुर ( त्रिचनापल्ली के) नागवंशी चोल नरेश कीलिक वर्मन के कनिष्ठ (छोटे) पुत्र शान्तिवर्मा। शान्तिवर्मा आपका प्रारम्भिक नाम है। आप क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे (जै.सि.को., 4/326)


    समय- ईसा की दूसरी शताब्दी (120-185 ) है ।
    आपके गुरु का नाम अज्ञात है ।


    मुनि जीवन में भस्मक व्याधि - साधु जीवन में कुछ समय व्यतीत करने के पश्चात् ही स्वामी समन्तभद्राचार्य के ऊपर असातावेदनीय कर्म का आक्रमण हुआ। उस समय 'मणिवक हल्ली' नामक ग्राम में धर्मदेशना कर रहे थे तब अचानक उन्हें भस्मक व्याधि हो गई । जितना खावें सब भस्म होता जावें, क्षुधानिवृत्ति ही नहीं । मुनि जीवन में दिन में एक बार आहार वह भी अधिकतम 2 घण्टे 24 मिनट तक ले सकते हैं ।


    उन्होंने इस असह्य वेदना को देखते हुए अपने गुरु से सल्लेखना द्वारा शरीर त्याग की आज्ञा माँगी । गुरु दीर्घदर्शी थे, वे बुद्धिमान समन्तभ्रद के द्वारा जैन-धर्म की महती प्रभावना की आशा रखते थे । अतः उन्होंने सल्लेखना मरण की आज्ञा नहीं दी। फलतः समन्तभद्र ने निर्ग्रन्थ मुद्रा छोड़कर अन्य साधु का वेश रख लिया। अब वे स्वेच्छापूर्वक आहार करते हुए विहार करने लगे। उन्होंने कर्नाटक देश को छोड़कर उत्तर भारत की ओर चल पड़े। भ्रमण करते हुए वे काशी आए । यहाँ शिवमन्दिर में शिवभोग की विशाल अन्नराशि को देखकर उन्होंने विचार किया कि यदि यह अन्नराशि मुझे प्राप्त हो जाए तो इससे मेरी व्याधि शान्त हो जाए । विचार आते ही वे अपनी चतुराई से शिवमन्दिर में रहने लगे। चतुराई यही थी कि उन्होंने वायदा किया। कि मैं यह सब अन्नराशि शिवजी की पिण्डी को खिला दूँगा। पाषाण निर्मित पिण्डी साक्षात् भोग ग्रहण करे इससे बढ़कर और क्या चाहिए? मन्दिर के व्यवस्थापकों ने इन्हें मन्दिर में रहने की आज्ञा दे दी। मन्दिर के दरवाजे बन्द कराकर वह विशाल अन्नराशि को स्वयं खाने लगे और दरवाजे खोलकर लोगों को बता दिया करें कि शिवजी ने भोग ग्रहण कर लिया।


    उस अन्नराशि से धीरे-धीरे तीन-चार माह में अब उनका भस्म रोग बहुत कुछ उपशान्त हो चुका था। और प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा प्रसाद शेष रहने लगा । तब गुप्तचरों के द्वारा काशी नरेश को जब इस बात का पता चला कि यह न शिवभक्त है और न शिवजी को भोग अर्पित करते हैं किन्तु स्वयं खा जाता है । तब वह आगबबूला होता हुआ समन्तभद्र के सामने आया और उनसे उनकी यथार्थता पूछने लगा । तब समन्तभद्र ने कहा काञ्ची में मलिन वेषधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुस में भस्म रमाकर शरीर को श्वेत किया, पुण्ड्रोण्ड जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दशपुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला संन्यासी बना, वाराणसी में श्वेत वस्त्रधारी तपस्वी बना । राजन् ! आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो, मुझसे शास्त्रार्थ कर लें ।


    राजा ने शिवमूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया किन्तु उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि यह मूर्ति मेरे नमस्कार को सह न सकेगी। समन्तभद्र के इस उत्तर से राजा का कौतुहल और नमस्कार करने का आग्रह दोनों बढ़ गए। समन्तभद्र आशुकवि तो थे ही, उन्होंने वृषभ आदि चौबीस तीर्थङ्करों का स्तवन प्रारम्भ किया । जब वे आठवें तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ का स्तवन कर रहे थे तब सहसा शिवमूर्ति फट गई और उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान् की मूर्ति निकल पड़ी । स्तवन पूर्ण हुआ । यही स्तवन आज 'स्वयम्भूस्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध है। इस घटना से काशीनरेश जिनधर्म का अनुयायी और उनके शिष्य बन गए और अनेक लोगों ने जैनधर्म धारण किया।

