संसारी प्राणी तीनों लोकों में रहते हैं । ऊर्ध्व लोक में कौन रहते हैं। उनके सुख, दुःख, वैभव आदि का वर्णन इस अध्याय में है।
1. वैमानिक देवों के विमान एवं अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या बताइए?
84,97,023 विमानों की संख्या प्रमाण अकृत्रिम चैत्यालय हैं।
क्र. संख्या | स्वर्ग | विमान संख्या |
---|---|---|
1 |
सौधर्म | 32,00000 |
2 | ईशान | 28,00000 |
3 | सानत्कुमार | 12,00000 |
4 | माहेन्द्र | 8,00000 |
5 | ब्रह्म | 200096 |
6 | ब्रह्मोत्तर | 199904 |
7 | लान्तव | 25042 |
8 | कापिष्ठ | 24958 |
9 | शुक्र | 20020 |
10 | महाशुक्र | 19980 |
11 | शतार | 3019 |
12 | सहस्रार | 2981 |
13 | आनत - प्राणत | 440 या 400 |
14 | आरण-अच्युत | 260 या 300 |
15 | तीन अधो ग्रैवेयक | 111 |
16 | तीन मध्यम ग्रैवेयक | 107 |
17 | तीन उपरिम ग्रैवेयक | 91 |
18 | अनुदिश | 9 |
19 | अनुत्तर | 5 |
कुल | 84,97,023 |
2. ऊर्ध्व लोक के प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान एवं अन्तिम सर्वार्थसिद्धि विमान का विस्तार कितना है ?
प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान का विस्तार मनुष्य क्षेत्र बराबर 45 लाख योजन एवं अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमान का विस्तार जम्बूद्वीप के बराबर एक लाख योजन है।(त्रि.सा., 472)
3. सौधर्म इन्द्र एवं ईशान इन्द्र की सात प्रकार की सेनाओं के प्रधान के नाम बताइए ?
क्रमाङ्क | सेना | सौधर्म इन्द्र | ऐशान इन्द्र |
---|---|---|---|
1 | वृषभ | दामयष्टि | महादामयष्टि |
2 | तुरङ्ग | हरिदामा | अमितगति |
3 | रथ | मातलि | रथमन्थन |
4 | गज | ऐरावत | पुष्पदन्त |
5 | पयाद | वायु | सलघुपराक्रम |
6 | गन्धर्व | अरिष्टयशा | गीतरत |
7 | नर्तकी | नीलाञ्जना | महासुसेना |
(त्रि .सा.,494-496)
विशेष- इन दोनों में प्रारम्भ के छ: छ: पुरुषवेदी एवं नीलाञ्जना तथा महासुसेना स्त्री वेदी है।
4. दक्षिणेन्द्रों एवं उत्तरेन्द्रों की 8-8 महादेवाङ्गनाओं के नाम बताइए ?
दक्षिणेन्द्रों में- शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अज्जुका और भानु नाम की महादेवाङ्गनाएँ हैं ।
उत्तरेन्द्रों में- श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा और वसुन्धरा नाम की महादेवाङ्गनाएँ हैं । (त्रि.सा., 510-511)
5. एक महादेवी की परिवार देवाङ्गनाएँ कितनी हैं एवं दोनों कितनी कितनी विक्रिया करती है ?
6. उपरोक्त सातों पदों में वल्लभादेवाङ्गनाएँ कितनी-कितनी होती हैं ?
परिवार देवाङ्गनाओं में जो-जो देवाङ्गनाएँ इन्द्र को अतिप्रिय होती हैं उन्हें वल्लभा कहते हैं। सातों स्थानों में इनका प्रमाण क्रमश : 32,000, 8,000, 2000, 500, 250, 125 और 63 हैं । (त्रि.सा., 513)
7. कल्प एवं कल्पातीत विमानों एवं उनमें स्थित गृह के रङ्ग बताइए ?
