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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 16 - अधो लोक

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    Vidyasagar.Guru

    संसारी जीव तीनों लोक में रहते हैं । अधो लोक में मुख्यतः नारकी रहते हैं एवं प्रथम पृथ्वीके खरभाग तथा पङ्क भाग में भवनवासी और व्यन्तर देव भी रहते हैं। उनका स्वरूप क्या हैं । इसका वर्णन इस अध्याय में है-


    1. पुराने नारकी नये नारकियों का स्वागत किस प्रकार से करते हैं ?
    पुराने नारकी नये नारकियों को देखकर अति कठोर शब्द करते हुए पास आकर उन्हें मारते हैं और उनके घावों पर अति खारा जल सींचते हैं। (त्रि.सा., 183)


    2. नवीन नारकी क्या करते हैं ?
    विभङ्गज्ञान से पूर्वापर के बैर का सम्बन्ध जानकर वे नवीन नारकी भी अशुभऔर अपृथक् विक्रिया द्वारा उन्हें मारते हैं और उनके द्वारा स्वयं मार खाते हैं । (त्रि.सा.184)

    विशेष- नरकों में पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद मिथ्यादृष्टियों को विभङ्गज्ञान एवं सम्यक् दृष्टियों को अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है ।


    3. अपृथक् विक्रिया करने का विधान बताइए?
    नारकी जीव अपने शरीर में भेड़िया, व्याघ्र, उल्लू, कौआ, सर्प, बिच्छू, रीछ, गिद्ध, कुत्ता आदि रूप तथा त्रिशूल, अग्नि, बरछी, भाला, मुद्गर आदि रूप विक्रिया करते हैं । (त्रि. सा., 185)
    विशेष - नारकी उपरोक्त रूप ही विक्रिया करते हैं । वहाँ असिपत्र वन, नदियाँ, तालाब आदि स्वभाव से हैं ।

     

    4. नरकों में क्षेत्रगत पदार्थों की क्रूरता का वर्णन बताइए ?
    उन नरकों में वेताल सदृश भीमाकृति पर्वत हैं । दुःखदायक सैकड़ों यन्त्रों से भरी गुफाएँ हैं । वहाँ स्थित प्रतिमाएँ (पुतलियाँ) लोहमयी एवं अग्निकणों से व्याप्त हैं । फरसा, छुरिकादि शस्त्र सदृशपत्रों से युक्त असिपत्र वन है । मिथ्या शाल्मलि वृक्ष हैं। वहाँ की वैतरणी नाम की नदियाँ और तालाब खारे जल से भरे हैं, दुर्गन्धित पीप, खून से युक्त हैं, तथा उनमें करोड़ों कीड़े भरे हैं । (त्रि .सा., 186-187)


    5. आयुध रूप विक्रिया कौन सी पृथ्वी तक के नारकी करते हैं?
    छठवीं पृथ्वी तक के नारकियों कि त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर आदि रूप विक्रिया होती है ।


    6. सप्तम पृथ्वी के नारकी किस प्रकार की विक्रिया करते हैं?
    सप्तम पृथ्वी के नारकी गाय बराबर कीड़े लोहू आदि रूप से एकत्व विक्रिया ही होती है। (त.वा. 2/47/4)

     

    7. किन-किन कार्यों का नरक में क्या फल मिलता है ?