    साहित्य सृजन- आपके द्वारा रचित उपलब्ध ग्रन्थों में - 1. स्वयम्भूस्तोत्र, 2. आप्त मीमांसा (देवागम स्तोत्र, 3. युक्त्यानुशासन, 4. स्तुति विद्या, 5 रत्नकरण्ड श्रावकाचार ।
    अनुपलब्ध ग्रन्थ- 1. जीवसिद्धि, 2. तत्त्वानुशासन, 3. प्राकृत व्याकरण, 4. प्रमाण पदार्थ 5. कर्म प्रकृति टीका, 6. गन्धहस्ति महाभाष्य ।

     

    आचार्य वीरसेन स्वामी (समय ई.770-827)

    पञ्चस्तूप संघ के अन्वय में आप आर्यनन्दि के शिष्य और जिनसेन के गुरु थे । चित्रकूट निवासी ऐलाचार्य के निकट सिद्धान्त शास्त्रों का अध्ययन करके आप वाटग्राम ( बडौदा) आ गए। वहाँ आनतेन्द्र के बनवाए हुए जिनमन्दिर में षट्खण्डागम तथा कषायपाहुड की आचार्य बप्पदेव कृत व्याख्या देखी जिससे प्रेरित होकर आपने इन दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर धवला और जयधवला नाम की विस्तृत टीकाएँ लिखी। इनमें से जयधवला की टीका इनकी समाधि के पश्चात् आपके शिष्य जिनसेनाचार्य (ई. 837 ) में पूर्ण की।

     

    विद्वत्ता - वीरसेन स्वामी सिद्धान्त शास्त्र के अद्वितीय विद्वान् थे। जिनसेन स्वामी ने उन्हें वादिमुख्य लोकवित् वाग्मी और कवि के अतिरिक्त श्रुतकेवली तुल्य कहा है। उनकी चमत्कारिणी बुद्धि समस्त विषयों में प्रवेश करने वाली थी, इसलिए विद्वान् उन्हें कलिकाल सर्वज्ञ की संज्ञा से सम्बोधित करने का साहस करते थे।

    गुणभद्राचार्य उन्हें समस्त वादियों को त्रस्त करने वाले और ज्ञान तथा चारित्र से निर्मित हुआ मानते थे।

    द्वितीय जिनसेन ने उन्हें कवि चक्रवर्ती के नाम से प्रबोधित किया है।


    विशेष- आचार्य जिनसेन के अलावा दशरथ गुरु व आचार्य विनयसेन आपके शिष्य थे|(जै. सि.को., 3/576, जै. पु., 66 )


    सोमदेव सूरि

    चिरकाल से शास्त्र समुद्र के बिलकुल नीचे डूबे हुए शब्द रत्नों का उद्धार करके विद्वान् सोमदेव ने जो बहुमूल्य आभूषण (काव्य) बनाया उसे श्री सरस्वती देवी धारण करें।


    सोमदेव सूरि बड़े भारी तार्किक विद्वान् थे । इसके साथ-साथ वे काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र के भी धुरन्धर पण्डित थे । राजनीति में तो वे अद्वितीय थे।


    जीवन परिचय - सोमदेव सूरि देवसंघ के महान् आचार्य थे। दिगम्बर सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध चार संघों में से यह एक संघ था।
    आपके गुरु का नाम नेमिदेव और दादागुरु का नाम यशोदेव था ।


    समय- आपका समय विक्रम की 11 वीं शताब्दी माना गया है । यशस्तिलक चम्पू की प्रशस्ति द्वारा ज्ञात होता है कि आपने उसे चैत्र शुक्ल त्रयोदशी शक संवत् 881 (विक्रम संवत् 1026 ) को समाप्त किया। जै. सि.को., 1/330 में ईस्वी सन् (943–968)
    ग्रन्थ रचना - षण्णवतिप्रकरण (96अध्याय वाला शास्त्र), युक्ति चिन्तामणि (दार्शनिक ग्रन्थ) त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प (धर्मादिपुरुषार्थत्रय निरूपक नीतिशास्त्र) और यशोधर महाराज चरित्र ( यशस्तिलक चम्पू) की रचना की है। इनमें दो ग्रन्थ (नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलक चम्पू) उपलब्ध हैं शेष ग्रन्थों का अभी तक कोई पता नहीं । नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति में आचार्य सोमदेव सूरि ने उक्त ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अत: नीतिवाक्यामृत ही अन्तिम रचना समझनी चाहिए। (नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति)

     

    विशेष- सोमदेव सूरि प्रशस्ति में स्वयं लिखते हैं- मैं छोटों के साथ अनुग्रह, बराबरी वालों के साथ सज्जनता और पूज्य पुरुषों के साथ आदर का व्यवहार करता हूँ किन्तु जो व्यक्ति अत्यधिक गर्व वृद्धि से दुराग्राही होकर मुझ से स्पर्द्धा करता है - ऐंठ दिखाता है-उसके गर्वरूप पर्वत को भेदन करने के लिए मेरे वचन वज्र समान व काल तुल्य आचरण करते हैं।