- सौधर्म-ईशान- इन दोनों स्वर्गों के विमान एवं उनमें स्थित गृह काले, नीले, लाल, पीले और श्वेत अर्थात् पञ्च वर्ण वाले हैं।
- सानत्कुमार- माहेन्द्र- नीले, लाल, पीले, श्वेत ।
- ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ - लाल, पीले, श्वेत ।
- शुक्र- महाशुक्र, शतार - सहस्रार - पीले और श्वेत ।
- शेष सभी तथा नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, पञ्च, अनुत्तर - श्वेत । (सि.सा.दी., 15/81-85)
8. सौधर्मइन्द्र उसके लोकपाल, अष्ट महादेवियों, अङ्गरक्षक, सेनानायक पारिषद और सामानिक देवों के आसन कहाँ रहते हैं चित्र द्वारा बताइए ?
9. वैमानिक देवों में जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर कितना हैं ?
उत्कृष्टता से जितने काल तक किसी भी जीव का जन्म न हो उसे जन्मान्तर और मरण किसी का न हो उसे मरणान्तर कहते हैं। वैमानिक देवों में यह अन्तर निम्नाङ्कित हैं-
सौधर्म - ऐशान स्वर्ग में - | 7 दिन |
सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग में | 15 दिन |
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव -कापिष्ठ- | 1 माह |
शुक्र - महाशुक्र, शतार-सहस्रार- | 2 माह |
आनत-प्राणत, आरण-अच्युत- | 4 माह |
नवग्रैवेयक - नव अनुदिश - पञ्च अनुत्तरों में- | 6 माह |
10. इन्द्र, इन्द्र की महादेवी और लोकपालों का उत्कृष्ट विरह काल कितना है ?
इन्द्र, इन्द्र की महादेवी और लोकपालों का उत्कृष्ट विरहकाल 6 माह का तथा त्रायस्त्रिंश, सामानिक, तनुरक्षक और पारिषद देवों के जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर 4 माह का है । (त्रि.सा., 530)
विशेष- इन्द्र, इन्द्र की महादेवी और लोकपाल का मरण होने के बाद अन्य जीव उस स्थान पर जन्म न ले तो अधिक से अधिक 6 माह तक नहीं लेगा । इसीप्रकार भारतीय संविधान के अनुसार असमय में लोकसभा या विधानसभा भङ्ग होने पर छ: माह के अन्दर चुनाव अनिवार्य हैं। तथा त्रायस्त्रिंश, सामानिक, तनुरक्षक और पारिषद देवों का उत्कृष्ट विरह काल 4 माह है।
11. मिथ्यादृष्टि देव मरण चिह्न को देखकर क्या विचार करते हैं?
देवों की छ: माह आयु शेष रहने पर उनके शरीर की कान्ति मन्द हो जाती है गले की माला मुरझा जाती है और मणिमय आभूषणों का तेज मन्द हो जाता है। इस प्रकार के मृत्यु चिह्न देखकर मिथ्यादृष्टि देव अपने मन में इष्ट वियोगज आर्त्तध्यान रूप इस प्रकार का शोक करते हैं कि हाय ! संसार की सारभूत स्वर्ग की इस प्रकार की सम्पत्ति छोड़कर अब स्त्री के अशुभ निन्दनीय और कुत्सित गर्भ में होगा ? अहो ! विष्ठा और कृमि आदि से व्यापत उस गर्भ में दीर्घ काल तक अधोमुख पड़े रहने की वह दुस्सह वेदना हमारे द्वारा कैसे सहन की जाएगी। इस प्रकार के आर्त्तध्यान रूप पाप से भवनत्रिक और सौधर्म - ईशान कल्प में स्थित मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग से च्युत होकर बादर पर्याप्त पृथिवीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों में जन्म लेते हैं । (सि. सा. दी, 15 / 328-391)
12. सम्यग्दृष्टि देव मरण चिह्नों को देखकर क्या विचार करते हैं?