    1. जीवों के नेत्र फोड़ने का और अङ्गोपाङ्ग छेदन का फल - पूर्व जन्म में अन्य जीवों के नेत्र फोड़ देने से एवं अङ्गोपाङ्ग का छेदन - भेदन आदि कर देने से जो पाप एवं अशुभ कर्म का सञ्चय हुआ है उसी के कारण नारकी नेत्र उखाड़ लेते हैं और अङ्गोपाङ्ग काट लेते हैं । (सि.सा.दी., 3/61)
    2. दूसरे के प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले पाप का फल - अन्य जीवों के बुरे चिन्तन आदि से चित्त में जो विकार उत्पन्न होता है उस पापोदय के फलस्वरूप कोई नारकी क्रोधित होते हुए बल पूर्वक पेट विदीर्ण कर देते हैं और कोई यन्त्रादिकों में पीस देते हैं। (सि.सा.दी., 3/62)
    3. मद्य आदि अपेय पदार्थ पीने का फल- मद्य आदि अनेक प्रकार के अपेय पदार्थ पीने से जो पाप सञ्चय हुआ था उससे ये नारकी जीव सण्डासी से मुख फाड़कर बलपूर्वक उसमें जलता हुआ ताम्ररस डाल रहे हैं । (सि.सा.दी., 3/63)
    4. परस्त्री सेवन का फल - परस्त्री सेवन से उत्पन्न पाप के फलस्वरूप वे नारकी जीव बलपूर्वक गले में तप्त लोहे की स्त्री से दृढ़ आलिङ्गन करा रहे हैं । (सि. सा. दी., 3/64)
    5. जीवों को छेदन - भेदन आदि के दुःख देने का फल - मनुष्य पर्याय में जो धनान्ध होकर तेल आदि के मील खोलकर और बड़े-बड़े यन्त्र लगाकर बिना शोधन किए तिलहन आदि पेलकर महान् पाप सञ्चय करते हैं । उन नारकी जीवों के शरीर को कैंची आदि द्वारा छोटे-छोटे टुकड़े करके यन्त्रों में (घानी में ) पेलते हैं और पत्थर की चक्कियों द्वारा उन्हें पीसते हैं वे दुष्ट और निर्दयी नारकी दूसरों को हाण्डियों में पकाते हैं हड्डियों का चूर्ण कर देते और आपस में एक दूसरे को मारते हैं। वहाँ ताम्रमय गृद्धपक्षी और लोहे के मुख वाले कौएँ अपनी तीक्ष्ण चोंचों एवं नखों से (मनुष्य पर्याय में जो पशुओं के मर्म स्थानों का छेदन - भेदन करते हैं तथा उनके शरीर में हो जाने वाले घावों की पक्षियों से रक्षा नहीं करते हैं ।) उन नारकियों के मर्म स्थानों का छेदन करते हैं । खोटे कर्मोदय के वश से उन नारकी जीवों के छिन्न-भिन्न किए हुए शरीर डण्डे से ताड़ित जल के समान तत्क्षण सम्बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। (सि.सा.दी., 3/65-68)
    6. माँस भक्षण का फल- जिन्होंने पहले माँस भक्षण किया था, पाप से उन माँस भक्षी जीवों के माँस को अन्य नारकी शूल से (माँस पकाने का काँटा) पका कर खाते हैं । (सि.सा.दी., 3/69)
    7. भिन्न-भिन्न प्रकार के दुःखों का कथन- लोहे की तप्त स्त्री के आलिङ्गन से मूर्च्छा को प्राप्त होने वाले नारकियों के मर्म स्थानों पर अन्य दुष्ट नारकी लोह दण्ड के द्वारा चोंटे मारते हैं।(सि.सा.दी., 3/70)
    8. गर्व करने का फल - पूर्व जन्म में नाना प्रकार के बढ़ते हुए मद समूह से सञ्चित पाप के फल स्वरूप उन नारकी जीवों के अन्य नारकी तप्ताय लोहे के आसनों पर बैठाते हैं । (सि.सा.दी.,. 3/83)
    9. अयोग्य स्थान में शयन करने का फल - पूर्व भव में परस्त्री के साथ अति मृदुल शय्या पर सोने से जो पाप बँध किया था उससे अन्य कोई नारकी उन्हें लोहे के तीक्ष्ण काँटों के ऊपर सुलाते हैं ।(सि.सा.दी., 3/84)
    10. सप्त व्यसन सेवन का फल - पूर्व भव में सप्त व्यसनों का सेवन करके, जो पाप उपार्जन किया, उसके उदय से नरक में उन नारकी जीवों को कोई नारकी भयङ्कर दुःख देने के लिये तीक्ष्णशूल के अग्रभाग पर चढ़ा देते हैं। और कोई दुष्ट आक्रन्दन करते (दुःख से चिल्लाते हुए उन जीवों के सम्पूर्ण शरीर को जबरदस्ती सांकल द्वारा खम्बे पर बान्धकर करोंत से चीरते हैं । (सि.सा.दी., 3/85-86)
    11. बैर विरोध रखने का फल - कोई-कोई नारकी जीव पूर्व भव के बैर का स्मरण करके और बार- बार भर्त्सना युक्त खोटे वचनों द्वारा उस बैरभाव को कहकर क्रोधित होते हुए रणाङ्गन में स्थित होकर अपने शरीर की अपृथक् विक्रिया से उत्पन्न हुए नाना प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र समूहों के द्वारा उनके सम्पूर्ण शरीर को छेद देते हैं तथा क्रोधित होते हुए परस्पर में एक दूसरे को मारते हैं । (सि.सा.दी., 3/87-88)

