जैन ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर अङ्गुल शब्द आता है, यह क्या है ? इसके कितने भेद हैं, एवं किस अङ्गुल से क्या नापते हैं इसका वर्णन इस अध्याय में है।
1. अङ्गुल का प्रमाण क्या है ?
जो द्रव्य आदि मध्य एवं अन्त से रहित हो एक प्रदेशी हो, इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य एवं विभाग रहित हो उसे परमाणु कहते हैं ।इस प्रकार के अनन्तानन्त परमाणु द्रव्यों से एक अवसन्नासन्न स्कन्ध उत्पन्न होता है।
- 8 अवसन्नासन्नों का एक सन्नासन्न नाम का स्कन्ध होता है।
- 8 सन्नासन्नों का एक त्रुटिरेणु नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 त्रुटिरेणुओं का एक त्रसरेणु नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 त्रसरेणुओं का एक रथरेणु नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 रथरेणुओं का एक उत्तम भोगभूमि का बालाग्र नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 उत्तम भोग भूमि के बालाग्रों का एक मध्यम भोगभूमि का बालाग्र नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 मध्यम भोग भूमि के बालाग्रों का एक जघन्य भोगभूमि का बालाग्र नाम का स्कन्ध होता है।
- 8 जघन्य भोग भूमि के बालाग्रों का एक कर्म भूमि का बालाग्र नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 कर्मभूमि के बालाग्रों का एक लीक नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 लीकों का एक जूँ नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 जूँ का एक जौ नाम का स्कन्ध होता है ।
- 8 जौ का एक अङ्गुल नाम का स्कन्ध होता है ।
2. अङ्गुल के भेद एवं लक्षण बताइए ?
अङ्गुल तीन प्रकार के हैं - उत्सेधाङ्गुल, प्रमणाङ्गुल, आत्माङ्गुल ।
1. उत्सेधाङ्गुल- ऊपर जो 8 जौ का एक अङ्गुल बताया है वही उत्सेधाङ्गुल, व्यवहाराङ्गुल या सूच्यङ्गुल कहलाता है। इस उत्सेधाङ्गुल से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च एवं नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चार प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है।
2. प्रमाणाङ्गुल- पाँच सौ उत्सेधाङ्गलों का एक प्रमाणाङ्गल होता है। यह प्रमाणाङ्गल अवसर्पिणी काल के (प्रथम) भरत चक्रवर्ती का एक अङ्गुल है।
द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती, और भरतादि क्षेत्रों का माप अर्थात् प्रमाण इस प्रमाणाङ्गुल से ही होता है।
3. आत्माङ्गल - जिस-जिस काल में भरत ऐरावत क्षेत्रों में जो जो मनुष्य हुआ करते हैं उस उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अङ्गुल का नाम आत्माङ्गुल है ।
नालि,झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, वाण, अक्ष, चामर, दुन्दुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यानादि को का माप आत्माङ्गुलों से होता है । (त्रि.सा., 18 हिन्दी विशेषार्थ)
***
- काल द्रव्य से अलोकाकाश में कैसे परिवर्तन होता है ?
जैसे- कुम्भकार का चाक एक जगह घुमाया जाता है, किन्तु वह चाक सर्वाङ्ग घूमता है। तथा जैसे- एक स्थान पर स्पर्शेन्द्रिय का मनोज्ञ विषय होता है, किन्तु सुख का अनुभव सर्वाङ्ग में होता है । तथा सर्प एक जगह काटता है, किन्तु विष सर्वाङ्ग में चढ़ता है। तथा फोड़े आदि की व्याधि एक जगह होती है, परन्तु वेदना सर्वाङ्ग में होती है । वैसे ही काल द्रव्य लोकाकाश में है, किन्तु अलोकाकाश में भी वह परिवर्तन कराता है। (पं.का.ता.वृ., 24 ) 24)
उदाहरण एक और है आप गुलाबजामुन मुख में रखते हैं किन्तु आनन्द सर्वाङ्ग में होता है।
- वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर को प्रतिघात रहित क्यों नहीं कहा?
वैक्रियिक शरीर भी बाधा को प्राप्त होता है, क्योंकि उनका विक्रिया क्षेत्र भी निश्चित है । जैसे- देव तीसरी पृथ्वी से आगे नहीं जा सकते । कल्पातीत विमानवासी वहीं पर रहते हैं। नारकी अपने-अपने नरक से बाहर विक्रिया नहीं करते हैं ।आहारक शरीर अढ़ाई द्वीप से बाहर नहीं जा सकता है ।