सम्यग्दृष्टि देव मरण चिह्नों को देखकर विचार करते हैं कि यहाँ स्वर्गों में इन्द्रों के भी न किञ्चित् यम, नियम हैं और न तप है और न दान आदि हैं और तप आदि के बिना मोक्षरूप शाश्वत सुख की प्राप्ति हो नहीं सकती किन्तु मनुष्य भव में मनुष्यों को मोक्ष के साधन भूत तप, रत्नत्रय, व्रत एवं शील आदि सभी प्राप्त हो जाते हैं अत: अब अद्भुत पुण्य परिपाक से हम लोगों को मनुष्य भव और उत्तम कुल की प्राप्ति हो रही है उसे प्राप्त कर हम लोग अनन्त सुख की खान स्वरूप मोक्ष का साधन करेंगे। (सि.सा.दी, 15/392-95)
13. इन्द्रदेव एवं देवियों के उत्पत्ति (उपपाद) स्थान कहाँ एवं कितने हैं?
सौधर्म-ईशान कल्पों में स्थित मानस्तम्भ के पास इन्द्र का उपपाद गृह हैं, जो आठ योजन लम्बा, चौड़ा और ऊँचा है। उसके मध्य में रत्नों की दो शय्या हैं तथा उपपाद गृह के पास ही बहुत कूटों से युक्त उत्कृष्ट जिनमन्दिर हैं।
दक्षिण-उत्तर कल्पों की देवाङ्गनाएँ क्रम से सौधर्म - ईशान स्वर्ग में ही उत्पन्न होती हैं। वहाँ शुद्ध (मात्र) देवाङ्गनाओं की उत्पत्ति से युक्त छः लाख और चार लाख विमान हैं। उन देवियों को उत्पत्ति के पश्चात् उपरिम कल्पों के देव अपने-अपने स्थान पर ले जाते हैं। सौधर्म - ईशान कल्पों में शेष 26 लाख और 24 लाख विमान देव-देवियों की उत्पत्ति से सम्मिश्र हैं। (त्रि. सा., 523-525)
14. अहमिन्द्रों में क्या-क्या विशेषताएँ हैं ?
ये देव ‘“मैं ही इन्द्र हूँ” ऐसा मानने वाले हैं और असूया (दूसरे के गुणों में दोष लगाना), पर निन्दा, आत्म प्रशंसा, मत्सर से दूर रहते हुए केवल सुखमय जीवन बिताते हैं । ये महाद्युतिमान्, विक्रिया, ऋद्धिधारी, समचतुरस्र संस्थान, अवधिज्ञानी, निष्प्रविचारी एवं शुभ लेश्याओं वाले होते हैं । ये हँस के समान श्वेत शरीर को धारण करते हैं । ये केवल सुखमय होकर हर्षयुक्त होते हुए क्रीड़ा करते रहते हैं । (म.पु., 11/134-154)
15. स्वर्ग में देवों के परिवार, ऋद्धि आदि से सुख होता है परन्तु अहमिन्द्रों के वह सामग्री नहीं है अतः उनको सुख कहाँ से प्राप्त होता है?
यदि सामग्री की सत्ता मात्र से सुख इष्ट है तो उस राजा को भी सुख होना चाहिए । जिसे ज्वर चढ़ा हुआ है और अन्तःपुर की रानियाँ, धन और प्रतापी परिवार आदि सामग्री उसके पास विद्यमान है, किन्तु वह सुखी नहीं होता। (म.पु.,11/187-190)
16. सौधर्म आदि इन्द्र के वाहनों के नाम बताइए ?
सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र का वाहन गजेन्द्र है, ईशान स्वर्ग में घोड़ा, सानत्कुमार स्वर्ग में सिंह, माहेन्द्र में बैल, ब्रह्म स्वर्ग में सारस, ब्रह्मोत्तर में कोयल, लान्तव में हँस, कापिष्ठ में चक्रवाक (चकवा), शुक्र में गरुड़, महाशुक्र में मगर, शतार में मयूर, सहस्रार में कमल और आनतादि आदि चार स्वर्गों में कल्पवृक्ष का वाहन हैं । (सि.सा.दी., 15/109-112)
17. राहु और केतु और विमानों से कितने ऊपर चन्द्र और सूर्य के विमान हैं ?