    विशेष- इस प्रकार उन नरकों के दुःखों से भयभीत और सुख की इच्छा करने वाले जीवों का कर्त्तव्य है कि वे पाप रूप शत्रु को सर्वथा नष्ट करके प्रयत्न पूर्वक धर्म कार्य करें। (सि.सा.दी., 3/118)


    8. नरकों में सभी नारकियों को हमेशा दुःख ही होता रहता है क्या ?
    नहीं। नरकों में (तीसरी पृथ्वी तक ) जिन नारकी जीवों के तीर्थङ्कर नाम कर्म सत्ता में है, उनकी आयु के छ: माह शेष रहने पर देवगण उन नारकियों का उपसर्ग निवारण कर देते हैं, तथा स्वर्ग में भी तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता वाले देवों की आयु छ: माह शेष रहने पर माला नहीं मुरझाती।


    9. भवनवासी देवों के दस भेदों में कितने इन्द्र होते हैं?
    पूर्वयोर्द्वन्द्रा: (त.सू., 4/6) पूर्व के दो निकाय भवनवासी और व्यन्तर देवों में दो-दो इन्द्र होते हैं ।अत: भवनवासी देवों के दस भेदों में बीस इन्द्र होते हैं-

    देव के भेद इन्द्र
    असुरकुमार - चमर और वेरोचन ।
    नागकुमार - भूतानन्द और धरणानन्द ।
    सुपर्णकुमार - वेणु और वेणुधारी ।
    द्वीपकुमार - पूर्ण और वशिष्ट ।
    उदधिकुमार -जलप्रभ और जलकान्त ।
    विद्युत्कुमार - घोष और महाघोष ।
    स्तनितकुमार - हरिषेण और हरिकान्त ।
    दिक्कुमार -अमितगति और अमितवाहन ।
    अग्निकुमार -अग्निशिखी और अग्निवाहन ।
    वायुकुमार -वेलम्ब और प्रभञ्जन ।(त्रि.सा., 209-211)

     

    10. भवनवासी देवों में दस प्रकार के चैत्यवृक्षों के नाम बताइए?
    अश्वत्थ(पीपल) सप्तपर्ण, शाल्मलि, जामुन, वेतस (बेन्त), कदम्ब, प्रियङ्गु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम(चिरौंजी)ये दस चैत्य वृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलों के चिह्न स्वरूप होते हैं। (त्रि.सा.,214)