    आचार्यश्री पुष्पदन्त जी

    • समय- ईस्वी सन् 50 से 80
    • प्रमुख सृजन- षट्खण्डागम
    • सृजन विधा- सिद्धान्त ग्रन्थ
    • सृजन भाषा- प्राकृत

    विशेष : आप प्रतिभाशाली ग्रन्थ निर्माण में पटु थे । करहाटक निवासी जिनपालित को दीक्षा देकर अपने साथ वनवास देश ले गए। अत: आपका जन्म स्थान करहाटक के आस- पास होने का निश्चय होता है आपक कर्मप्रकृति प्राभृत को छ: खण्डों में उपसंहार करना चाहते थे । अत: उन्होंने बीस प्ररूपणाओं का 100 सूत्रों में वर्णन किया ।

     

    आचार्य श्री भूतबली जी

    • समय-ईस्वी सन् 66 से 80
    • प्रमुख सृजन-षट्खण्डागम
    • सृजन विधा-सिद्धान्त ग्रन्थ
    • सृजन भाषा-प्राकृत

    विशेष : पुष्पदन्त के नाम के साथ भूतबली का भी नाम आता है। दोनों ने एक साथ धरसेनाचार्य से सिद्धान्त विषय का अध्ययन किया । आचार्य भूतबली ने अंकलेश्वर में वर्षायोग कर द्रविड देश में जाकर श्रुत की रचना की।

     

    आचार्य श्री धरसेन जी

    • समय- ईसा पूर्व 13
    • प्रमुख सृजन- जोड़ी पाहुड
    • सृजन विधा- कर्म सिद्धान्त
    • सृजन भाषा- प्राकृत

    विशेष : आप अङ्गपूर्व के एक देश ज्ञाता अष्टाङ्ग महानिमित्त के पारगामी लेखन कला में प्रवीण मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रों के वेत्ता थे। महाकम्मपयडि पाहुड के वेत्ता प्रवचन और शिक्षण कला में निपुड प्रश्नोत्तर शैली तथा आग्रायणीय पूर्व के पञ्चम वस्तु के चतुर्थ प्राभृत के व्याख्याकर्ता थे । आप सौराष्ट्र की गिरनार गुफा में रहकर साधना करते थे|

     

    आचार्यश्री वट्टेकर जी

    • समय- ईसा की प्रथम शताब्दी
    • प्रमुख सृजन- मूलाचार
    • सृजन विधा- आचार
    • सृजन भाषा- प्राकृत

    विशेष : स्वसमय- परसमय के ज्ञाता एवं चरणानुयोग के सूक्ष्म ज्ञाता थे|

     

    आचार्यश्री यतिवृषभ जी

    • समय- ईस्वी सन् 150-180
    • प्रमुख सृजन- तिलोयपण्णत्ती (तीन लोक का वर्णन),कषायपाहुड (चूर्णिसूत्र )
    • सृजन विधा- कर्मसिद्धान्त
    • सृजन भाषा- प्राकृत

    विशेष : यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवाद के ज्ञाता थे। आप नन्दिसूत्र के प्रमाण से कर्म प्रकृति के भी ज्ञाता सिद्ध होते हैं । आर्यमंक्षु और नागहस्ति का शिष्यत्व इन्होंने स्वीकार किया । धवला और जयधवला में भूतबली और यतिवृषभ के मतभेद परिलक्षित होते हैं । व्यक्तित्व के महनीयता की दृष्टि से यतिवृषभ भूतबली के समकक्ष हैं। चूर्णिसूत्रों में आपने सूत्र शैली को प्रतिबिम्बित किया है और अपनी सूक्ष्म प्रतिभा का चूर्णिसूत्रों में उपयोग किया।


    आचार्यश्री शिचार्य जी

    • समय- ईसा की द्वितीय शताब्दी
    • प्रमुख सृजन- भगवती आराधना
    • सृजन विधा- आचार
    • सृजन भाषा- प्राकृत

    विशेष : काव्य शैली में पारंगत आगम सिद्धान्त के साथ नीति सदाचार एवं प्रचलित परम्पराओं से आप सुपरिचित थे। अलंकार शैली में मनोवैज्ञानिक विषय प्रस्तुत करना आपकी विशेषता थी । धार्मिक विषयों को सरल शैली में प्रस्तुत करने की आपके पास अनूठी कला थी।


    आचार्यश्री अकलंकदेव जी

    • समय- ईस्वी सन् 620 से 650
    • प्रमुख सृजन- तत्त्वार्थवार्तिक अपर नाम राजवार्तिक
    • सृजन विधा- न्याय
    • सृजन भाषा- संस्कृत
    • सृजन साहित्य - स्वोपज्ञवृत्ति सहित लघीयस्त्रय, न्याय विनिश्चय सविवृत्ति, अष्टाशती, देवागमविवृत्ति।
    • जन्मस्थान- मान्यखेट।
    • पिता- पुरुषोत्तम राजा शुभतुङ्ग के मन्त्री।

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