राहु और केतु विमानों की ध्वज दण्ड से चार प्रमाण अङ्गुल ऊपर जाकर क्रम से चन्द्र का विमान और सूर्य का विमान है । (त्रि.सा., 340)
18. अढ़ाई द्वीप में स्थित स्थिर ( ध्रुव) तारा कितने हैं ?
जम्बूदीप में 36 तारा हैं, लवण समुद्र में 139, धातकी खण्ड में 1010 कालोदधि में 41,120 और पुष्करार्ध में 53,230 ताराएँ हैं।
19. जब सूर्य प्रथम वीथी (गली) में रहता है तब दिन 18 मुहूर्त का एवं जब सूर्य अन्तिम वीथी में रहता तब दिन 12 मुहूर्त का होता है तो ह्रास किस प्रकार से होता है?
सूर्य की 184 वीथियाँ है, किन्तु अन्तराल 183 में ही पड़ता है । जबकि 183 गलियों में 6 मुहूर्त का अन्तर पड़ता है, तब एक गली 6/183 मुहूर्त अर्थात् 2/61 मुहूर्त (1 35/61 ) मिनट होता है।
जिस दिन सूर्य अभ्यन्तर गली में भ्रमण करता है उस दिन 18 मुहूर्त का दिन होता है, किन्तु जिस दिन दूसरी गली में भ्रमण करता है उस दिन 2/61 मुहूर्त घट जाता है अर्थात् 18/1-2/61=17–59/61 मुहूर्त का दिन होता है इसी प्रकार प्रत्येक गली में 2/61, 2/61 घटते घटते 17-57/61, 17-55/61, मुहूर्त का दिन होते-होते जिस दिन अन्तिम गली में पहुँचता है उस दिन 12 मुहूर्त का दिन होता है। इसी प्रकार अभ्यन्तर गली की ओर बढ़ते हुए प्रत्येक गली में 2/61 मुहूर्त बढ़ते हैं। तब दिन मान 12-2/61, 12-4/61 आदि क्रम से बढ़ते हुए अभ्यन्तर गली में 18 मुहूर्त का दिन हो जाता है । (त्रि.सा.,380)
20. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट नक्षत्रों के नाम बताइए ?
- जघन्य - शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा और ज्येष्ठ |
- मध्यम- अश्विनी, कृत्तिका, मृगशीर्षा, पुष्य, मघा, हस्तु, चित्रा, अनुराधा, पूर्वत्रिक, (पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद) मूल, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती ।
- उत्तम - रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ और उत्तराभाद्रपद । (त्रि.सा., 399 )
21. पुष्य नक्षत्र की क्या विशेषता हैं ?
पुष्य नक्षत्र में पाँच भागों में से तीन भाग सहित चार (4-3/5 ) दिन जाकर उत्तरायण की परिसमाप्ति होती है। श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन अभ्यन्तर गली में पुष्य नक्षत्र का शेष 44/5 भाग दक्षिणायन का आदि है। अर्थात दक्षियायन का प्रारम्भ होता है । (त्रि. सा., 409)
22. युग का प्रारम्भ कब से होता है ?
आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन पाँच वर्ष स्वरूप युग की समाप्ति होती है, तथा श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन चन्द्र का अभिजित् नक्षत्र के साथ होने पर युग का प्रारम्भ होता हैं । (त्रि.सा., 411)
23. आवृत्ति किसे कहते हैं कितनी होती है एवं कब-कब होती हैं ?
पूर्व अयन की समाप्ति और नवीन अयन के प्रारम्भ को आवृत्ति कहते हैं ये आवृत्तियाँ पञ्च वर्षात्मक एक युग में दस बार होती हैं। इनमें 1,3,5,7 और 9 वीं आवृत्ति तो दक्षिणायन सम्बन्धी हैं। तथा 2,4,6,8 और 10 वीं आवृत्ति उत्तरायण सम्बन्धी हैं। (त्रि. सा. विशेषार्थ,413)
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