    11. लोक व्यवहार में पीपल, जामुन, अशोक, चम्पा, तुलसी आदि वृक्षों के श्रेष्ठ क्यों मानते हैं?
    क्योंकि भवनवासी देवों में दस प्रकार के चैत्यवृक्ष होते हैं जिनमें पीपल (अश्वत्थ) और जामुन नाम के चैत्य वृक्ष भी हैं। इसी प्रकार व्यन्तर देवों में आठ प्रकार के चैत्यवृक्ष हैं। जिनमें अशोक, चम्पा और तुलसी नाम के भी चैत्यवृक्ष हैं । इन वृक्षों पर चैत्य (प्रतिमा) विराजमान हैं अतः ये वृक्ष पूज्य हैं। (त्रि.सा., 214 एवं 253) जिस तरह ये चैत्यवृक्ष पूज्य हैं। उसी दृष्टि से लोक व्यवहार में पीपल आदि वृक्षों को भी श्रेष्ठ मानते हैं ।


    12. भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों में किस प्रकार की कितनी प्रतिमाएँ विराजमान हैं?
    चैत्यवृक्षों के मूलभाग की चारों दिशाओं में पल्यङ्कासन से स्थित तथा देवों द्वारा पूज्य पाँच-पाँच प्रतिमाएँ है ।
    विशेष- उन प्रतिमाओं के आगे प्रत्येक दिशा में रत्नमयी उत्तुङ्ग पाँच-पाँच मानस्तम्भ विराजमान है वे अपने उपरिम भाग में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में सात-सात प्रतिमाओं सहित हैं । (त्रि. सा., 216)


    13. भवनवासी इन्द्रों के भवनों का संख्या बताइए?

    दक्षिणेन्द्र

    चमरेन्द्र 34 लाख
    भूतानन्द 44 लाख
    वेणु 38 लाख
    पूर्ण 40 लाख
    जलप्रभ 40 लाख
    घोष 40 लाख
    हरिषेण 40 लाख
    अमितगति 40 लाख
    अग्निशिखी 40 लाख
    वेलम्ब 50 लाख

     

    उत्तरेन्द्र

    वैरोचन 30 लाख
    धरणानन्द 40 लाख
    वेणुधारी 34 लाख
    वशिष्ट 36 लाख
    जलकान्त 36 लाख
    महाघोष 36 लाख
    हरिकान्त 36 लाख
    अमितवाहन 36 लाख
    अग्निवाहन 36 लाख
    प्रभञ्जन 46 लाख


    14. भवनवासी देवों के भवनों का विशेष स्वरूप बताइए ?
    भवनवासी देवों के भवन उत्तम सुगन्धित पुष्पों से शोभायमान हैं और उनकी भूमि रत्नमयी है। उनकी दीवारें भी रत्नमयी हैं वे भवन सतत् प्रकाशमान रहते हैं तथा सर्वेन्द्रियों को सुख देने वाली चन्दनादि वस्तुओं से सुसज्जित हैं । ( त्रि.सा., 218 )


    15. भवनवासी देवों के ऐश्वर्य बताइए?
    नाना प्रकार की मणियों के आभूषण से दीप्त तथा अष्टगुण ऋद्धियों से विशिष्ट वे भवनवासी देव अपने पूर्व तपश्चरण के फल स्वरूप अनेक प्रकार के इष्ट भोग भोगते हैं। (त्रि.सा.,219)


    16. असुरकुमार आदि देव किन्हें कहते हैं?
    असुरकुमार -

    1. जिनकी अहिंसा आदि अनुष्ठानों में रति है वे सुर हैं, इससे विपरीत असुर हैं। (ध.पु., 13/391)
    2. ये प्रथम तीन नरक पृथिवियों तक जाकर नारकियों को उनके पूर्व भव सम्बन्धी बैर का स्मरण कराकर परस्पर लड़ाते हैं। वे असुर कहलाते हैं। (म.पु., 10/41)

     

    नागकुमार- 

    1. पर्वत और चन्दनादि वृक्षों पर रहने वाले देव नागकुमार कहलाते हैं। ये और असुरकुमार परस्पर मत्सरता से एक-दूसरे के प्रारम्भ किए हुए कार्यों में विघ्न करते हैं ।
    2. ये पाताल लोकवासी भवनवासी देव हैं, फण से उपलक्षित ( भवनवासी) नाग कहलाते हैं (ध.पु., 13/391)

     

    वातकुमार-

    1. ये वातकुमार जाति के देव हैं। ये तीर्थङ्करों के दीक्षा कल्याणक में शीतल और सुगन्धित वायु का प्रसार करते हैं । (वी. व.च., 12/491)
    2. जो तीर्थङ्कर के विहार मार्ग को शुद्ध करते हैं, वे वातकुमार हैं। (म.पु., 25/253)

     

    स्तनितकुमार- ये तीर्थङ्कर की समवसरण भूमि के चारों और विघुन्माला आदि से युक्त होकर गन्धोदकमय वर्षा करते हैं ( ह.पु. 3 / 23 ) ये पाताल लोक में निवास करते हैं । (ह.पु., 4/65)

    जो शब्द को करते हैं अथवा जिनके शब्द उत्पन्न होता है ये स्तनित कहलाते हैं।


    17. भवनत्रिक देव ऊपर नीचे कितना जाते और कितना ले जाए जाते हैं ?
    भवनत्रिक देव अपने कार्य वशात् अधोलोक में तीसरी पृथ्वी तक जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में स्व इच्छा से तो धर्म-ऐशान स्वर्ग तक ही जाते हैं । किन्तु मित्र आदि अन्य महर्द्धिक देवों द्वारा प्रीति पूर्वक सोलह स्वर्ग तक ले जाए जाते हैं । (सि.सा.दी., 14/123-126)


    18. ऋद्धिधारी भवनवासी देवों के आवास कहाँ हैं ?
    चित्रा पृथ्वी से एक हजार योजन नीचे व्यन्तर देवों के आवास हैं । दो हजार योजन नीचे जाकर अल्पऋद्धि के धारक भवनवासी देवों के विमान हैं। बयालीस हजार योजन नीचे जाकर महाऋद्धि के धारक भवनवासी देवों के भवन हैं तथा एक लाख योजन नीचे मध्यम ऋद्धि धारक देवों के भवन हैं । (त्रि.सा., 221)


    19. भवनवासी देवों के शरीर की क्या विशेषताएँ हैं ?

    1. ये सब देव स्वर्ण के समान, मल के संसर्ग से रहित, निर्मल कान्ति के धारक होते हैं ।
    2. इनकी निश्श्वास सुगन्धित होती है।
    3. ये अनुपम रूप लावण्य वाले एवं समचतुरस्र संस्थान वाले लक्षणों एवं व्यञ्जनों से युक्त तथा पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर कान्तिवाले होते हैं ।
    4. ये नित्य ही कुमार रहते हैं वैसे ही इनकी देवियाँ होती हैं ।
    5. इनके शरीर में माँस, हड्डी, मेद, लोहू, मज्जा, वसा और शुक्र आदि सात धातुएँ नहीं होती हैं ।
    6. इनका शरीर नाना प्रकार के आभूषणों से शोभायमान रहता है ।
    7. इनके हाथ पैर लालिमा युक्त एवं नसों से रहित होते हैं ।
    8. इनका शरीर-बालों से रहित, अनुपम लावण्य तथा दीप्ति से परिपूर्ण होता है ।
    9. ये अनेक प्रकार के हाव भावों में आसक्त रहते हैं। (ति.प., 3/126-130)

    ***


    एक और चार कल्याणक वाले तीर्थङ्कर क्यों नहीं होते ?
    केवलज्ञान होने के बाद तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक होता है तथा बन्ध चतुर्थ गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के छठवें भाग तक होता है। इसलिए एक मोक्ष कल्याणक नहीं हो सकता । तथा गर्भ अवस्था में भी तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ नहीं हो सकता क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ करने के लिए कम-से-कम आठ वर्ष की आयु चाहिए। अतः चार कल्याणक (जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष) वाले भी तीर्थङ्कर नहीं हो सकते हैं I


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